गर इंसान नहीं माना तो

15-10-2020

गर इंसान नहीं माना तो

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 167, अक्टूबर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

गर इंसान नहीं माना तो
जीवन के अब लाले हैं।
 
शहर बने कंक्रीटी जंगल
धुँआ धूल धुसरित तन है
सभी वृक्ष मुरझाये लगते
सूने उदास उपवन हैं।
 
नदियों में कालोनी कटतीं
गाँव द्वार पर ताले हैं।
 
सीमाओं पर नाग खड़े हैं
अपना विषभर फन लेकर। 
राजनीति की भ्रष्ट नीति में
वोट खरीदें धन देकर।
 
घर अपने ही ढहा रहे 
अपने ही अंदरवाले हैं।
 
हिम शिखरों पर धूल जमी है
सूरज अँधियारे में सोता।
आम नागरिक सोच रहा है
कोई तो अपना होता।
 
सच्चाई का ओढ़ लबादा
ये सब जुमलेवाले हैं।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

काव्य नाटक
कविता
गीत-नवगीत
दोहे
लघुकथा
कविता - हाइकु
नाटक
कविता-मुक्तक
वृत्तांत
हाइबुन
पुस्तक समीक्षा
चिन्तन
कविता - क्षणिका
हास्य-व्यंग्य कविता
गीतिका
सामाजिक आलेख
बाल साहित्य कविता
अनूदित कविता
साहित्यिक आलेख
किशोर साहित्य कविता
कहानी
एकांकी
स्मृति लेख
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
ग़ज़ल
बाल साहित्य लघुकथा
व्यक्ति चित्र
सिनेमा और साहित्य
किशोर साहित्य नाटक
ललित निबन्ध
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में