द्वंद्व के साधक और शब्दों के शिल्पी आशुतोष

15-11-2025

द्वंद्व के साधक और शब्दों के शिल्पी आशुतोष

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 288, नवम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

(प्रियवर आशु भाई के जन्मदिवस पर विशेष) 

 

प्रकृति में कुछ ऊर्जाएँ ऐसी होती हैं, जो परस्पर विपरीत होते हुए भी संतुलन साधती हैं जैसे शिव में समाहित तांडव और ध्यान का द्वंद्व। ठीक इसी प्रकार, कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं जो अपने भीतर गहन विरोधाभास समेटे होते हैं और यही विरोधाभास उन्हें साधारण से उठाकर अलौकिक बना देता है। जब हम आशुतोष राना के व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हैं, तो पाते हैं कि वह द्वंद्व के साधक हैं। 

गाडरवारा की सादगी भरी माटी से निकलकर, उन्होंने फ़िल्मी फलक पर ऐसे किरदार जिए, जो एक ओर क्रूरता की पराकाष्ठा थे, तो दूसरी ओर, उनकी लेखनी में हिमालय सी शांत करुणा का वास है। यह ‘विलन’ और ‘विद्वान’ का द्वंद्व ही उनकी सबसे बड़ी शक्ति है। 

आशुतोष जी पर्दे पर अग्नि, आत्मा में जल रखते हैं, अभिनय की दुनिया में, आशुतोष जी को अक्सर अग्नि-स्वरूपी पात्रों के लिए जाना जाता है। वे पात्र जो स्क्रीन पर आते ही एक विस्फोटी ऊर्जा और आतंक का संचार करते हैं। उनके संवादों में एक ऐसी पैठ होती है, जो सीधे दर्शक की चेतना पर वार करती है। यह उनकी बाह्य अभिव्यक्ति है जो अत्यंत सक्रिय, पैठनेवाली और प्रचंड है। 

परंतु, इस प्रचंडता के पीछे मैंने हमेशा उनकी आंतरिक शान्ति को महसूस किया है। यह शान्ति, उस गहरी जड़ से आती है जिसे पूजनीय दद्दाजी के चरणों की कृपा ने सींचा है। यह गुरु दीक्षा ही उन्हें वह संतुलन देती है कि वे पर्दे पर भयानकतम क्रूरता जीते हुए भी, अपने निजी जीवन में एक पल के लिए भी उस विष को अपने भीतर नहीं ठहरने देते। उनका व्यक्तित्व गंगा के जल जैसा है जो अपनी गहराई में हर मैल को समाहित कर लेता है, पर सतह पर निर्मल ही रहता है। यही अभिनय का योग है जहाँ कर्म होता है, पर कर्ता का अहंकार विलीन हो जाता है। 

आशुतोष जी की दूसरी पहचान उनकी लेखनी है। उनकी क़लम से निकली पंक्तियाँ अथाह चिंतन का प्रमाण होती हैं। उनकी भाषा केवल संस्कृतनिष्ठ और साहित्यिक नहीं होती, बल्कि उसमें जीवन का दर्शन घुला होता है। वे अपने शब्दों के माध्यम से केवल विचार नहीं देते, बल्कि पाठक को अपने भीतर झाँकने का निमंत्रण देते हैं। 

उनका साहित्य हमें सिखाता है कि साक्षरता केवल शब्दों की पहचान है, जबकि संवेदनशीलता ही सच्ची शिक्षा है। वे स्पष्ट करते हैं कि ज्ञान का उद्देश्य व्यक्ति को संसार से दूर ले जाना नहीं, बल्कि उसे अपने आस-पास के दर्द को समझने और उसके बोझ को हल्का करने का हुनर देना है। 

उस हुनर का सार क्या है? उनका यह दर्शन हमें बताता है कि जीवन में आत्मीय भाव का कोई विकल्प नहीं है। डिग्रियों के बोझ तले दबकर यदि हमने संवेदना खो दी, तो वह शिक्षा व्यर्थ है। आशुतोष जी की लेखनी, ठीक सत्य की एक मशाल की तरह, हमें जीवन के मूलभूत मानवीय मूल्यों की ओर मोड़ती है। 

जीवन की अनवरत यात्रा में, आशुतोष राणा का व्यक्तित्व एक विवेक बुद्धि का प्रकाशस्तंभ बनकर उभरता है। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि वह भौतिक सफलता के शिखर पर पहुँचकर भी, अपनी जड़ों और सामान्य मूल्यों को नहीं भूले। उनका आत्मविश्वास उनके सामान्य नयन-नक्शों से नहीं, बल्कि उनके चरित्र की दृढ़ता से आता है। 

मैंने अक्सर महसूस किया है कि उनकी वाणी और व्यवहार में अद्भुत सहजता होती है। यह सहजता ही उन्हें उस नीर-क्षीर विवेक की ओर ले जाती है, जहाँ वे जानते हैं कि संसार की क्षणभंगुर उपलब्धियाँ गौण हैं, और आंतरिक शान्ति ही परम पुरुषार्थ है। उनकी संतुष्टि निष्क्रिय नहीं है; वह निरंतर अपनी क्षमता और ज्ञान की सीमाएँ तोड़ने का प्रयास करते हैं, पर यह प्रयास अहंकार से नहीं, बल्कि आनंद से प्रेरित होता है। 

आज, उनके जन्मदिवस के इस शुभ अवसर पर, हम न केवल एक महान कलाकार को बधाई दे रहें हैं, बल्कि उस चिंतक और साधक का भी अभिनंदन कर रहें हैं, जिसने अपनी कला और लेखनी से समाज में संवेदना और जागरूकता का संचार किया है। 

हम सभी आत्मीय स्वजन सच्चे हृदय से उनके जीवन में संतुलन, आनंद और ज्ञान का अविरल प्रवाह बना रहने की मंगलकामना करते हैं। उनका जीवन, उनके शब्दों की तरह ही, हम सबके लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहे। 

जन्मदिन की हार्दिक हार्दिक शुभकामनाएँ
सुशील शर्मा

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