गाय की दुर्दशा: एक सामूहिक अपराध की चुप्पी
डॉ. सुशील कुमार शर्मा
गाय भारतीय संस्कृति और ग्रामीण जीवन की आत्मा रही है। वह केवल एक पशु नहीं, अपितु आस्था, कृषि, और अर्थव्यवस्था की त्रिवेणी का केंद्र रही है। लेकिन आज यही गाय उपेक्षा, भूख और पीड़ा का पर्याय बन गई है। शहरों की गलियों में कूड़ा खाते हुए, दुर्घटनाओं में घायल, प्लास्टिक निगलते हुए या फिर बूढ़ी होकर बेसहारा छोड़ दी गई गायें— ये सब हमारी सामाजिक संवेदनहीनता का जीवित प्रमाण हैं।
एक समय था जब . . .
गाय को “गौमाता” कहा जाता था—और यह केवल धार्मिक भावना नहीं थी। कृषि-प्रधान भारत में गाय का स्थान केंद्र में था। दूध, गोबर, और खेतों के लिए उसकी उपयोगिता जीवन-रेखा थी। किसान उसे परिवार के सदस्य की तरह मानता था। लेकिन अब वह सम्बन्ध भी टूट चुका है। जैसे-जैसे आधुनिकता आई, मशीनों ने जगह ली, और संतानोत्पत्ति की क्षमता कम होते ही गाय ‘अर्थहीन बोझ’ बन गई।
किसान की लाचारी
किसान पर ही गाय को पालने का दायित्व था। परन्तु आज का किसान स्वयं क़र्ज़, मौसम की मार, और बाज़ार की असमानताओं से जूझ रहा है। ऐसे में वह जब गाय की उपयोगिता कम देखता है, तो उसे सड़क पर छोड़ देना ‘विकल्प’ बन जाता है। यह निर्णय अमानवीय भले हो, पर उसकी विवशता के गर्भ में कई नीतिगत विफलताएँ छुपी हैं। किसान के पास न पशुशाला है, न आर्थिक सहायता, और न ही सरकार से व्यावहारिक समर्थन।
जनप्रतिनिधि और तंत्र की निष्क्रियता
हर चुनाव में ‘गौ रक्षा’ एक भावनात्मक मुद्दा बनती है, मगर ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि न कोई स्थायी नीति बनती है, न क्रियान्वयन की कोई ठोस योजना। अधिकांश गोशालाएँ केवल नाम की हैं—वहाँ न चारा है, न देखभाल। गायों के नाम पर चंदे बटोरने वाले कई संगठन भी केवल अपनी दुकानें चला रहे हैं। पंचायत से लेकर संसद तक— नीति और नीयत दोनों में खोट स्पष्ट है।
समाज की संवेदनहीनता
जिस समाज ने गाय को पूजा, आज वही उसे ट्रैफ़िक में धक्का देकर हटाता है। जिन घरों में ‘गायत्री मंत्र’ गूँजता था, वहाँ अब गाय केवल पूजा के एक दिन के लिए ‘स्मृति’ बनकर रह गई है। हम दूध तो चाहते हैं, लेकिन उसके बुढ़ापे की ज़िम्मेदारी से मुँह मोड़ लेते हैं। शहरों में आवारा गायों को अपशब्द कहना, उन्हें पत्थर मारना, दुर्घटनाओं में अनदेखा कर देना—यह सब हमारी सामूहिक करुणा की मृत्यु है।
परिणाम
आवारा पशुओं की बढ़ती संख्या—ये न केवल स्वयं कष्ट में हैं, बल्कि सड़क दुर्घटनाओं का कारण भी बनते हैं।
खेती को नुकसान—खेतों में चराई कर वे किसान की फ़सल नष्ट करते हैं, जिससे वही किसान और अधिक क़र्ज़ में डूबता है।
प्लास्टिक और कचरा निगलने से उनकी मृत्यु—गायों की मौत का यह भयावह कारण आज आम हो गया है।
क्या समाधान सम्भव हैं?
बिलकुल हैं—अगर समाज, सरकार और किसान मिलकर ज़िम्मेदारी लें:
1. स्थायी गोशालाओं का निर्माण—हर गाँव और शहर में राज्य स्तर पर सुव्यवस्थित गोशालाएँ बनें, जिनमें सरकारी अनुदान, पंचायत की ज़मीन और सामाजिक भागीदारी शामिल हो।
2. गायों के लिए पेंशन योजना—वृद्ध गायों के लिए किसान को अनुदान या मासिक सहायता दी जा सकती है।
3. गौ उत्पाद आधारित उद्योग—गोबर, मूत्र आदि से जैविक खाद, कीटनाशक, और अन्य वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाया जाए जिससे गाय आर्थिक रूप से उपयोगी बनी रहे।
4. स्कूलों और समाज में संवेदना शिक्षा—बाल्यकाल से ही पशुओं के प्रति करुणा का भाव जागृत हो ताकि भविष्य में ये दृश्य दोहराए न जाएँ।
5. क़ानूनी और सामाजिक निगरानी—गायों के परित्याग को अपराध घोषित कर उसकी निगरानी की जाए, और दोषियों पर कार्यवाही सुनिश्चित हो।
गाय की दुर्दशा किसी एक की ज़िम्मेदारी नहीं—यह हमारी सामूहिक विफलता है। किसान की विवशता, जनप्रतिनिधियों की निष्क्रियता, और समाज की संवेदनहीनता ने मिलकर एक ऐसी स्थिति बना दी है, जो न केवल गाय के लिए दुःखद है, बल्कि हमारी आत्मा के लिए भी लज्जाजनक। अब समय है, भावुक नारों से आगे बढ़कर व्यावहारिक क़दम उठाने का। क्योंकि अगर हम “गौमाता” कहते हैं, तो उसकी सेवा सिर्फ़ एक दिन का आयोजन नहीं, जीवन भर की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए।
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