हथेलियों में बंद चाँद की स्मृति

15-12-2025

हथेलियों में बंद चाँद की स्मृति

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 290, दिसंबर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

जब तुमने
मेरी हथेली पर
अपनी उजली चाँदनी रखी थी
तभी पहली बार
मैंने जाना था
कि त्वचा भी
प्रकाश को सहेज सकती है
 
और जब मैंने
तुम्हारी पेशानी पर
अपनी धड़कनों का
कोमल स्पर्श लिख दिया था
उस क्षण प्रेम
किसी शब्द का नहीं
किसी मौन का पर्याय बन गया था
 
हम दोनों
एक-दूसरे की रेखाओं में
अपना अस्तित्व टटोलते रहे
मानो नियति ने
दो अधूरे अक्षरों को
एक ही श्लोक में
पहली बार जोड़ दिया हो
 
पर समय
जब मुट्ठी बनकर कस गया
तो तुमने चाँद छिपा लिया
और मैंने प्रश्न
उस लौ की तरह
जिसका झिलमिलापन
कभी बुझता नहीं
 
अब हथेली खुलती नहीं
क्योंकि डर है
कि कहीं चाँद गिर न जाए
कहीं वो चमक
दुनिया की हवाओं में
विलीन न हो जाए
 
पर एक दिन
जब राहें फिर मिलेंगी
और वर्षों की धूल
आँखों से हट जाएगी
तब हथेली खिल उठेगी
जैसे कोई बंद कली
धूप में खुलकर
गंध बन जाए
 
तुम्हारे चाँद के लिए
मेरे चाँद का
यह अंतहीन इंतज़ार
बस इसी विश्वास पर टिका है
कि दो उजाले
जब भी मिलते हैं
रात अपने अंधकार को
कहीं पीछे छोड़ आती है
 
और प्रेम
फिर से वही शब्द लिखता है
अधिकार नहीं
अद्वैत।

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