गीताजयंती कर्म, धर्म और जीवन दर्शन का महामहोत्सव

15-12-2025

गीताजयंती कर्म, धर्म और जीवन दर्शन का महामहोत्सव

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 290, दिसंबर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

हर वर्ष मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को ‘मोक्षदा एकादशी’ के साथ-साथ ‘गीता जयंती’ मनाई जाती है। यह वह पावन दिवस है जब आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व, कुरुक्षेत्र के युद्ध मैदान में, योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने परम भक्त और शिष्य अर्जुन को ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ का अमर उपदेश दिया था। यह दिवस केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं है, बल्कि यह मानव इतिहास के सबसे महान दार्शनिक संवाद के जन्म का उत्सव है। गीता जयंती हमें उस ज्ञान के शाश्वत स्रोत को स्मरण कराती है, जो कर्म, धर्म, कर्त्तव्य और जीवन के परम सत्य का मार्ग प्रशस्त करता है। 

भगवद गीता का प्रादुर्भाव और पृष्ठभूमि

महाभारत के युद्ध की पृष्ठभूमि में, जब दोनों सेनाएँ युद्ध के लिए तत्पर खड़ी थीं, तब अर्जुन ने अपने सामने खड़े गुरुजनों, भाई-बंधुओं और संबंधियों को देखकर मोहग्रस्त होकर युद्ध करने से इनकार कर दिया। वह विषाद, कर्त्तव्य-विमुखता और गहन निराशा से घिर गया। इसी क्षण, सारथी के रूप में खड़े भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उसके क्षत्रिय धर्म, आत्मा की अमरता और जीवन के वास्तविक उद्देश्य का बोध कराया। 

यह उपदेश, जो कुल 700 श्लोकों में गूँथा गया है और 18 अध्यायों में विभक्त है, वह कोई साधारण संवाद नहीं था; यह ‘ब्रह्म-विद्या’ और ‘योग-शास्त्र’ है। यह मानव मन के सबसे बड़े द्वंद्व कर्त्तव्य और मोह को सुलझाने का सार्वकालिक सूत्र है। गीता का जन्म युद्ध के मैदान पर हुआ, पर इसका संदेश संपूर्ण मानव जाति के लिए शान्ति और मुक्ति का मार्ग है। 

गीता का सार: तीन प्रमुख योग मार्ग

भगवद गीता को भारतीय दर्शन का निचोड़ माना जाता है। यह मुख्यतः तीन प्रधान योग मार्गों पर केंद्रित है, जो किसी भी मनुष्य को सांसारिक बंधनों से मुक्त कर सकते हैं। 

कर्म योग (निष्काम कर्म की शिक्षा): 

गीता का सबसे मौलिक सिद्धांत ‘कर्म’ है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, उसके फलों में कभी नहीं। 

यह उपदेश हमें सिखाता है कि फल की आसक्ति से मुक्त होकर, केवल अपने कर्त्तव्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। कर्म योग अहंकार को नष्ट करता है और व्यक्ति को कार्य में कुशलता (योगः कर्मसु कौशलम्) प्रदान करता है। यह सिखाता है कि हर कार्य, चाहे वह छोटा हो या बड़ा, ईश्वर की सेवा या धर्म की पूर्ति के रूप में किया जाना चाहिए। 

ज्ञान योग (आत्म-ज्ञान और विवेक): 

ज्ञान योग आत्मा और शरीर के भेद को समझाता है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि आत्मा अविनाशी है, न उसे शस्त्र काट सकते हैं, न आग जला सकती है और न पानी भिगो सकता है। 

यह ज्ञान मोह, भय और शोक को दूर करता है। ज्ञान योग हमें यह विवेक देता है कि हम ‘सत्य’ (आत्मा) और ‘असत्य’ (शरीर और संसार) के बीच अंतर कर सकें और स्वयं को शरीर मानने की ग़लती न करें। 

भक्ति योग (ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम):

गीता का अंतिम और सबसे सरल मार्ग भक्ति योग है। भगवान श्रीकृष्ण ने इसे परम गुह्य ज्ञान कहा है, जहाँ भक्त सब कुछ भगवान को समर्पित कर देता है। अर्थात्: समस्त धर्मों (कर्त्तव्यों/आस्थाओं) का आश्रय छोड़कर तुम केवल मेरी शरण में आ जाओ। 

यह मार्ग पूर्ण समर्पण और प्रेम का है, जिसके द्वारा सामान्य मनुष्य भी जीवन के अंतिम लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त कर सकता है। 

आधुनिक जीवन में गीता की शाश्वत प्रासंगिकता

पाँच हज़ार वर्ष बीत जाने के बाद भी, गीता का संदेश आज के भागदौड़ वाले और तनावग्रस्त जीवन में उतना ही प्रासंगिक है, जितना कुरुक्षेत्र में था। 

तनाव प्रबंधन और मानसिक शांति:

आधुनिक जीवन में सबसे बड़ी चुनौती तनाव है। गीता का ‘निष्काम कर्म’ का सिद्धांत बताता है कि सफलता या असफलता हमारे नियंत्रण में नहीं है, नियंत्रण केवल हमारे प्रयास में है। जब हम फल की चिंता छोड़कर केवल अपने वर्तमान कर्म पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो मानसिक तनाव अपने आप कम हो जाता है। 

नेतृत्व और निर्णय क्षमता:

गीता अर्जुन को निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करती है। यह सिखाती है कि नेतृत्व केवल शक्ति का प्रदर्शन नहीं, बल्कि धर्म (सही कर्तव्य) के साथ खड़े होने का विवेक है। एक नेता या प्रबंधक के लिए, गीता सिखाती है कि विकट परिस्थितियों में भी, मोह से मुक्त होकर, न्यायसंगत निर्णय कैसे लिया जाए। 

कार्य नैतिकता और भ्रष्टाचार:

‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ का सिद्धांत कार्यस्थल पर उच्चतम नैतिकता का मानदंड स्थापित करता है। यह हमें सिखाता है कि हमारा कार्य हमारी पहचान है, और हमें उसे पूरी ईमानदारी और समर्पण से करना चाहिए, चाहे परिणाम कुछ भी हो। यह सिद्धांत भ्रष्टाचार और शॉर्टकट की मानसिकता को दूर करने में सहायक है। 

सामंजस्यपूर्ण जीवन: 

गीता, कर्म, ज्ञान और भक्ति के बीच संतुलन स्थापित करना सिखाती है। यह सिखाती है कि सांसारिक ज़िम्मेदारियों से भागना नहीं है, बल्कि उन ज़िम्मेदारियों को अनासक्त भाव से निभाना ही योग है। एक सामंजस्यपूर्ण जीवन वह है जहाँ व्यक्ति कार्य करता है, ज्ञान प्राप्त करता है और ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखता है। 

गीता जयंती का संकल्प: 

गीता जयंती केवल गीता की पूजा करने का दिन नहीं है, बल्कि इसके सिद्धांतों को अपने जीवन में उतारने का संकल्प लेने का दिन है। 

हमें अपने अंदर के अर्जुन को पहचानना होगा, जो हर दिन मोह, भय और अनिश्चितता के चक्रव्यूह में फँसा रहता है। 

हमें यह संकल्प लेना होगा कि हम अपने कर्त्तव्यों का पालन, चाहे वह पारिवारिक हो, सामाजिक हो या पेशेवर, बिना किसी स्वार्थ और केवल समर्पण की भावना से करेंगे। 

हमें यह स्मरण रखना होगा कि जीवन एक सतत यात्रा है और हमें हर परिस्थिति में समभाव सुख-दुःख में समान रहना बनाए रखना है, जैसा कि भगवान श्रीकृष्ण ने योग की परिभाषा में कहा है। 

गीता विश्व को भारत का अमूल्य उपहार है, श्रीमद्भगवद्गीता सनातन धर्म का आधारस्तंभ है और यह पूरे विश्व के लिए एक अमूल्य उपहार है। यह वह गाइडबुक है जो जीवन के हर मोड़ पर मार्गदर्शन करती है। गीता जयंती हमें यह याद दिलाती है कि हमारे पास एक ऐसा शाश्वत ग्रंथ है जो न केवल मोक्ष का मार्ग बताता है, बल्कि एक सफल, सार्थक और संतुलित जीवन जीने की कला भी सिखाता है। 

आज के दिन, हमें यह प्रण लेना चाहिए कि हम गीता के संदेश को केवल पढ़ेंगे नहीं, बल्कि उसका चिंतन करेंगे और उसे अपने आचरण में ढालेंगे। तभी, गीता जयंती का यह पर्व अपने वास्तविक अर्थों में सार्थक होगा और हमारा जीवन ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ से ‘योग-क्षेत्र’ में परिवर्तित हो पाएगा। 

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