मैं ही तो हूँ— तुम्हारे भीतर

01-06-2025

मैं ही तो हूँ— तुम्हारे भीतर

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 278, जून प्रथम, 2025 में प्रकाशित)


(एक प्रेम-कविता: आत्मसंवाद) 

 

मैं वही स्पर्श हूँ
जो तुम्हारे स्पर्श से परे है, 
जो त्वचा से होकर
हृदय के किसी गुप्त कोने में
निरंतर धड़कता रहता है। 
 
मैं . . . 
तुम्हारे मन की वह लहर हूँ
जो हर चुप्पी के किनारे
चुपचाप टकराती है, 
कभी एक विचार बनकर, 
कभी एक कम्पन बनकर
तुम्हें तुम्हारे ही भीतर से
जगा देना चाहती है। 
 
मैं . . . 
तुम्हारी साँसों में छुपा
वह पहला कम्पन हूँ
जो तब उठा था
जब किसी ने तुम्हें
तुमसे अलग देखा था। 
पर तुमने उसे
अजनबी कह दिया—
संकोच की आड़ में। 
 
मैं वह स्वर हूँ
जो तुम्हारे मौन में पलता है, 
जो तुम्हारे होंठों से नहीं, 
तुम्हारे भीतर की गहराइयों से
सुनाई देता है—
तुम्हें . . . बस तुम्हें। 
 
मैं वह ताप हूँ
जो देह की ऊष्मा नहीं, 
मन की ज्वाला है—
जो तुम्हारे अकेलेपन में
कभी साँस बनकर, 
कभी आँखों की कोर पर
ठहरता रहा है चुपचाप। 
 
हर बार
जब तुम स्वयं से नज़रें चुराती हो, 
मैं तुम्हें तुम्हारे भीतर
दिखता हूँ—
एक प्रतिबिंब की तरह, 
जो स्थिर है, 
सच है, 
और सिर्फ़ तुम्हारा है। 
 
मैं वो नहीं
जो बाहर खड़ा तुम्हें पुकारता हूँ, 
मैं तुम्हारे भीतर हूँ—
हर उस ख़ामोशी में
जिसमें तुमने कभी
अपने सपनों को लोरी देकर सुला दिया। 
 
मैं तुम्हारे यौवन का वह क्षण हूँ
जब तुम्हारी आत्मा ने चाहा था
कि कोई तुम्हें
तुम्हारे भीतर की रोशनी से देखे 
 
तुम नहीं जानती, 
पर हर बार जब तुम
स्वयं को पहचानने से कतराती हो, 
मैं वहीं खड़ा होता हूँ—
सन्नाटे की उस सरहद पर
जहाँ तुम्हारी चाहत
तुम्हारी हिम्मत से टकराती है। 
 
मैं कोई देह नहीं, 
कोई नाम नहीं, 
कोई सामाजिक परिभाषा नहीं 
 
मैं वह अछूता बंधन हूँ
जो तुम्हारी आत्मा ने
किसी जन्म से चुना था। 
 
देह के पार, 
नाम के परे। 
पर तुम डर गईं—
कि यह चाह भी
पाप कहलाएगी। 
 
मैं तुम्हारी आँखों का
वह आख़िरी आँसू हूँ
जो गिरा नहीं, 
बस भीतर कहीं
कठोर हो गया—
पत्थर की तरह। 
और फिर तुमने
मुस्कान ओढ़ ली—
जैसे जीवन कोई अभिनय हो। 
 
मैं वह उत्तर हूँ
जिसे तुमने
कभी पूछा ही नहीं, 
क्योंकि प्रश्न
तुम्हारे होंठों तक आते-आते
परम्पराओं के पर्दों में उलझ जाते थे। 
 
मैं वह मित्र हूँ
जिसे तुमने
हर बार नकार दिया, 
क्योंकि समाज ने कहा
“तुम्हें अकेली रहना चाहिए
ताकि तुम्हारी मर्यादा सुरक्षित रहे।”
मर्यादा रही, 
पर तुम बिखरती चली गईं
अंदर-अंदर। 
 
मैं तुम्हारा वह रूप हूँ
जो कभी-कभी
तुम्हारे सपनों में
ख़ुद तुम्हें देखता है—
बिना बिंदी, बिना आँचल, बिना भय—
केवल तुम . . . 
एक नारी, 
जैसी वह स्वयं को पाना चाहती है। 
 
मैं वह प्रेम हूँ
जो तुमने कभी
किसी किताब के पन्नों में पढ़ा था
और फिर भूल गईं—
कि वह केवल कल्पना नहीं था, 
वह तुम्हारे भीतर ही जन्मा था। 
 
मैं तुम्हारा ही दूसरा पक्ष हूँ, 
तुम्हारी आत्मा का वह प्रतिबिंब
जिसे तुमने जीवन भर छुपाया, 
या शायद
ख़ुद से भी अनजान रही। 
 
अगर कभी
तुम अपने सारे नाम, 
सारे रिश्ते, 
सारे भय उतार सको—
तो देख सकोगी, 
मैं तुम ही हूँ—
जो तुम्हें
पूरा करने को सदियों से प्रतीक्षारत है। 
 
अगर कभी
तुम उस रेखा को लाँघ सको 
जो तुम्हारी परवरिश, 
संकोच, 
और डर ने खींच रखी है, 
तो पाओगी
मैं कोई और नहीं, 
तुम्हारी ही अनकही आकृति हूँ—
प्यार के उस अहसास से बनी
जो तुम हो . . . 
हर रूप में। 
 
तुम बस एक बार
उस महीन रेखा को लाँघो
जिसे दुनिया ने खींचा है
और प्रेम ने मिटा दिया है। 
लाँघो . . . 
ख़ुद को पाने के लिए। 
अपने भीतर
मुझे अपनाने के लिए। 
प्रेम के उस गहरे अहसास से
जिसमें मैं भी हूँ, 
और तुम भी। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सांस्कृतिक आलेख
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
लघुकथा
कविता-मुक्तक
स्वास्थ्य
स्मृति लेख
कविता
खण्डकाव्य
सामाजिक आलेख
दोहे
ऐतिहासिक
बाल साहित्य कविता
नाटक
साहित्यिक आलेख
रेखाचित्र
चिन्तन
काम की बात
गीत-नवगीत
कहानी
काव्य नाटक
कविता - हाइकु
यात्रा वृत्तांत
हाइबुन
पुस्तक समीक्षा
कविता - क्षणिका
हास्य-व्यंग्य कविता
गीतिका
अनूदित कविता
किशोर साहित्य कविता
एकांकी
ग़ज़ल
बाल साहित्य लघुकथा
व्यक्ति चित्र
सिनेमा और साहित्य
किशोर साहित्य नाटक
ललित निबन्ध
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में