राम के दीप, हमारे भीतर की अयोध्या में

01-11-2025

राम के दीप, हमारे भीतर की अयोध्या में

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 287, नवम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)


(दीपावली पर आलेख-सुशील शर्मा) 

भारतीय संस्कृति की आत्मा यदि किसी एक पर्व में समाहित है, तो वह निस्संदेह दीपावली है। यह पर्व, जिसे ‘दीपों का उत्सव’ कहा जाता है, केवल दीयों और पटाखों तक सीमित नहीं है; यह जीवन के अंधकार पर प्रकाश की विजय, असत्य पर सत्य की जीत, और निराशा पर आशा के उद्भव का शाश्वत संदेश है। दीपावली के इस व्यापक फलक पर दो अत्यंत महत्त्वपूर्ण और गहराई से जुड़े दृष्टिकोण उभरते हैं, जो इसे वर्तमान युग में और भी अधिक प्रासंगिक बनाते हैं, दीपावली पर्व आंतरिक शुद्धि और धर्म-संवेदना का आह्वान करता है; साथ ही यह समन्वय धर्म, विज्ञान और आधुनिकता का पाठ भी पढ़ाता है, और साथ में यह परंपराओं को आधुनिक जीवन-शैली और वैज्ञानिक चेतना के साथ भी जोड़ता है। 

दीपावली भारत की सांस्कृतिक चेतना का सर्वाधिक आलोकमय पर्व है। यह केवल दीयों की पंक्तियाँ जलाने का अवसर नहीं, बल्कि मानव के भीतर अंधकार पर प्रकाश की विजय का उत्सव है। जब-जब जीवन में भ्रम, लोभ, अहंकार और हिंसा का अंधकार फैलता है, तब दीपावली स्मरण कराती है कि “प्रकाश बाहर नहीं, भीतर जलाना होता है।” 

आज की दीपावली केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक मानवीय अनुभव का प्रतीक है जो धर्म की संवेदना, विज्ञान की प्रगति और आधुनिकता की विवेकशीलता तीनों को एक ही ज्योति में समाहित करती है। 

राम जब चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात् लौटे, तो अयोध्या में दीयों की पंक्तियाँ जलीं। यह दृश्य केवल ऐतिहासिक नहीं था—यह चेतना के पुनरागमन का प्रतीक था। अयोध्या, दरअसल, मनुष्य के भीतर की वह भूमि है जहाँ मर्यादा, संयम, प्रेम और करुणा बसते हैं। 

आज के युग में, जब मनुष्य के भीतर के मूल्य डगमगा रहे हैं, तब हमें पूछना चाहिए, “क्या हमारी अयोध्या अभी भी रोशन है?” 

दीपावली हमें अपने भीतर झाँकने की प्रेरणा देती है कि क्या हमने अपने अंतरतम में उस मर्यादा पुरुषोत्तम भाव को जीवित रखा है या वह कहीं उपभोक्तावादी चमक में दब गया है? 

दीपावली का शाब्दिक अर्थ भले ही बाहरी दीयों को जलाना हो, लेकिन इसका दार्शनिक महत्त्व कहीं अधिक गहरा है। यह पर्व हमें बाहरी दुनिया को चमकाने से पहले अपने भीतर के अंधकार को दूर करने का संदेश देता है। 

पौराणिक कथाओं के अनुसार, दीपावली भगवान राम के चौदह वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटने की ख़ुशी में मनाई गई थी। लेकिन यहाँ ‘अयोध्या’ केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं है; यह हमारे मन, बुद्धि और आत्मा का प्रतीक है। 

जब हम कहते हैं कि “राम के दीप, हमारे भीतर के अयोध्या में” जलें, तो इसका अर्थ है कि हमें अपने मन रूपी अयोध्या को इन आंतरिक बुराइयों (रावण) से मुक्त करना होगा। हमारा मन रूपी राजसिंहासन लंबे वनवास (अज्ञान) के बाद, मर्यादा पुरुषोत्तम राम (धर्म-संवेदना और आत्म-बोध) के लिए तैयार होना चाहिए। 

आत्म-शुद्धि का अनुष्ठान: तमसो मा ज्योतिर्गमय:

दीपावली से पूर्व घरों की सफ़ाई की जाती है। यह सफ़ाई केवल भौतिक नहीं, बल्कि प्रतीकात्मक है। 

व्यापारी नए बही-खाते शुरू करते हैं। यह जीवन में नए संकल्प लेने, पुरानी ग़लतियों को भुलाने और आध्यात्मिक तथा नैतिक प्रगति का हिसाब-किताब करने का समय है। दीये जलाना अज्ञान (तमस) से ज्ञान (ज्योति) की ओर जाने का संकल्प है। हर दीपक यह याद दिलाता है कि भले ही बाहर घनघोर अंधकार हो, हमारे भीतर की आस्था और विवेक की लौ बुझनी नहीं चाहिए। 

दीपावली की सच्ची सार्थकता तब है जब हम अपने भीतर राम (धर्म) को स्थापित करें, और काम, क्रोध, मद, लोभ के रावण पर विजय प्राप्त करें। यह पर्व हमें उपभोग से हटाकर उपयोग और त्याग की ओर ले जाने का आंतरिक दर्शन प्रस्तुत करता है। 

समन्वय की दीपावली:

आधुनिक युग में किसी भी परंपरा को जीवित रहने के लिए वैज्ञानिक चेतना और आधुनिक मूल्यों के साथ समन्वय स्थापित करना अनिवार्य है। दीपावली, अपने मूल स्वरूप को बनाए रखते हुए, सफलतापूर्वक यह समन्वय स्थापित कर रही है। 

भारत का आध्यात्मिक दृष्टिकोण सदैव समन्वय का दर्शन रहा है। यहाँ धर्म का अर्थ कभी कट्टरता नहीं रहा, बल्कि “धारण करने योग्य मूल्य” रहा है। 

विज्ञान का उद्देश्य जहाँ बाहरी जगत को समझना है, वहीं धर्म का उद्देश्य भीतर के जगत को उजागर करना है। आधुनिकता इन दोनों को जोड़ने वाली वह कड़ी है जो सोच में लचीलापन और जीवन में प्रयोगशीलता लाती है। 

इसलिए, दीपावली के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि “धर्म हमें बताता है कि प्रकाश क्या है, विज्ञान बताता है कि वह कैसे फैलता है, और आधुनिकता बताती है कि उसे जीवन में कैसे अपनाएँ।” 

विज्ञान हमें सिखाता है कि प्रत्येक दीप केवल प्रतीक नहीं, ऊर्जा का स्रोत है। जब हम मिट्टी के दीये जलाते हैं, तो यह न केवल परंपरा का निर्वाह है, बल्कि पर्यावरण-संवेदनशीलता का भी संदेश है। 

प्लास्टिक या रासायनिक पटाखों के स्थान पर प्राकृतिक तेल और मिट्टी के दीयों का प्रयोग यही आधुनिक युग की सच्ची वैज्ञानिक आस्था है। 

दीपावली के कई अनुष्ठानों में गहरा वैज्ञानिक आधार छिपा है

दीपावली शरद ऋतु के अंत और शीत ऋतु के आगमन पर मनाई जाती है। यह वह समय होता है जब वातावरण में नमी और कीटाणुओं का प्रसार बढ़ जाता है। घरों और आस-पास की गहन सफ़ाई का वैज्ञानिक महत्त्व है, जो संक्रामक रोगों को रोकने में सहायक है। 

पारंपरिक रूप से दीयों में घी या तिल के तेल का उपयोग होता है। घी और तेल में कपूर या अन्य सुगंधित जड़ी-बूटियाँ मिलाकर जलाने से न केवल प्रकाश होता है, बल्कि वातावरण शुद्ध होता है और मच्छर व कीड़े-मकोड़े दूर भागते हैं। 

कुछ पारंपरिक पटाखे (जिनमें बारूद की मात्रा कम होती थी) या अग्नि प्रज्वलित करने का उद्देश्य भी वायु में मौजूद नमी को कम करना और कीटाणुओं को नष्ट करना होता था, हालाँकि आधुनिक पटाखों का प्रभाव इसके ठीक विपरीत है। 

आंतरिक शुद्धि के विचार को आधुनिक नैतिकता से जोड़कर देखा जाता है। आज की दीपावली में ‘राम’ के आदर्शों को केवल व्यक्तिगत मोक्ष तक सीमित नहीं रखा जाता, बल्कि सामाजिक न्याय, पर्यावरण संरक्षण, लैंगिक समानता और ज़रूरतमंदों की मदद के रूप में भी प्रकट किया जाता है। 

समन्वय के आधुनिक आयाम

दीपावली के समन्वय में कई सामाजिक और आर्थिक आयाम भी शामिल हैं जिनमें अर्थव्यवस्था का चक्र है, दीपावली छोटे कारीगरों, कुम्हारों, मिठाई बनाने वालों और दुकानदारों के लिए आर्थिक समृद्धि का पर्व है। यह स्थानीय अर्थव्यवस्था को बल देता है। साथ ही दीपावली समरसता का पर्व भी है, दीपावली भारत में सभी धर्मों और समुदायों के बीच सद्भाव का पर्व भी है। यह सामाजिक मेल-मिलाप, क्षमा याचना और संबंधों को मज़बूत करने का अवसर प्रदान करता है। 

वर्तमान युग में दीपावली का विस्तारित संदेश

आज के वैश्वीकरण और डिजिटल युग में, दीपावली का संदेश केवल भारतीय उपमहाद्वीप तक सीमित नहीं रहा है; यह मानवता के लिए एक सार्वभौमिक संदेश बन गया है:

कोविड-19 जैसी वैश्विक आपदाओं के बाद, दीपावली आशा का दीप जलाती है। यह सिखाती है कि घने अंधकार और कठिन समय के बाद, हमेशा उजाला आता है। यह मनोवैज्ञानिक रूप से लोगों को आगे बढ़ने की शक्ति देता है। 

आधुनिक संदर्भ में ‘धर्म’ केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें पर्यावरण धर्म भी शामिल है। वट सावित्री की तरह, दीपावली भी हमें प्रकृति की पूजा करने और उसे सुरक्षित रखने का दायित्व सौंपती है। 

डिजिटल दुनिया ने हमें अकेलेपन की ओर धकेला है। दीपावली वह अवसर है जब हम भौतिक रूप से एक-दूसरे से मिलते हैं, उपहारों का आदान-प्रदान करते हैं, और पारिवारिक व सामाजिक संबंधों की पूँजी को समृद्ध करते हैं। 

राम का लौटना केवल अयोध्या का उत्सव नहीं, बल्कि मनुष्य की आत्मा में लौटने का उत्सव है। 

जब हम अपने भीतर के विकारों को जीतते हैं, तब हमारी चेतना में “रामराज्य” की स्थापना होती है। 

दीपावली इस यात्रा का प्रतीक है “अंधकार से प्रकाश की ओर, अव्यवस्था से मर्यादा की ओर।” 

राम के दीप, हमारे भीतर के अयोध्या में जलकर हमें आंतरिक शुद्धि का मार्ग दिखाते हैं, जबकि “समन्वय की दीपावली” हमें सिखाती है कि हम अपनी गौरवशाली परंपराओं को त्यागने के बजाय, उन्हें विज्ञान और आधुनिक नैतिकता के आलोक में और अधिक सुदृढ़, सार्थक और समावेशी बना सकते हैं। 

यह वह दीपावली है जो एक ओर हमारे भीतर के अहंकार को जलाती है, तो दूसरी ओर हमें एक स्वस्थ, समरस और पर्यावरण-सचेत समाज के निर्माण के लिए प्रेरित करती है। यही दीपावली की वास्तविक और चिरस्थायी सार्थकता है। 

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