अबला निर्मला सबला
डॉ. सुशील कुमार शर्मा
(स्त्री विमर्श पर आलेख)
नारी का स्वभाव सरलतम से लेकर जटिलतम परिस्थितियों एवं अंतर्विरोधों का समन्वय है। पुरुष पक्षधर समाज जब भी नारी स्वतंत्रता व नारी विमर्श की बात करता है तो पहले अपने अहंकार के बचाव के सारे रास्ते सामने रख कर बात करता है।
वर्तमान में विकास के सारे रास्ते तकनीकी एवं सामाजिक क्रांतियों के रास्ते से होकर गुज़र रहे हैं। अभिव्यक्ति की ताक़त ने 18 शताब्दी की मूक बधिर महिला विमर्श को संघर्ष की राह दिखाई है। साहित्य ने हमेशा सामाजिक वर्जनाओं एवं प्रतिबंधों को तोड़ा है लेकिन स्त्री विमर्श में साहित्य उतना मुखर नहीं रहा है क्योंकि साहित्य में पुरुष प्रतिनिधित्व हमेशा से हावी रहा है। यद्यपि आज भारत के सन्दर्भ में मध्यम वर्गीय एवं दलित महिलायें न केवल शिक्षित हो रही हैं बल्कि बोलने एवं लिखने भी लगी है।
वर्तमान में महिलाएँ बोलने एवं अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में किसी से नहीं डरती हैं। वर्तमान में जो घटनाएँ घट रहीं हैं उनमें दोनों विचार धारा की महिलाओं ने मुखरता के साथ अपनी बातें रखीं हालाँकि उन्हें इसके लिए पुरुष प्रधान समाज द्वारा अनेक यौनिक उपाधियों से नवाज़ा गया।
भारतीय महिलाएँ समान अवसरों के लिए संघर्षरत हैं चाहे वो शहर की अति विस्तृत महत्वकांक्षी महिला हो या गाँवों की अनपढ़ अशिक्षित महिला आज सब अपने संघर्ष को अंजाम तक पहुँचाने में लगी हुई हैं। वर्तमान काल नारी मुक्ति का संक्रमण काल है। पुरानी पुरुष अधिवादी विचार धारा तिरोहित हो रही है एवं नई समान अवसर वाली सोच पनप रही है। हालाँकि पुरानी वर्जनाओं के टूटने से समाज में द्वन्द्व है लेकिन समाज पुरानी कुरीतियों को त्यागने को तैयार है भले ही इस परिवर्तन की गति बहुत धीमी क्यों न रही हो।
अनेक वर्गों धर्मों एवं जाति समूहों में बटें भारतीय समाज में स्त्री सिर्फ़ देह के रूप में चिह्नित है। जन्म से मृत्यु तक सिर्फ़ उसे दान एवं भोग की वस्तु समझा गया है। उसकी मानसिक एवं शारीरिक शक्तियों को निस्तेज कर उसका शोषण स्वयं उसके समूह ने पुरुष मानसिकता के साथ मिल कर किया है। महादेवी वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘शृंखला की कड़ियाँ’ में महिलाओं कोअपने अस्तित्व पर गर्व करने की सीख दी है। उन्होंने महिलाओं को औचित्य पूर्ण ढंग से अपने सामाजिक एवं राजनैतिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करने की सलाह दी है। उन्होंने महिलाओं को यौन मुक्तता से बचने एवं अपनी नारी गरिमा को बचाने एवं उस पर गर्व करने की बात कही है।
बाज़ारअवाद के कारण स्त्री देह और अधिक कमाऊ हो गई है यौनिक स्वच्छंदता के कारण बाज़ार में स्त्री देह का भरपूर प्रयोग किया जाने लगा है एवं इसे महिलामुक्ति व महिलाओं के सामान अवसर प्राप्त करने के संघर्ष से जोड़ा जाने लगा है। महिला मुक्ति आंदोलन को बाज़ारी ताक़तों ने जकड़ लिया है। बाज़ार में आज हर वर्ग में महिला की सकारात्मक सहभागिता को सिर्फ़ उसके यौनिक आकर्षण में बदल दिया है। पश्चिमी संस्कृति का अनुसरण स्त्री स्वतंत्रता का पर्याय माना जाने लगा है तर्क है कि अगर पुरुष स्वछन्दता का अनुसरण कर सकता है तो स्त्री क्यों नहीं? स्त्री विमर्श हमेशा पुरुषों से तुलना से शुरू होकर पुरुषों से कमतर स्त्री आकलन पर समाप्त हो जाता है स्त्री कभी भी किसी स्तर पर पुरुष से अलग अस्तित्व में नहीं आँकी जा सकी है।
स्त्री विमर्श जो स्त्री को पुरुषों के बराबर अवसर एवं सम्मान दिलाने के उद्देश्य से आगे बढ़ा था यह आज उसकी देह के आसपास आकर सिमट गया है। स्त्री विमर्श शहरों के बलात्कारों, घरेलू हिंसा की ख़बरों फ़ैशन एवं नौकरियों की तलाश तक सीमित हो कर रह गया है। महिला शिक्षा, आर्थिक आत्म निर्भरता सामाजिक कुरीतियों जिनमें महिला शोषण होता है गाँवों की महिलाओं के अधिकारों के संघर्ष पर सीमित औपचारिक चर्चा होती है। वर्तमान दौर की मानसिकता स्त्री स्वाधीनता की नहीं वरन् उस स्वाधीनता की चर्चा से लाभ उठाने की बन गई है। आज किसी दलित महिला का बलात्कार पूरे मीडिया एवं राजनीति को हिला कर रख देता है वहीं किसी दलित महिला की कोई ख़ास उपलब्धि सिर्फ़ एक कोने की चार लाइन की ख़बर भी नहीं बन पाती है। विभिन्न क्षेत्रों में सफल महिलाओं को कोई नहीं सुनना चाहता न उनसे कुछ सीखना चाहता लेकिन बॉलीवुड की रंगीन हीरोइनों को सब जानते हैं। इसका मुख्य कारण मीडिया का बाज़ारीकरण है जो पुरुष की अतृप्त यौन संतृप्ति के लिये स्त्री देह परोसता है।
स्त्री मुक्ति का मार्ग स्त्री के संघर्ष में ही निहित है सिमोन ने लिखा है “स्त्री पैदा नहीं होती बनाई जाती है” सदियों से पुरुष अपनी ज़रूरतों एवं स्वार्थों के अनुसार उसको गढ़ता है। सिमोन ने स्त्री परतंत्रता का सबसे बड़ा जनक विवाह को माना है। उन्होंने लिखा है “विवाह स्त्री को पुरुष की ग़ुलाम एवं घर की सम्राज्ञी बनाता है। विवाह स्त्री को प्रार्थी का रूप देता है।”
प्रसिद्ध लेखिका प्रभा खेतान का मानना है कि स्त्री को भूमंडलीकरण के कारण बेहद नुक़्सान उठाना पड़ रहा है उसे बेहद आकर्षक उत्पाद में बदल दिया गया है। भारत में स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता पर्याप्त नहीं है बल्कि राजनैतिक एवं सामाजिक समानता ज़रूरी है।
समानता के संघर्ष में स्त्री विकास अभी दूर की कौड़ी लग रहा है। इस धीमें विकास का विश्लेषण किया जाए तो हम पायेंगे कि मुख्य वजह लिंग असमानता की सोच एवं महिलाओं के विरुद्ध हिंसा तथा सामाजिक स्वास्थ्य एवं आर्थिक स्तर पर औरत का शोषण जारी है। महिलाओं एवं बच्चों के विरुद्ध हिंसा को कैसे रोका जाये ये सभी राष्ट्रों की एक मूलभूत समस्या है। पाँच स्तर पर हम इसका निदान कर सकते हैं:
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महिला हिंसा रोकने के लिए मानसिक चुनौती स्वीकार करनी होगी।
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महिलाओं को पारिवारिक एवं राष्ट्र के निर्णयों में भागीदार बनाना होगा।
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रूढ़ीवादी कुप्रथाओं को मिटाना होगा।
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सकारात्मक, सामान एवं सम्मान के सम्बन्ध स्थापित करने होंगे।
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लिंग समानता की मानसिकता को बढ़ावा देना होगा
स्त्री शिक्षा को मानवीय नज़रिये से सामान अवसर मिलने चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। उद्योग एवं सरकारें स्त्री शिक्षा के प्रति उदासीन दिख रहे हैं। बदलते वक़्त ने महिलाओं को आर्थिक, शैक्षिक रूप से थोड़ा सशक्त ज़रूर किया है लेकिन अभी भी उन पर दोहरी ज़िम्मेवारी है। बाहर का काम देखने के बाद परिवार एवं बच्चों की देखभाल, खाना बनाना, बुज़ुर्गों की सेवा इत्यादि काम आज भी महिलाओं की ज़िम्मेवारी में हैं।
अब कुछ आँकड़े:
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माँ बनने के बाद 40 % महिलायें नौकरी छोड़ कर बच्चों को पालने का फ़ैसला मजबूरी में लेती हैं।
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घर पालने की दोहरी ज़िम्मेदारी के कारण 80 % महिलाओं को 35 वर्ष की उम्र तक दिल की बीमारी होने का ख़तरा होता है।
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37 % महिलाएँ अल्प भोजन में ही जीवनयापन करती हैं दोहरी ज़िम्मेदारी के कारण उनका ध्यान सेहत की ओर नहीं होता है।
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पूरे विश्व में हर साल क़रीब 20 लाख महिलायें लापता होती हैं।
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हर वर्ष क़रीब 1 लाख महिलाएँ आग में जलने से मरती हैं इनमें बहुतायत की मौत का कारण दहेज़ होता है।
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दुनिया भर में कॉलेज पास करने वाली लड़कियों की संख्या में वृद्धि के बावजूद नई नौकरी पाने वाले 79 % पुरुष ही होते हैं।
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विकासशील देशों में स्थितियाँ बहुत ख़राब हैं शिक्षा में बराबरी न होने के कारण ज़्यादातर महिलाएँ काम आय वाले क्षेत्रों में काम करती हैं।
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उच्च शिक्षा में महिलाओं का औसत बढ़ने के बाबजूद सिर्फ़ 12 % कंपनियों में महिलायें कार्यकारी अधिकारी के पद पर हैं।
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पुरुषों की तुलना में महिलाओं को 23 % कम वेतन प्राप्त होता है।
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महिलाओं को अर्थव्यवस्था में बराबरी का अवसर मिले तो राष्ट्रीय आय में 4 % की बढ़ोतरी हो सकती है।
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फ़ॉर्चून 500 कंपनियों के सर्वे में प्रबंधन में उच्चतम महिला भागीदारी वाली कंपनियों को दूसरों के मुक़ाबले 34 %ज्यादा मुनाफ़ा होता है।
अगर मौजूदा ढर्रा चलता रहा तो महिलाओं को समान अवसर क़रीब सौ साल बाद ही मिलने की सम्भावना है। महिला सशक्तिकरण और बराबरी के तमाम दावों के बावजूद आज़ादी के 70 साल बाद भी समाज के नज़रिये में महिलाओं के प्रति कोई ख़ास परिवर्तन नहीं हुआ है। समाज में आज भी ग़ैर बराबरी एवं पारिवारिक फ़ैसलों में उनकी अहमियत नगण्य है। भूमंडलीकरण के कारण शहर की कुछ शिक्षित महिलाओं को लाभ मिलता दिख रहा है लेकिन महिला-विरोधी नीतियों के चलते महिलाओं का भला नहीं हो पा रहा है। महिलाओं को उचित लाभ मिल सके इसके लिए नई महिला केंद्रित योजनाओं का क्रियान्वयन ग्रामीण स्तर पर ज़रूरी है ऐसे अवसरों क निर्माण करना होगा जिसमें महिलायें विकास की प्रक्रिया में भागीदार बनें।
भारत में आज भी मुख्यधारा में स्त्रियों की सहभागिता नगण्य है। आज स्त्रीवादी आंदोलन का भविष्य महिलाओं की बौद्धिक सृजनशीलता एवं सकारात्मक सोच पर टिका हुआ है। पुरुष भी इस आंदोलन में अपने अहंकारों को बचते हुए शामिल हो रहा है। अब महिलाओं को तय करना है कि वह देहवाद के आकर्षण से मुक्त होकर उपभोक्ता संस्कृति का चारा न बन पाये।
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