नशे पर दो कविताएँ

15-08-2025

नशे पर दो कविताएँ

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 282, अगस्त प्रथम, 2025 में प्रकाशित)


1.
चुप्पियों में चिल्लाते सपने

 
रात की देहरी पर
एक आदमी हर रोज़
खो जाता है बोतल के तल में। 
वो लौटता तो है, 
पर आँखों में पिता नहीं, 
बस धुँधलाया सा कोई चेहरा होता है। 
 
रसोई में खड़ी औरत, 
जिसके हाथ कभी महकते थे हल्दी-हींग से, 
अब काँपते हैं
उसकी चिल्लाहट से पहले रोटियाँ सेंकने में। 
उसके होंठों पर कोई शिकायत नहीं, 
पर उसका मौन
हर रोज़ आत्मा के किसी कोने को जलाता है। 
 
बच्चे . . . 
जिन्होंने स्कूल की वर्दी में
सपनों की सिलवटें छुपा रखी थीं, 
अब वो किताबें कम, 
दरवाज़ा ज़्यादा ताकते हैं 
कि पापा आज गाली देंगे, 
या चुपचाप सो जाएँगे? 
 
छोटा बेटा
जो डॉक्टर बनना चाहता था, 
अब सोचता है 
“शराब कितने की आती है?” 
और बड़ी बेटी, 
जिसके बालों में माँ रोज़ चाँद गूँथती थी, 
अब सिर झुकाए चलती है 
कि महल्ले वालों की आँखें
उसके कपड़े नहीं, किरचों में बँटी इज़्ज़त टटोलती हैं। 
 
घर अब घर नहीं, 
एक रावण का अड्डा बन चुका है, 
जहाँ हर रात सीता नहीं जलती 
 
बल्कि जलती है
एक पूरी पीढ़ी की सम्भावना। 
 
औरत चुप है, 
क्योंकि समाज कहता है 
“पति है . . . सहना तो पड़ेगा।” 
बच्चे चुप हैं, 
क्योंकि उन्होंने चीखने से पहले
सीख लिया है डरना। 
 
एक दिन . . . 
वो आदमी
घर नहीं लौटता। 
और पुलिस बताती है 
कि सड़क पर किसी ने उसे
उसकी ही बोतल के काँच से काट दिया। 
 
औरत नहीं रोती। 
बच्चे नहीं काँपते। 
महल्ला नहीं फुसफुसाता। 
सब जैसे . . . स्वस्थ हो गए। 
 
लेकिन उस राख से
उठने वाला धुआँ
कभी-कभी
फिर से भर देता है दीवारों को 
सिर्फ़ एक सवाल से:
 
“क्या यही था जीवन?” 

2.
नशा–एक टूटता घर

 
पिता हर शाम
बोतल लेकर लौटते हैं। 
घर की दीवारें काँपती हैं, 
बच्चों की आँखें डर से भर जाती हैं। 
 
रसोई में माँ
धीमे आँसू पोंछती है, 
सड़ी सब्ज़ी में
आज भी नमक कम है। 
 
पढ़ाई की किताबें
धूल फाँकती हैं मेज़ पर। 
बेटा अब ट्यूशन नहीं जाता, 
बेटी ने सपना छोड़ दिया 
डॉक्टर बनने का। 
 
रात को चीखें उठती हैं 
बरतन गिरते हैं, 
दरवाज़े धड़धड़ाते हैं, 
माँ का चेहरा और नीला पड़ जाता है। 
 
पड़ोसी दरवाज़े बंद कर लेते हैं, 
शहर सो जाता है
पर इस घर में नींद नहीं आती। 
 
सुबह
पिता फिर माफ़ी माँगते हैं, 
“अब नहीं पियूँगा . . . “
माँ चुपचाप रोटियाँ बेलती है। 
 
बच्चे समझ चुके हैं 
ये वादा
कल फिर टूट जाएगा। 
 
नशा, 
सिर्फ़ शरीर नहीं जलाता, 
ये सपनों को राख करता है, 
माँ की हँसी को छीन लेता है, 
बेटियों के होंठों की मुस्कान को खो देता है। 

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