पुरानी नींव, नए मकान

15-08-2025

पुरानी नींव, नए मकान

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 282, अगस्त प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

सूरज की आख़िरी किरणें जब शहर के ऊँचे अपार्टमेंटों से फिसलकर नीचे आतीं, तो नीलिमा देवी अपने लिविंग रूम की बालकनी में बैठी, सामने फैले काँच के जंगल को देखती रहतीं। 78 साल की नीलिमा देवी, कभी अपने घर की धुरी हुआ करती थीं, पर आज उन्हें लगता था कि वह बस एक पुरानी कुर्सी हैं, जिसे हॉल के किसी कोने में रख दिया गया हो। उनके बेटे, संजय, और बहू, पूजा, दोनों मल्टीनेशनल कंपनियों में ऊँचे पदों पर थे। पोता, आर्यन, भी दिन भर अपने गैजेट्स में खोया रहता। 

सुबह का समय था, पूजा किचन में कॉफ़ी बना रही थी। नीलिमा देवी ने धीरे से कहा, “बहू, आज दाल में थोड़ा घी का तड़का लगा देना। संजय को पसन्द है।”

पूजा ने पलटकर देखा, उसके चेहरे पर हल्की सी झुँझलाहट थी।

”माँ जी, प्लीज़! आजकल कोई दाल में घी नहीं डालता। ये सब कोलेस्ट्रॉल बढ़ाता है। और वैसे भी, संजय को अब अपनी सेहत का ध्यान है।”

नीलिमा देवी चुप हो गईं। उन्हें याद आया, एक ज़माना था जब वो जो कुछ बनाती थीं, पूरा घर चाव से खाता था। उनकी छोटी-छोटी सलाहें भी मायने रखती थीं। अब, उनकी राय को ‘पुरानी बातें’ कहकर टाल दिया जाता था। 

शाम को आर्यन स्कूल से आया। नीलिमा देवी ने उसे पास बुलाया।

“आर्यन, आज स्कूल में क्या-क्या पढ़ा बेटा? मैंने सोचा था तुम्हें महाभारत की एक कहानी सुनाऊँ?” 

आर्यन ने बिना देखे ही जवाब दिया, “दादी, अभी नहीं। मेरा ऑनलाइन गेम चल रहा है। और महाभारत? वो तो बोरिंग है। हमने स्कूल में ‘फ़्यूचरिस्टिक रोबोट्स’ के बारे में पढ़ा है, जो पुराने लोगों की बातें नहीं सुनते।” आर्यन ने तपाक से जवाब दिया। नीलिमा देवी के सीने में एक टीस उठी। उन्हें लगा, जैसे उनके ज्ञान का पिटारा अब किसी काम का नहीं रहा। 

संजय जब ऑफ़िस से आता, तो थका-हारा होता। वह सीधा सोफ़े पर बैठता और टीवी चला लेता। नीलिमा देवी कभी-कभी हिम्मत करके पूछतीं, “बेटा, आज ऑफ़िस में सब ठीक रहा?” 

संजय बिना आँखें उठाए कहता, “हाँ माँ, सब ठीक है। आप रहने दो, आपको समझ नहीं आएगा।”

यह वाक्यांश “आपको समझ नहीं आएगा” अक्सर उनके कानों में गूँजता रहता। 

परिवार में कोई भी बड़ा फ़ैसला होता, तो नीलिमा देवी को अक्सर जानकारी सबसे अंत में मिलती, या मिलती ही नहीं। एक बार पूजा और संजय ने घर में एक बड़ा रेनोवेशन कराने का फ़ैसला किया। उन्होंने नया किचन बनवाया, लिविंग रूम को फिर से सजाया, नीलिमा देवी ने सुझाव दिया, “बेटा, पूजा घर थोड़ा बड़ा करवा लो, और अपनी पुरानी गणेश जी की मूर्ति वहीं रख देना।”

पूजा ने हँसकर कहा, “माँ जी, अब वो सब नहीं चलता। हमने मॉड्यूलर किचन बनवाया है। और पूजा के लिए तो बस एक छोटी सी शेल्फ़ काफ़ी है, आजकल कौन इतना बड़ा पूजा घर बनाता है!” नीलिमा देवी का सुझाव हवा में उड़ गया। 

उनकी उपेक्षा का एक और बड़ा पहलू था उनकी सेहत। कभी घुटनों में दर्द होता, कभी बीपी ऊपर-नीचे होता। संजय और पूजा डॉक्टर के पास ले जाते, दवा दिलवाते, पर उनकी पुरानी बीमारियों और अकेलेपन से होने वाले मानसिक कष्ट को कोई नहीं समझता था। नीलिमा देवी अक्सर सोचतीं, “इन्हें लगता है, बस दवा दे दी, काम ख़त्म।” उन्हें कोई अपने पास बिठाकर, आराम से उनकी तकलीफ़ नहीं सुनता था। 

उनकी ‘प्रासंगिकता’ अब सिर्फ़ कुछ कामों तक सीमित रह गई थी जब मेड छुट्टी पर होती, तो घर का छोटा-मोटा काम देख लेना; आर्यन की स्कूल बस का समय होने पर उसे गेट तक छोड़ना; या जब कोई बाहर से सामान लाने वाला न हो तो दुकान से दूध लाना। यह सब उनसे ‘अपेक्षा’ थी, पर उनकी अपनी कोई ‘उपस्थिति’ नहीं थी। 

एक दिन, संजय के दोस्त की पत्नी घर आई। बातों-बातों में उसने कहा, “पूजा, तुमने देखा नहीं, सुनीता आंटी ने अपनी सासू माँ को कितने अच्छे वृद्धाश्रम में रखा है! सारी सुविधाएँ हैं वहाँ। और वो भी ख़ुश हैं, क्योंकि वहाँ उनके उम्र के लोग हैं। घर में बूढ़ों का अकेले मन भी नहीं लगता, और यहाँ उनकी देखभाल भी हो जाती है।”

नीलिमा देवी ने यह सुना और उनके रोंगटे खड़े हो गए। उन्हें लगा, जैसे कोई अदृश्य हाथ उन्हें उनके ही घर से बेदख़ल करने की तैयारी कर रहा हो। उन्होंने देखा, पूजा और संजय ने एक-दूसरे की तरफ़ देखा, और फिर बात बदल दी। पर वह फुसफुसाहट नीलिमा देवी के कान में गूँजती रही। 

उन्हें अपनी पुरानी पड़ोसिन, सुधा मौसी की याद आई। सुधा मौसी को भी उनके बेटे ने शहर के बड़े वृद्धाश्रम में छोड़ दिया था। शुरू में तो सबने कहा, ‘कितना अच्छा किया।’ पर कुछ महीनों बाद सुधा मौसी बीमार पड़ गईं और उनका देहांत हो गया। नीलिमा देवी को लगा, जैसे उनकी भी नियति वही होने वाली है। 

एक दिन, घर में सब कुछ गड़बड़ा गया। पूजा के ऑफ़िस में एक इमरजेंसी मीटिंग थी, संजय को भी अचानक शहर से बाहर जाना पड़ा, और आर्यन की मेड छुट्टी पर चली गई। आर्यन का ऑनलाइन एग्ज़ाम था और उसे अचानक लैपटॉप में दिक़्क़त आ गई। वह रोने लगा। 

संजय ने हड़बड़ी में पूजा को फ़ोन किया, “पूजा, आर्यन का एग्ज़ाम है। मेड नहीं आई। तुम क्या करोगी?” 

पूजा परेशान होकर बोली, “मुझे मीटिंग में जाना ही होगा। अब क्या करें?” 

तभी नीलिमा देवी वहाँ आईं।

“क्या हुआ बेटा? आर्यन क्यों रो रहा है?” 

संजय ने लगभग झुँझलाहट में कहा, “माँ, आप रहने दो, आपको समझ नहीं आएगा। इसके लैपटॉप में कुछ गड़बड़ हो गई है।”

नीलिमा देवी ने आर्यन के पास जाकर देखा।

”अच्छा, यह? बेटा, जब तेरी ऑनलाइन क्लास शुरू हुई थी, तब मैंने भी सीखा था यह। देख, इसमें ये सेटिंग बदली है,” उन्होंने धीरे से आर्यन के लैपटॉप की एक सेटिंग ठीक कर दी। लैपटॉप चालू हो गया! आर्यन की आँखों में चमक आ गई, ”दादी! आपने कैसे कर दिया?” 

नीलिमा देवी मुस्कुराईं, “अरे बेटा, हम बूढ़े हैं, पर बेकार नहीं हुए। बस मौक़ा नहीं मिलता कुछ करने का।”

उस दिन आर्यन के एग्ज़ाम के बाद, नीलिमा देवी ने उसे गरमा-गरम पराँठे बनाकर खिलाए। आर्यन ने कई दिनों बाद दादी के हाथ का बना खाना खाया था। उसने कहा, “दादी, आपके हाथ में तो जादू है! ये पराँठे कितने टेस्टी हैं।”

संजय और पूजा जब रात को वापस लौटे, तो उन्हें घर में एक अजीब सी शान्ति और सुकून महसूस हुआ। आर्यन ने दौड़कर उन्हें बताया कि दादी ने कैसे उसका लैपटॉप ठीक किया और कितने स्वादिष्ट पराँठे बनाए। 
संजय ने पहली बार अपनी माँ को ध्यान से देखा। उनके चेहरे पर थकान थी, पर एक हल्की सी मुस्कान भी थी। ”माँ, आप कमाल हो!” उसने कहा। 

नीलिमा देवी ने कुछ नहीं कहा, बस मुस्कुराईं। 

उस रात, संजय और पूजा ने देर तक बात की। उन्हें अहसास हुआ कि वे अपनी माँ को कितना कम समय देते हैं। उनकी ‘उपयोगिता’ सिर्फ़ घरेलू कामों तक सीमित नहीं थी, बल्कि उनके अनुभव, उनके स्नेह और उनकी उपस्थिति में थी, जो घर को ‘घर’ बनाती थी। 

अगले दिन, संजय ने अपनी माँ के लिए सुबह की सैर का प्रबंध किया। पूजा ने किचन में उनसे पूछा कि कौन सी दाल कैसे बनती है। आर्यन ने शाम को अपना गैजेट छोड़कर दादी से महाभारत की कहानी सुनी। 

रिश्ते तुरंत नहीं बदल गए, पर एक शुरूआत हो गई थी। नीलिमा देवी को अब भी अपनी पुरानी शॉल पसंद थी, पर अब उन्हें लगता था कि घर में उनकी जगह भी उतनी ही सुरक्षित और गर्म है जितनी उस शॉल में। उन्हें समझ आया कि आजकल के परिवेश में वृद्धों की प्रासंगिकता को अक्सर ग़लत समझा जाता है। उनसे अपेक्षा तो की जाती है कि वे चुपचाप रहें, बोझ न बनें, और ज़रूरत पड़ने पर मदद करें, पर उनकी विद्वत्ता, अनुभव और भावनात्मक सहारा देने की क्षमता को अनदेखा कर दिया जाता है। 

नीलिमा देवी मन ही मन सोच रहीं थीं कि लाखों बुज़ुर्ग जो आज भी अपने ही घरों में अपनी ‘प्रासंगिकता’ तलाश रहे हैं क्या वो भी इतने भाग्यशाली और परिवर्तनशील है कि जो समय और पीढ़ी के साथ सामंजस्य बना सकते हैं जो अपने घर के वातावरण में स्वयं के अस्तित्व को पुनः स्थापित कर पाते होंगे। घर की नींव तभी मज़बूत होती है, जब उसमें पुरानी और नई ईंटें मिलकर रहें, और हर पीढ़ी एक-दूसरे के अनुभव और अस्तित्व का सम्मान करे। शायद तभी, हर घर एक ‘आधुनिक’ मकान नहीं, बल्कि एक सच्चा और गर्मजोशी से भरा ‘घर’ बन पाएगा। 
 

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