मनुष्य का परिवर्तन: शाश्वत द्वंद्व और जीवन का विकास पथ

01-12-2025

मनुष्य का परिवर्तन: शाश्वत द्वंद्व और जीवन का विकास पथ

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 289, दिसंबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

एक गहन दार्शनिक विचार “मनुष्य न तो मौसम है और न ही तापमान, फिर भी न जाने क्यों बदल जाता है” को आधार बनाकर, मानवीय परिवर्तन की जटिल मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और दार्शनिक परतों की विस्तृत समीक्षा और विवेचना यहाँ प्रस्तुत है। 

मनुष्य न तो मौसम की तरह प्राकृतिक नियमों से बँधा है, न ही तापमान की तरह भौतिक कारकों का सीधा परिणाम। मौसम का बदलना भूमंडलीय चक्रों की अनिवार्यता है, तापमान का घटना-बढ़ना ऊष्मागतिकी के सिद्धांतों का पालन है; इन दोनों के परिवर्तन की व्याख्या निश्चित होती है। किन्तु, मनुष्य का परिवर्तन उसका व्यवहार, उसका विश्वास, उसका स्वभाव एक ऐसी रहस्यमय पहेली है जो किसी भी वैज्ञानिक सूत्र में पूरी तरह समाहित नहीं हो पाती। 

यह विचार अत्यंत मार्मिक है, क्योंकि यह मनुष्य के भीतर के उस शाश्वत द्वंद्व को उजागर करता है जहाँ वह एक ओर स्थिरता और पहचान चाहता है, वहीं दूसरी ओर, अनवरत परिवर्तन के लिए विवश रहता है। यह परिवर्तन बाहरी दबावों और आंतरिक विकास का एक जटिल मनोवैज्ञानिक खेल है, जिसकी विवेचना तीन प्रमुख आयामों में की जा सकती है। 

‘स्व’ का निरंतर विकास

मनोवैज्ञानिक रूप से, मनुष्य का परिवर्तन उसकी जैविक अनिवार्यता और अस्तित्व की माँग है। यह परिवर्तन आकस्मिक या यादृच्छिक नहीं होता, बल्कि अनेक अदृश्य शक्तियों द्वारा संचालित होता है। 

मनुष्य एक जैविक प्राणी है और उसके मस्तिष्क में न्यूरोप्लास्टिसिटी का गुण होता है। मस्तिष्क किसी भी मौसम या तापमान से ज़्यादा लचीला होता है। यह लचीलापन ही मनुष्य को जीवित रहने के लिए अनुकूलन सिखाता है। 

जब व्यक्ति नए ज्ञान, नई सूचनाओं या नए अनुभवों से गुज़रता है, तो उसके सोचने के तरीक़े, निर्णय लेने की प्रक्रिया और विश्व दृष्टि में अनिवार्य रूप से बदलाव आता है। 

जीवन हर पल नई चुनौतियाँ फेंकता है व्यवसायिक असफलता, प्रियजन का वियोग, या स्वास्थ्य संकट। इन संकटों का सामना करने के लिए व्यक्ति को अपना पुराना ‘स्व’ त्यागना पड़ता है और एक नया, मज़बूत ‘स्व’ गढ़ना पड़ता है। यह परिवर्तन जीवित रहने की सहज वृत्ति है। यदि मनुष्य अनुकूलन न करे, तो वह अस्तित्व के संघर्ष में हार जाएगा। 

पहचान का संकट और पुनर्गठन के कारण मनुष्य का परिवर्तन उसके जीवन के विभिन्न चरणों किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था में पहचान के संकट के रूप में सामने आता है। 

मनोवैज्ञानिक एरिक एरिक्सन के अनुसार, जीवन एक क्रमिक विकास है जहाँ हर चरण में व्यक्ति अपनी पिछली पहचान को तोड़कर एक नई पहचान गढ़ता है। 50 वर्ष का व्यक्ति 20 वर्ष के व्यक्ति जैसा नहीं हो सकता, क्योंकि उसकी प्राथमिकताएँ, भूमिकाएँ और अनुभव पूरी तरह बदल चुके होते हैं। 

सिगमंड फ़्रायड के अनुसार, हमारे अचेतन मन में इच्छाओं और दमित भावनाओं का एक अथाह भंडार होता है। बाहरी परिस्थितियाँ या आंतरिक तनाव जब इन अचेतन शक्तियों को सतह पर लाते हैं, तो हमारा व्यवहार अचानक बदला हुआ प्रतीत होता है। यह बदलाव अचानक आया मौसम नहीं, बल्कि भीतर पक रही मनोवैज्ञानिक फ़सल का प्रकटीकरण होता है। 

संबंधों और अपेक्षाओं का दबाव

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसका परिवर्तन केवल आंतरिक नहीं होता, बल्कि बाह्य सामाजिक ताने-बाने और सामूहिक अपेक्षाओं का परिणाम भी होता है। 

मनुष्य का व्यवहार और चरित्र संदर्भ के अनुसार बदलता है। 

एक व्यक्ति अपने दफ़्तर में कठोर बॉस हो सकता है जहाँ ‘तंत्र’ की माँग कठोरता है, लेकिन घर पर वही व्यक्ति एक कोमल हृदय पिता हो सकता है जहाँ ‘प्रेम’ की माँग स्नेह है। व्यक्ति बदला नहीं है; उसने अपने परिवेश और भूमिका के अनुसार व्यवहार को समायोजित किया है। जब व्यक्ति की भूमिका बदलती है जैसे वह छात्र से पिता बनता है, या कर्मचारी से मालिक तो उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व परिवर्तित हो जाता है, क्योंकि अब उसके कंधों पर नई ज़िम्मेदारियाँ और अपेक्षाएँ होती हैं। 

मनुष्य हमेशा सामाजिक अनुमोदन चाहता है। समूह की इच्छाएँ, राजनीतिक विचारधाराएँ, या प्रचलित फ़ैशन अक्सर व्यक्ति को अपने मूल स्वभाव से हटकर व्यवहार करने के लिए बाध्य करते हैं। यह परिवर्तन इच्छा से नहीं, बल्कि स्वीकार्यता प्राप्त करने के लिए होता है। 

वैश्वीकरण और सूचना का वेग

वर्तमान युग में परिवर्तन की गति और भी तेज़ हो गई है। 

वैश्वीकरण और सूचना क्रांति ने हमें एक साथ कई संस्कृतियों और विचारधाराओं के संपर्क में ला दिया है। इससे हमारे पारंपरिक मूल्य और नैतिकता निरंतर चुनौती का सामना कर रहे हैं। सत्य की परिभाषाएँ बदल रही हैं, और व्यक्ति को हर दिन यह चुनना पड़ता है कि वह किस विचार को अपनाएगा और किसे छोड़ेगा। 
आधुनिक जीवन की गति इतनी तीव्र है कि लोग गहरे संबंधों और स्थिर विचारों को समय नहीं दे पाते। इस गति में, मनुष्य भी एक उपभोक्ता वस्तु बन जाता है, जिसे बाज़ार की माँग के अनुसार अपने व्यक्तित्व को पैकेज करना पड़ता है। यह बदलाव प्रामाणिक नहीं, बल्कि बाध्यकारी दिखावा होता है। 

नश्वरता और मोक्ष की खोज

दार्शनिक और आध्यात्मिक दृष्टि से, मनुष्य का परिवर्तन उसकी नश्वरता और पूर्णता की खोज के बीच का संघर्ष है। 

मनुष्य कभी भी पूर्ण नहीं होता। वह निरंतर सीखता हुआ और ग़लतियाँ करता हुआ प्राणी है। 

हिंदू दर्शन और बौद्ध दर्शन के अनुसार, मनुष्य का जीवन एक सतत विकास यात्रा है जिसे चेतना का विकास कहा जाता है। आज का व्यक्ति कल के व्यक्ति से ज़्यादा अनुभवी, ज़्यादा जागरूक होता है। यह परिवर्तन चेतना के आरोहण का परिणाम है। 

क्षणभंगुरता जीवन का मूल सिद्धांत है। न केवल बाहरी दुनिया, बल्कि हमारा शरीर, हमारा विचार और हमारी भावनाएँ भी हर पल बदल रही हैं। मनुष्य स्वयं ही परिवर्तन है। इसलिए, यह पूछना कि मनुष्य क्यों बदल जाता है, शायद ग़लत है; सही प्रश्न यह है कि ‘मनुष्य किसी भी क्षण स्थिर क्यों नहीं रह पाता। 

मनुष्य मौसम या तापमान नहीं है, क्योंकि उसके पास स्व-इच्छा शक्ति है। 

मनुष्य अपने कर्म, निर्णय और विचारों को चुनने के लिए स्वतंत्र है। यह स्वतंत्रता ही उसे परिवर्तन का जनक बनाती है। वह अपनी इच्छा से एक विचार को त्याग कर दूसरे को अपना सकता है, जो मौसम या तापमान कभी नहीं कर सकते। 

जब मनुष्य अपने जीवन की रूढ़ियों, परंपराओं या सीमाओं से विद्रोह करता है, तो वह क्रांतिकारी बदलाव लाता है। यह बदलाव सामाजिक न्याय, राजनीतिक क्रांति या व्यक्तिगत मुक्ति के लिए हो सकता है। यह विद्रोह ही उसे उस बदल जाने की शक्ति देता है, जो किसी भौतिक इकाई के पास नहीं होती। 

परिवर्तन ही मनुष्य की पहचान है, अंततः, मनुष्य का बदल जाना उसकी कमज़ोरी नहीं, बल्कि उसकी सबसे बड़ी पहचान और शक्ति है। मौसम और तापमान केवल बदलते हैं, जबकि मनुष्य बदलना चुनता है या दबाव में विवश होता है। 

मनुष्य इसलिए बदल जाता है क्योंकि वह एक जटिल इकाई है जो जैविक लचीलेपन, सामाजिक दबाव, और आध्यात्मिक स्वतंत्रता से एक साथ संचालित होती है। यह परिवर्तन कभी अनुकूलन की मजबूरी है, कभी विकास की लालसा, और कभी आंतरिक चेतना का विस्फोट। 

मनुष्य के परिवर्तन की यह प्रक्रिया एक निरंतर जारी रहने वाली यात्रा है। जिस दिन मनुष्य बदलना बंद कर देगा, उस दिन वह मनुष्य नहीं, बल्कि एक स्थिर वस्तु बन जाएगा। इसलिए, उसका बदल जाना ही उसके सजीव, गतिशील और चिंतनशील अस्तित्व का अंतिम प्रमाण है। 

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