आओ तुम्हें चाँद से मिलाएँ

01-11-2021

आओ तुम्हें चाँद से मिलाएँ

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 192, नवम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

"तुम्हारा क्या नाम है? तुम कहाँ रहते हो?" आख़िर उसकी भोली सूरत पर उमा को दया आ गयी।

उमा के घर के सामने थोड़ी दूर पर ही नगरपालिका का कचरे का डिब्बा था उसमें वो कुछ ढूँढ़ रही थी।

उमा के प्रश्न पर अचकचा गई मुस्कुराकर बोली, "दुल्ली।"

"कहाँ रहती हो? 

"श्मशान घाट की झोपड़ी पट्टी में।"

"भूख लगी है? " उमा को आशा थी कि यह हाँ कहेगी और वह इसे दो रोटी दे कर थोड़ा पुण्य कमा लेगी। अभी-अभी नौ दुर्गा उत्सव निकला है; उमा को भी कन्या भोज का पुण्य मिल जाएगा। स्वार्थी मन बहुत आगे पीछे की सोच लेता है।

"नहीं मुझे भूख नहीं है," उसने सपाट लहज़े में कहा।

"फिर इस कचरे के डिब्बे में क्या ढूँढ़ रही हो?" उमा ने आश्चर्य से पूछा।

"पैसे," उसने मुस्कुराते हुए कहा। "आप पैसे दोगी" उसने आशा भरी आवाज़ में कहा।

"पहले ये बताओ तुम पैसे का क्या करोगी?" उमा ने उसका मन टटोला।

"अपने बापू को दूँगी," उसने बड़ी मासूमियत से कहा।

"अच्छा अपने बापू को बहुत चाहती हो तुम," उमा के स्वर में स्नेह था।

"नहीं दीदी जी मेरा बापू शराब पीकर माँ को मारता है। उसे जैसे ही मैं पैसे देती हूँ, वो फिर माँ को नहीं मारता, छोड़ देता है, इसलिए मैं कचरे के डिब्बे में पैसे ढूँढ़ती हूँ," उसके स्वर में दर्द था।

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