ब्रह्मराक्षस का अभिशाप 

15-10-2025

ब्रह्मराक्षस का अभिशाप 

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 286, अक्टूबर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

(हॉरर स्टोरी-सुशील शर्मा) 
(भाग-1) 

अजय की उँगलियाँ बंजारी माता मंदिर की पुरानी पत्थर की सीढ़ियों पर काँप उठीं। यह नवरात्रि का आठवाँ दिन था, और जिस मंदिर में सामान्यतः ढोल, नगाड़ों और भक्तों की भीड़ का शोर गूँजना चाहिए था, वहाँ भयानक चुप्पी पसरी हुई थी। हवा में न तो धूप-अगरबत्ती की महक थी, न ही ताज़े फूलों की। इसके बजाय, एक बासी, नम और मिट्टी जैसी अप्रिय गंध तैर रही थी। 

अजय इस गाँव का नया एसडीएम (Sub-Divisional Magistrate) था। शहरी पृष्ठभूमि का होने के कारण वह इन ग्रामीण अंधविश्वासों को गंभीरता से नहीं लेता था, लेकिन इस बार मामला अलग था। 

नवरात्रि के पहले दिन से ही मंदिर में अशुभ संकेत मिलने लगे थे। जो जवारे (जौ के अंकुर) नवदुर्गा के प्रतीक के रूप में पवित्र कलशों में बोए जाते थे, वे पहले दिन तो हरे थे, मगर दूसरे दिन से ही मुर्झाने शुरू हो गए। आठवें दिन तक, वे पूरी तरह सूख चुके थे। 

अजय ने मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश किया। सामने, माता की भव्य प्रतिमा पर धूल की पतली परत जम गई थी। लेकिन सबकी निगाहें मुख्य कलश के पास रखे जवारों के थालों पर थीं। 

जवारे तो सूखे थे ही, उनकी जड़ों के चारों ओर सफ़ेद फफूँद का एक अजीब सा जाल फैल गया था—जैसे कि किसी ने उन पर राख या पुराना मकड़ी का जाला डाल दिया हो। 

“सावधान, साहब!” पुजारी, वृद्ध पंडित हरिओम ने दबी आवाज़ में कहा। “इसे मत छूना।”

अजय की नज़र जवारों से हटकर मंदिर के सबसे पवित्र स्थान पर गई: अखंड ज्योति। 

पीतल के दीये में तेल भरा था, रूई की बाती भी सही जगह थी, लेकिन ज्योति . . . वह बुझी हुई थी। सिर्फ़ बुझी नहीं थी, बल्कि ऐसा लग रहा था जैसे उसे किसी ने बलपूर्वक दबा दिया हो। दीये के किनारों पर तेल के जमने का निशान नहीं था, बल्कि एक अजीब सी चिकनाई थी, जैसे तेल जम न गया हो, बल्कि किसी ने उसे सोख लिया हो। 

“यह कैसे हुआ, पंडित जी?” अजय ने पूछा। “पवन देवता की हवा तो यहाँ तक आती नहीं।”

पंडित हरिओम की आँखें भय से चौड़ी हो गईं। “यह पवन देवता का काम नहीं है, साहब। यह उसका काम है।”

पंडित हरिओम अजय को मंदिर के पिछले आँगन में ले गए। यहाँ मंदिर का सबसे पुराना सदस्य खड़ा था—एक विशाल बरगद का पेड़, जिसकी जड़ें इतनी मोटी थीं कि वे किसी प्राचीन साँप जैसी लगती थीं। उसकी हवाई जड़ें, जो सदियों से नीचे लटकी थीं, अब सड़ी हुई और काली पड़ चुकी थीं। 

“यह बरगद इस गाँव की आत्मा है, “पंडित जी ने काँपते हुए कहा। “लेकिन इसकी आत्मा अब अपवित्र हो गई है।”

पंडित जी ने बताया कि बरगद पर बहुत पहले से ही कुछ प्रेत (सामान्य आत्माएँ) निवास करते थे। ये प्रेत मंदिर के भक्तों को कभी परेशान नहीं करते थे, बल्कि मंदिर की शक्ति से डरकर सीमित रहते थे। सब कुछ सामान्य चल रहा था, जब तक कि एक-डेढ़ साल पहले वह नहीं आया। 

“कौन?” अजय ने पूछा। 

पंडित जी ने फुसफुसाते हुए उत्तर दिया, “ब्रह्मराक्षस।”

यह नाम सुनते ही अजय के शरीर में एक सिहरन दौड़ गई। ब्रह्मराक्षस! वह आत्मा जो ज्ञान और तपस्या की शक्ति से इतनी प्रबल हो जाती है कि अपनी मृत्यु के बाद एक भयानक और अविश्वसनीय रूप से शक्तिशाली दानव बन जाती है। 

पंडित हरिओम ने बताया कि डेढ़ साल पहले एक रात गाँव के सबसे ज्ञानी वेदपाठी ब्राह्मण ने आत्महत्या कर ली थी—किसी भयानक निराशा या अकारण क्रोध में। चूँकि वह महान ज्ञानी और तपस्वी था, उसकी आत्मा को मुक्ति नहीं मिली, बल्कि वह ब्रह्मराक्षस बन गई। 

“वह इसी बरगद पर रहता है,” पंडित जी ने डर से पीछे हटते हुए कहा। “वह प्रेतों का राजा बन गया है। पहले उसने बरगद के प्रेतों को वश में किया, और अब, वह माता की शक्ति को चुनौती दे रहा है।”

पंडित जी के अनुसार, ब्रह्मराक्षस का क्रोध उसके अधूरे ज्ञान और विपरीत तपस्या से पैदा होता है। वह चाहता है कि लोग ज्ञान और धर्म से डरें, न कि सम्मान करें। 

“सूखे जवारे और बुझी अखंड ज्योति उसी की करतूतें हैं,” पंडित जी ने ज़ोर देकर कहा। “जवारे जीवन और धर्म के अंकुरण का प्रतीक हैं। उसने उन्हें सुखा दिया ताकि यह संदेश जाए कि अब इस स्थान पर कोई आध्यात्मिक विकास सम्भव नहीं है। और ज्योति . . . वह प्रकाश और देवी की उपस्थिति का प्रतीक है। उसने उसे बुझा दिया ताकि लोगों को लगे कि देवी ने इस स्थान को त्याग दिया है।”

“लेकिन . . . देवी माँ उसे रोक क्यों नहीं रहीं?” अजय ने लगभग चिल्लाकर पूछा। 

पंडित जी की अगली बात ने अजय के पैरों तले ज़मीन खींच ली। 

“लोग कहते हैं . . . देवी माँ उसे रोक नहीं सकतीं।”

“क्यों?” 

“ब्रह्मराक्षस . . . स्वयं एक तपस्वी की भयानक शक्ति है। वह धर्म के सारे नियम जानता है। वह जानता है कि मंदिर की ऊर्जा को कहाँ से और कैसे काटा जा सकता है। वह स्वयं ज्ञान का विकृत रूप है। वह देवी से सीधे नहीं लड़ता। वह बस यहाँ के विश्वास और भक्ति को मार रहा है। और यही उसे और भी ज़्यादा शक्तिशाली बना रहा है।”

अजय तर्कवादी था। वह ब्रह्मराक्षस, प्रेत और देवी की शक्ति की कहानी को सामूहिक उन्माद (Mass Hysteria) मानता था। उसने निश्चय किया कि वह इस भ्रम को तोड़ेगा। 

♦ ♦

अगली रात, अजय ने दो भरोसेमंद पुलिस कांस्टेबलों और एक इलेक्ट्रीशियन को मंदिर बुलाया। उसका प्लान सरल था: इलेक्ट्रीशियन को मंदिर में एक शक्तिशाली आपातकालीन जनरेटर लगाने को कहा गया, ताकि ज्योति किसी भी हाल में न बुझे। पुलिसकर्मी मंदिर के अंदर सुरक्षा के लिए तैनात थे। 

अजय ने ख़ुद रात 11 बजे गर्भगृह में प्रवेश किया। उसने स्वयं अपने हाथों से दीये में तेल डाला, नई बाती रखी और अखंड ज्योति को फिर से प्रज्ज्वलित किया। ज्योति की लौ काँप रही थी, जैसे वह किसी अदृश्य दबाव में हो। 

अजय मंदिर के दरवाज़े के पास बैठ गया, अपने हाथ में टॉर्च और रिवाल्वर लेकर—विज्ञान और शक्ति का प्रतीक। बाहर, बरगद की शाखाएँ हवा में अजीब तरह से झूल रही थीं, जबकि आसपास की हवा स्थिर थी। 

जैसे ही घड़ी में ठीक 12:45 बजे, मंदिर के कोने में रखी पुरानी पीतल की घंटी अचानक ज़ोर से बजी! 

टन्न . . . 

पुलिसवाले घबरा गए। “कौन है?” 

अजय ने टॉर्च घुमाई। ”कोई नहीं है! आवाज़ कहाँ से आई?” 

घंटी अपनी जगह पर थी, मगर वह लगातार हिल रही थी, जैसे किसी अदृश्य हाथ ने उसे अभी-अभी हिलाया हो। 

टन्न . . . टन्न . . . 

और फिर, मंदिर की दीवारों पर संस्कृत के श्लोक, जो सदियों से ख़ुदे हुए थे, अचानक किसी अजीब-सी भाषा में विकृत होते दिखने लगे—जैसे किसी ने स्याही फैला दी हो। 

हल्की, भयानक हँसी की आवाज़ अब बरगद की ओर से आई। 

वह कोई आम प्रेत नहीं था। उसकी हँसी ऐसी थी जैसे कोई ज्ञानी व्यक्ति किसी मूर्ख के असफल प्रयासों पर हँस रहा हो—तिरस्कार और अहंकार से भरी हुई। 

अजय ने महसूस किया कि तापमान तेज़ी से गिर रहा है। गर्भगृह के केंद्र में रखी अखंड ज्योति पहले काँपी, फिर अचानक उसकी लौ ऊपर की ओर खींच ली गई—जैसे किसी ने वैक्यूम लगा दिया हो। 

“जनरेटर ऑन करो!” अजय चिल्लाया। 

इलेक्ट्रीशियन ने जनरेटर चालू किया, और एक शक्तिशाली हैलोजन लाइट सीधे जवारों के थाल पर पड़ी। ज्योति बुझ चुकी थी, लेकिन अब कम से कम बिजली का प्रकाश तो था। 

जैसे ही प्रकाश जवारों पर पड़ा, सफ़ेद फफूँद का जाल अचानक तेज़ी से फैलने लगा, मानो प्रकाश ने उसे और शक्ति दे दी हो। और फिर, एक भयानक दृश्य दिखा: जवारों के सूखे पौधों से एक गाढ़ा, काला तरल टपकना शुरू हुआ, जिसने फफूँद को और भी मोटा कर दिया। 

बाहर, बरगद के नीचे, पुलिसवालों ने चिल्लाना शुरू कर दिया। 

“साहब! बरगद!”

अजय भागा। बाहर जो दृश्य था, वह किसी दुःस्वप्न से कम नहीं था। बरगद के तने से अचानक सफ़ेद धुएँ के पतले धागे निकल रहे थे, जो आसपास के प्रेतों की तरह हवा में तैर रहे थे। उन धुओं के बीचों-बीच, एक विशाल, काला साया दिखाई दिया, जिसका आकार मनुष्य जैसा था, मगर वह इतना लम्बा था कि उसकी कमर बरगद की सबसे मोटी शाखा तक पहुँच रही थी। 

उस साये की आँखें नहीं थीं, मगर अजय को लगा कि वह सीधे उसे देख रहा है। साये के चारों ओर हवा में संस्कृत के श्लोकों का उल्टा उच्चारण गूँज रहा था—वह धर्म का ज्ञान था, जिसे विकृत किया जा रहा था। 

“तू कौन है?” अजय ने रिवाल्वर निकालकर चिल्लाया। 

जवाब में, उस साये ने कुछ नहीं किया, बल्कि बरगद की एक मोटी हवाई जड़ को छुआ। जड़ तुरंत काली पड़ गई और तेज़ी से मंदिर की ओर मुड़ने लगी। 

“पीछे हटो!”

अजय ने रिवाल्वर से गोली चलाई। गोली साये के आर-पार हो गई, मानो उसने हवा को भेदा हो। साया टस से मस नहीं हुआ, मगर उसकी हँसी और तीव्र हो गई। 

अजय को अचानक अपने सिर में भयानक दर्द महसूस हुआ। उसे लगा जैसे उसका दिमाग़ किसी असहनीय ज्ञान से भरा जा रहा है। श्लोक, मंत्र, गणित के सूत्र, दर्शनशास्त्र की किताबें . . . सब उसके दिमाग़ में घूम गईं, फिर अचानक टूट गईं, जिससे असहनीय मानसिक पीड़ा हुई। 

वह ब्रह्मराक्षस अजय के तर्क को मार रहा था। वह उसे दिखा रहा था कि ज्ञान और तर्क, जब विकृत हो जाते हैं, तो कितने विनाशकारी हो सकते हैं। 

अजय दर्द से चिल्लाते हुए गिर पड़ा। जब वह उठा, तो उसने देखा कि बरगद की काली पड़ चुकी जड़ें मंदिर के मुख्य द्वार को तोड़ चुकी थीं। 

इलेक्ट्रीशियन और पुलिसकर्मी भाग चुके थे। अजय अकेला था। 

वह वापस गर्भगृह में गया। अखंड ज्योति तो बुझी हुई थी ही, अब जवारों के थालों से निकला काला तरल पूरे फ़र्श पर फैल चुका था। उस तरल के केंद्र में, सूखे जवारों के बीच, अजय ने एक चमकीला काला कंकर देखा। 
जैसे ही अजय ने उसे छूने की कोशिश की, कंकर से निकली एक हल्की सी चिंगारी ने उसके हाथ को जला दिया। 

अजय को अंततः समझ आ गया था: यह सिर्फ़ एक हॉरर कहानी नहीं थी। यह आस्था और तर्क के बीच की लड़ाई थी, जिसे अब ब्रह्मराक्षस ने अपने विकृत ज्ञान से जीत लिया था। वह देवी की शक्ति को सीधे नहीं हरा सकता था, लेकिन उसने भक्तों के विश्वास की जड़ें सुखा दी थीं, और भक्ति का प्रकाश बुझा दिया था। 

मंदिर की शान्ति भंग हो चुकी थी। बाहर, बरगद पर वह ब्रह्मराक्षस अब भी बैठा था, जो अपनी भयानक और घृणित विजय पर हँस रहा था। 

अगले दिन सुबह, गाँव वालों ने देखा कि एसडीएम अजय कमरे में बैठा है, मगर वह अब बिल्कुल शांत और शून्य है। वह सिर्फ़ एक ही बात दोहरा रहा था: “जड़ें सूख गई हैं . . . सफ़ेद फफूँद।”

और बंजारी माता मंदिर में, बुझी हुई अखंड ज्योति के पास, उस ब्रह्मराक्षस का अभिशाप, काला तरल, अब भी फ़र्श पर धीरे-धीरे फैल रहा था। 

 

(भाग-2) 

अगले दिन, गाँव में खलबली मच गई। एसडीएम अजय, जो कल तक तर्क और विज्ञान की बात कर रहा था, अब अपनी सरकारी कोठी के बरामदे में बैठा शून्य में ताक रहा था। उसकी आँखें खुली थीं, पर चेतना ग़ायब थी। वह न किसी सवाल का जवाब दे रहा था, न खाना खा रहा था। उसके होंठ बस एक ही बात फुसफुसा रहे थे—“जड़ें सूख गई हैं . . . सफ़ेद फफूँद . . . ज्ञान . . . विकृत।”

पुजारी पंडित हरिओम दहशत में थे। उन्होंने तुरंत गाँव के मुखिया और बुज़ुर्गों को इकट्ठा किया। अब तक वे लोग ब्रह्मराक्षस की बात को अफ़वाह मान रहे थे, लेकिन अजय का यह हाल, सूखे जवारे और बुझी अखंड ज्योति, सबने मिलकर एक भयानक सत्य की पुष्टि कर दी थी। 

“हमें कुछ करना होगा, “एक किसान ने डरते हुए कहा। “माँ बंजारी ने हमें त्याग दिया है। ब्रह्मराक्षस अब पूरे गाँव पर कब्ज़ा कर लेगा।”

पंडित जी ने अपनी पुरानी पोथी खोली। “ब्रह्मराक्षस को सीधे युद्ध में नहीं हराया जा सकता, क्योंकि वह विकृत ज्ञान का प्रतीक है। देवी भी उसे तब तक नहीं रोक सकतीं, जब तक गाँव का सामूहिक विश्वास न टूट चुका हो। उसका लक्ष्य यही है कि लोग धर्म को भय मानें, न कि आस्था।”

पंडित जी ने बताया कि ब्रह्मराक्षस को हराने का एकमात्र तरीक़ा है कि कोई ऐसा व्यक्ति उसकी चुनौती स्वीकार करे, जो ज्ञान और भक्ति दोनों में शुद्ध हो, और जिसने अभी तक अपने जीवन में अँधेरा न देखा हो—यानी, जिसकी आत्मा पर कोई पाप का बोझ न हो। 

उसी समय, भीड़ में एक युवा चेहरा उठा। वह थी डॉ. अवनी, गाँव की नई और अकेली सरकारी डॉक्टर। अवनी वैज्ञानिक थी, मगर उसका मन आध्यात्मिक भी था। वह अपने पूर्वजों की तरह ही माता बंजारी की भक्त थी, लेकिन उसने पिछली रात की घटनाओं को सीधे नहीं देखा था। 

“पंडित जी,” अवनी ने आत्मविश्वास से कहा। “ब्रह्मराक्षस के इस मानसिक आतंक को स्वीकार करती हूँ। मैं एसडीएम अजय का इलाज करूँगी और मंदिर की समस्या का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक हल भी ढूँढ़ूँगी।”

अवनी ने सबसे पहले अजय के कमरे का मुआयना किया। उसने पाया कि अजय के शरीर पर कोई घाव नहीं था, लेकिन उसकी मानसिक स्थिति तीव्र आघात (Acute Trauma) की थी। वह लगातार अपने माथे को सहला रहा था, जहाँ ब्रह्मराक्षस ने उसे विकृत ज्ञान का अनुभव कराया था। 

अवनी समझ गई—ब्रह्मराक्षस सिर्फ़ डर नहीं पैदा कर रहा था, वह लोगों के ज्ञान और तर्क की नींव को हिला रहा था। वह अजय को बता रहा था कि उसका विज्ञान व्यर्थ है। 

“यह सिर्फ़ एक मानसिक हमला है,” अवनी ने ख़ुद से कहा। “मुझे अजय के दिमाग़ से वह डर निकालना होगा।”

अगली रात, अवनी ने अजय को उसके सरकारी कमरे में छोड़ दिया और चुपके से मंदिर की ओर चली गई। उसका लक्ष्य था—बरगद का पेड़ और काला कंकर। 

रात के ठीक 12:45 बजे, जब पिछली बार घंटी बजी थी, अवनी मंदिर के पिछले आँगन में थी। बरगद का पेड़ पहले से ज़्यादा भयावह लग रहा था। उसकी जड़ें ज़मीन से ऊपर उठकर मुड़ रही थीं, मानो वे साँप हों। 

अवनी ने बरगद के तने को छुआ। स्पर्श करते ही उसे तीव्र ठंडक और एक पल के लिए असीम ज्ञान का आभास हुआ। उसके दिमाग़ में वेदों के श्लोक, नक्षत्रों की गणना और ब्रह्मांड के नियम घूम गए। 

लेकिन अवनी ने तुरंत अपनी आँखें बंद कर लीं और एक साधारण, पर शुद्ध देवी मंत्र का जाप शुरू किया। उसने ज्ञान के अतिरेक को अपनी भक्ति से काटने की कोशिश की। 

जैसे ही उसने मंत्र का उच्चारण किया, बरगद के तने से भयानक चीख़ें सुनाई दीं—ये प्रेत थे, जो देवी के मंत्र से घबरा रहे थे। लेकिन ब्रह्मराक्षस का साया अब भी स्थिर था, उसकी हँसी हवा में गूँज रही थी, जैसे कोई उसके मंत्र का मज़ाक उड़ा रहा हो। 

साये ने हवा में संस्कृत के श्लोक फेंके: “अज्ञानी! तेरा ज्ञान व्यर्थ है! ब्रह्म सत्यं जगन् मिथ्या . . . तू जिस माता को पूजती है, वह भी मिथ्या है जब तक तू स्वयं सत्य को नहीं जानती। और सत्य यह है कि मैं तुमसे अधिक ज्ञानी हूँ!”

यह सुनते ही अवनी के शरीर में एक सिहरन दौड़ गई। ब्रह्मराक्षस ज्ञान के साथ हमला कर रहा था। \

अवनी घबराई नहीं। वह जानती थी कि उसे काला कंकर चाहिए। वह तेज़ी से मंदिर के गर्भगृह में घुस गई। 

अंदर का दृश्य और भी डरावना था। फ़र्श पर काला तरल फैल रहा था, और जवारों के सूखे थालों के बीच, वह चमकीला काला कंकर चमक रहा था। 

जैसे ही अवनी ने कंकर की ओर हाथ बढ़ाया, काला तरल उबल पड़ा। उस तरल से पतले, धुँधले हाथ निकले, जो उसे पकड़ने के लिए लपके। 

अवनी ने बिना डरे अपने गले से एक पुराना ताँबे का सिक्का निकाला, जो उसे उसकी दादी ने दिया था। वह सिक्का बंजारी माता के चरणों में रखा हुआ था। 

जैसे ही ताँबे का सिक्का कंकर के पास पहुँचा, कंकर से ज़ोरदार बिजली की चिंगारी निकली। चिंगारी अवनी के हाथ को जलाने के बजाय, काले तरल को भाप बनाकर उड़ाने लगी। 

“यह क्या है?” अवनी ने सोचा। 

तभी उसे याद आया—ब्रह्मराक्षस एक ज्ञानी ब्राह्मण की आत्मा थी, जिसे ज्ञान के अहंकार और अधूरे तप ने विकृत किया। वह जानता था कि धातु और पवित्र जल उसकी शक्ति को बाधित कर सकते हैं। ताँबा, जो शुद्धता का प्रतीक था, और सिक्का, जो श्रम और ईमानदारी का प्रतीक था, उसकी विकृत शक्ति को सीधे चुनौती दे रहे थे। 

अवनी ने जल्दी से उस कंकर को उठा लिया। कंकर गर्म था, लेकिन उसके हाथ पर कोई जलन नहीं हुई। 

कंकर उठाते ही बाहर बरगद पर चीख़-पुकार मच गई। ब्रह्मराक्षस अब क्रोधित था। वह समझ गया कि उसकी शक्ति का स्रोत चुरा लिया गया है। 

ब्रह्मराक्षस का काला साया हवा में तैरता हुआ तेज़ी से मंदिर की ओर बढ़ा। वह इतना भयानक था कि अवनी की रूह काँप गई। 

“मूर्ख स्त्री! तूने मेरे ज्ञान के स्रोत को चुराया है!” साये ने गर्जना की। “मैं तुझे वह ज्ञान दूँगा जो तुझे पागल कर देगा!”

साया सीधे अवनी की ओर झपटा। अवनी ने अपनी आँखें बंद कर लीं और अपने हाथ में पकड़े काले कंकर और दादी के ताँबे के सिक्के को एक साथ दबाया। 

“माता बंजारी!” अवनी ने पुकारा। “मैंने ज्ञान को चुराया नहीं, मैंने उसे शुद्ध किया है! मेरा ज्ञान अधूरा हो सकता है, लेकिन मेरी आस्था और ईमानदारी पूरी है!”

जैसे ही अवनी ने यह कहा, कंकर और सिक्के के बीच सफ़ेद रोशनी की एक तेज़ी से चमकती हुई किरण निकली। यह किरण सीधे ब्रह्मराक्षस के साये से टकराई। 

ब्रह्मराक्षस भयानक दर्द से चीख़ उठा। उसकी चीख़ ऐसी थी जैसे कोई लाखों श्लोकों को एक साथ फाड़ रहा हो। 

साया पीछे हटने लगा। उसकी हँसी अब क्रोध में बदल चुकी थी, पर उस क्रोध में डर था। 

“तूने . . . मेरे अधूरे ज्ञान को मेरी ही शक्ति से मारा है!” साये ने अंतिम फुसफुसाहट की। “मैं लौटूँगा . . . जहाँ ज्ञान का अँधेरा होगा . . .”

साया तेज़ी से सिकुड़ गया और बरगद के तने में एक काले धुएँ के रूप में विलीन हो गया। पूरी तरह शांत। 

♦ ♦

अगले दिन सुबह, गाँव में उत्सव का माहौल था। 

मंदिर में अब तक फैली हुई सफ़ेद फफूँद ग़ायब हो चुकी थी। कलश में रखे सूखे जवारों की जड़ों पर, जहाँ कल तक काला तरल था, वहाँ से नए, छोटे हरे अंकुर फूट रहे थे। 

और सबसे बड़ी बात, गर्भगृह में रखी अखंड ज्योति, जिसे अवनी ने अपनी शक्ति से प्रज्ज्वलित नहीं किया था, अब अपने आप जल रही थी! 

पंडित हरिओम ने अवनी को गले लगा लिया। “बेटी, तुमने वह कर दिखाया जो देवी की शक्ति भी तब तक नहीं कर सकती थी जब तक कोई मानव शुद्धता से उसकी मदद न करे। ब्रह्मराक्षस ने ज्ञान को विकृत किया था, और तुमने आस्था की ईमानदारी से उसे शुद्ध कर दिया।”

अवनी मुस्कुराई। उसने अपने हाथ में ताँबे का सिक्का देखा, जो अब पहले से ज़्यादा चमकदार था। काला कंकर कहीं ग़ायब हो चुका था। 

सरकारी कोठी में, एसडीएम अजय अब शून्य में नहीं ताक रहा था। वह जाग चुका था, हाँ, पर वह अब भी शांत था। 

अवनी उसके पास गई। “अजय जी, आप ठीक हैं?” 

अजय ने धीरे से सिर उठाया। उसकी आँखों में अब वह दहशत नहीं थी, बल्कि एक गहरी समझ थी। 

“डॉक्टर अवनी,” अजय ने कहा। “मैंने देखा . . . ब्रह्मराक्षस को। वह जानता है कि विज्ञान और तर्क का जवाब केवल अधिक ज्ञान नहीं हो सकता। उसका जवाब है शुद्ध आस्था। मेरी जड़ें तर्क पर टिकी थीं, इसलिए वह सूख गईं। आप जीतीं, क्योंकि आपकी जड़ें भक्ति और ईमानदारी में थीं।”

अजय ने अपनी मेज़ पर रखी पुराने संविधान की किताब को उठाया। “मैं अपनी नौकरी नहीं छोड़ूँगा, लेकिन मैं अब जान गया हूँ कि देश चलाने के लिए तर्क के साथ आस्था का सम्मान भी ज़रूरी है। जहाँ तर्क की सीमा ख़त्म होती है, वहाँ विश्वास काम आता है।”

उस दिन से बंजारी माता मंदिर में हमेशा एक नया जोश रहता था। ब्रह्मराक्षस की शक्ति कम हो चुकी थी, लेकिन पंडित हरिओम ने गाँव वालों को चेतावनी दी थी: “जहाँ कहीं भी ज्ञान को अहंकार से, या शक्ति को लालच से दूषित किया जाएगा, ब्रह्मराक्षस हमेशा लौट आएगा।”

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