शक्कर के दाने

15-07-2021

शक्कर के दाने

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 185, जुलाई द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

जब भी संतृप्त
अपरिहार्य और व्यस्त ज़िंदगी
के कुछ भागते पलों के बीच
खूँटी से टँगी 
समय की पगडंडियों को
झाड़ पोंछ कर फैलाता हूँ
तो पाता हूँ अपने शहर के
कुछ बहुत पुराने अपने घर 
खड़े हैं मेरे इंतज़ार में। 
 
शक्कर के दानों की तरह मीठे
रिश्ते पुकारते हैं शंख की आवाज़ से। 
 
कुछ तंग गलियाँ, सीधे खड़े घाट
राठी के तिग्गड़े से छिड़ाव घाट तक फैला।
मेरा शहर कितना अपना सा
गंज की रामलीला और थाने की
आर्केस्ट्रा तक सब कुछ कितना सुनहरा।
गोपाल नाई की दुकान पर राजनीतिक तपसरे,
उच्छ्व महाराज की लोंगलता,
दिप्पू बनिये के समोसे
शक्करनदी का वो निर्मल मीठा जल। 
 
वो हरे भरे गेहूँ के खेत,
स्टेशन तक घोड़े ताँगे की सवारी।
स्कूल तक जाने के लिए
अपने भाई से साइकिल के लिए झगड़ा।
वो डोल ग्यारस के विमान,
रात भर टाकीज में फ़िल्म,
बी टी आई स्कूल में मित्रों की शरारतें।
 
मैं कूदता था नालों  में, पोखरों में
नदिया में जाने से अम्मा डाँटती थीं।
भाई करता था मेरा अनुसरण
उसकी हर शैतानी का ज़िम्मेवार मैं ही था।
उन पगडंडियों पर वो सभी चेहरे
जो बन गए मील के पत्थर।
सब मिले मुझे वक़्त की पगडंडियों में।
 
आज का शहर कितना अजनबी
जीवन,और विकास के क्रम में
धूल धूप और अजनबीपन से सना।
कालोनियों में बँटता अपनापन,
सूखी लुटती शक्कर,
बिजली कारखाने की काली डस्ट,
फ़ैशनेबल नई पीढ़ी
अनगिनित चीखते, रेत ढोते डम्पर
कोलाहल के सन्नाटे में
गुम होता मेरा अपना शहर।
 
वही दरो-दीवार किन्तु सब
अजनबी चेहरे रिक्तता लिये।
कुछ अपने पहचाने चेहरे
आज भी मिलते हैं मीठे
शक्कर के दानों की तरह।
ज़िन्दगी की रेस से निकलकर
अपनी यादों का एक राऊँड लगाने
चलो चलें उस पुराने शहर में।

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