अर्द्धांगिनी
डॉ. सुशील कुमार शर्माआज दीवाली का दिन था वसुधा आँगन में रंगोली डाल रही थी। बच्चे दोस्तों के साथ मौज-मस्ती कर रहे थे। शैलेश सामान लेने बाज़ार गया था।
वसुधा की सास बहुत मज़ाकिया स्वाभाव की थीं वसुधा को देख कर बोलीं, "बहुत सुन्दर लग रही हो बहूरानी ऐसा लगता है जैसे आज ही आई हो ब्याह के।"
"माँजी आप भी…" वसुधा शरमा कर बोली।
वसुधा के सामने से पिछला बीस साल का जीवन फ़्लैशबैक की तरह गुज़र गया।
वह बीस साल पहले शैलेश की दुल्हन बन कर इस घर में आई थी। अपने माता पिता की लाड़ली अपने भाइयों की राजकुमारी थी वसुधा। रिश्तेदारों ने वसुधा और शैलेश के विवाह की बात आगे बढ़ाई, शैलेश से पहली बार मिलने पर ही वसुधा उसकी वाकपटुता की कायल हो गई। शैलेश के हँसमुख स्वभाव को घर में सबने पसंद किया और आनन-फानन में दोनों की शादी हो गई।
वसुधा भोपाल की उच्च शिक्षित संस्कारित लड़की थी और उसे इस क़स्बे के माहौल में ढलने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा।शैलेश घर वाले भी वसुधा जैसी सुन्दर सुशील बहू पाकर बहुत ख़ुश थे।
शैलेश की कोई स्थायी इनकम नहीं थी फिर भी कुछ ठेकेदारी वग़ैरह करके घर का ख़र्च ठीक-ठाक चल जाता था। शैलेश को राजनीति और समाज सेवा का नशा था। किसी भी व्यक्ति की कैसी भी समस्या हो शैलेश उसे मिनिटों में सुलझ देता था। क्षेत्र के विधायक और सांसद उसके बहुत ख़ास थे इस कारण राजनीति में उसका दबदबा था। विधायक का तो वो दाहिना हाथ था उसके बग़ैर विधायक कहीं नहीं जाते थे। शहर के हर छोटे बड़े राजनैतिक और सामाजिक आयोजन उसके बग़ैर नहीं होते थे। पहले-पहल वसुधा को सब अच्छा लगा था। लेकिन जब उसने देखा कि शैलेश का सिर्फ़ उपयोग किया जा रहा है तो उसने शैलेश को समझाया।
"आप कुछ अपना बिज़िनेस शुरू क्यों नहीं करते?" वसुधा ने पूछा।
“राजनीति और समाज सेवा ही तो मेरा बिजनेस है," शैलेश ने मुस्कुराते हुए कहा।
"लेकिन मैं देख रही हूँ कि इससे हमें कोई लाभ नहीं है,” वसुधा ने चिंतित स्वर में कहा।
"फ़ायदा होगा अर्द्धांगिनी तुम देखती जाओ एक दिन तुम विधायक बनोगी,” शैलेश ने मुस्कुराते हुए कहा।
"नहीं मैं अपने घर परिवार से संतुष्ट हूँ मुझे राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं है,” वसुधा ने लभभग झल्लाते हुए कहा।
लेकिन शैलेश पर तो जैसे नशा सवार था उसने वसुधा कि किसी भी बात को गंभीरता से नहीं लिया।
कुछ समय बाद पार्षद के चुनाव में उसने अपनी राजनीतिक पकड़ के चलते विधायक कि अनुशंसा से चुनाव का टिकिट हासिल कर लिया महिला सीट होने के कारण वसुधा को चुनाव लड़ना पड़ा। वसुधा ने बहुत मना किया लेकिन शैलेश नहीं माना।
"देखिये मुझे इस चुनाव की झंझट में मत डालिये। मुझे अपना घर और बच्चे देखने दीजिये," वसुधा ने प्रतिरोध करे हुए कहा।
"अरे मेरी अर्द्धांगिनी तुम नहीं समझोगी कितनी मुश्किल से टिकिट मिली है। महिला सीट है, मैं इस पर चुनाव नहीं लड़ सकता तुम्हें ही खड़ा होना होगा। ऐसे मौक़े बार-बार नहीं आते हैं। कौन जाने कल इसी आधार पर विधायक की दावेदार हो जाओ अगर विधानसभा सीट महिला के लिए आरक्षित होती है तो। तुम्हें चुनाव तो लड़ना ही है।" शैलेश ने अपना अंतिम फ़ैसला सुनाते हुए कहा।
वसुधा को मालूम था कि शैलेश से बहस करना मूर्खता है क्योंकि वह बहुत ज़िद्दी था एक बार उसने जो ठान लिया फिर उसको मोड़ना बहुत मुश्किल होता है।
अपने व्यवहार और लोकप्रियता के चलते शैलश और वसुधा वो चुनाव जीत गए। इसके बाद तो शैलेश पर राजनीति का जूनून सवार हो गया। वह बच्चों और वसुधा को अब पहले से भी काम समय देने लगा इसकी शिकायत वसुधा अक्सर करती।
"सुनो जी अब बच्चे बड़े हो रहे हैं ख़र्च भी बढ़ रहे हैं ऐसे कैसे काम चलेगा।"
“क्या चीज़ की कमी है तुम्हें और बच्चों को, सारी सुख सुविधाएँ मिल रहीं हैं, भैया हैं पापा हैं चिंता किस बात की है तुम्हें?" शैलेश ने कहा।
"राजनीति बहुत ख़राब है इसका कोई भरोसा नहीं है। आज सत्ता साथ है कल नहीं रहेगी हम फिर क्या करेगें?" वसुधा ने चिंतित स्वर में कहा।
"अरी अर्द्धांगिनी कल तुम विधायक बनोगी काहे चिंता कर रही हो? हमेशा आशावादी रहो नकारात्मक मत सोचो," शैलश मुस्कुराते हुए बोला।
वसुधा शैलेश को कैसे बताती कि हर छोटी-छोटी बात के लिए परिवार वालों से पैसा माँगना कितना बुरा लगता है लेकिन शैलश को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था।आख़िर परिवार का ख़र्च चलाने के लिए वसुधा को ही आगे आना पड़ा उसने ज़िद करके पोस्ट ऑफ़िस एवं एलआईसी की एजेंटशिप ले ली। पार्षद के काम को देखने के साथ-साथ उसने घर-घर जाकर पोस्ट ऑफ़िस के बचत खाते और एलआईसी की पॉलिसी खुलवाईं। इससे इतना कमीशन मिलने लगा कि घर का ख़र्च आराम से चलने लगा।
विधायक का अति विश्वासपात्र होने के कारण शैलेश बहुत व्यस्त रहने लगा था। रात-दिन विधायक जी के साथ घूमना, दौरे करना, उनको प्राप्त शिकायतों का निराकरण करना इसके साथ-साथ अपने वार्ड की समस्याओं को सुलझाना उसकी नियमित दिनचर्या हो गई थी।
वसुधा उसको अक्सर टोकती, "देखो आप बहुत व्यस्त रहते हो आपका स्वास्थ्य दिनों-दिन गिर रहा है मुझे बहुत चिंता होती है। "
"अरी अर्द्धांगिनी मुझे कुछ नहीं होगा तुम जो मेरी सुरक्षा कवच हो," शैलेश हँस कर उसकी बात टाल देता था।
"मुझे अच्छा नहीं लगता आप विधायक जी की हर ज़िम्मेवारी अपने ऊपर ले लेते हैं," वसुधा ने शिकायती स्वर में कहा।
"देखो वसुधा आज शहर में हमारा नाम है, विधायक मंत्री सांसद हमारे घर आते हैं, हमें मानते हैं, इसके लिए मेहनत तो करनी होगी। फिर कल हमारे विधायक बनने के रस्ते भी तो इसी मेहनत से खुलेंगें," शैलेश ने वसुधा को समझते हुए कहा।
"देखिये मुझे आपकी राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है मैं अपने परिवार और बच्चों के साथ ही ख़ुश हूँ," वसुधा ने थोड़ा उत्तेजित होते हुए कहा।
"अरे ग़ुस्सा मत हो मेरी अर्द्धांगिनी वैसे ग़ुस्से में बहुत ख़ूबसूरत लगती हो," शैलेश ने स्थिति भाँपते हुए वसुधा को मस्का लगाया।
वसुधा को समझ में नहीं आ रहा था कि शैलेश को वो कैसे समझाए। बच्चे बड़े हो रहे हैं उनका भविष्य महँगाई के समय में परिवार का ख़र्च बहुत सारी चिंताओं से वसुधा इस समय घिरी हुई थी।
आख़िर वही हुआ जिसका वसुधा को डर था। एक दिन शैलेश देर रात तक विधायक जी के यहाँ से काम निबटा कर आया था। सुबह जैसे ही उठा उसे चक्कर आ गए। आनन-फानन में डॉक्टर को दिखाया पता चला उसकी शुगर 400 के आसपास थी। डॉक्टर ने वसुधा और शैलेश को बहुत समझाया कि अब दौड़-धूप छोड़ कर व्यवस्थित ज़िंदगी जीने की आवश्यकता है क्योंकि शुगर ख़तरनाक स्तर तक पहुँच चुकी है।
शैलेश ने मज़ाक में डॉक्टर से पूछा, "डॉक्टर साहब विधायक बनने तक तो कुछ नहीं होगा न।"
"शुगर थोड़े ही जानेगी की तुम विधायक हो? वो तो अपना काम करेगी तुम्हें ज़्यादा मिठाई खिलाएगी," डॉक्टर ने भी हँसते हुए जबाब दिया।
वसुधा घर आकर बहुत चिंतित हो गई उसने शैलेश से कहा, "देखिये आप स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही न करें, मैं आप के हाथ जोड़ती हूँ," वसुधा ने लगभग रोते हुए कहा।
“अरे अर्द्धांगिनी तुम तो ऐसे रो रही हो जैसे मुझे कैंसर हो गया है। अरे शुगर ही तो है, पिताजी को पिछले तीस साल से है। उन्हें कुछ हुआ, एक गोली हर दिन सुबह शाम खाना है खाने से पहले बस शुगर ठीक," शैलेश ने बड़ी बेफ़िक्री से वसुधा को समझाया।
उसी समय विधायक जी का फोन आया, “शैलेश भोपाल चलना है, नगर पालिका चुनाव के सम्बन्ध में प्रदेश अध्यक्ष मीटिंग ले रहे हैं।"
शैलेश की बाँछे खिल गईं। उसे इसी पल का इन्तज़ार था। उसे लगा कि नगर पालिका अध्यक्ष की उसकी टिकिट अब पक्की हो गई है। उसने जल्दी से कपड़े पहने और वसुधा से कहा भोपाल जा रहा हूँ। अपने पिताजी को कोई सन्देश तो नहीं देना? वसुधा ने कुछ सामान अपनी माँ के लिए रख दिया। साथ में शैलेश को हिदायत दी की वह समय पर भोजन से पहले शुगर की गोली ज़रूर ले ले। वसुधा बहुत चिंतित थी उसे मालूम था कि शैलेश की दिनचर्या बहुत अस्तव्यस्त है न समय पर खाना न सोना। ऐसे में शुगर का रिस्क ख़तरनाक होता है। लेकिन वह शैलेश के स्वाभाव को जानती थी; वह किसी की बात नहीं मानता।
भोपाल में मुख्यमंत्रीजी, प्रदेश अध्यक्ष, चुनाव प्रभारी सबसे मिलने के बाद शैलेश निश्चिन्त हो गया कि उसकी नगरपालिका अध्यक्ष की टिकिट पक्की है। इसी बीच नगर में मुख्यमंत्री जी का कार्यक्रम रखा गया जिसमें उन्होंने सम्पूर्ण ज़िला को बाह्य शौच मुक्त की घोषणा की। समारोह की पूरी ज़िम्मेवारी और अधिकांश ख़र्च शैलेश और वसुधा ने उठाया। समापन पर मुख्यमंत्री जी ने विधायक जी एवं शैलेश की बहुत तारीफ़ की।
आख़िर नगरपालिका चुनाव की घोषणा हुई। नगर की सीट महिला घोषित हुई; जब टिकिट की लिस्ट आई तो उसमें से वसुधा का नाम ग़ायब था। शैलेश को बहुत ज़बरदस्त झटका लगा, विधायक जी को भी बहुत आश्चर्य हुआ कि उनका अनुमोदन भी ख़ारिज कर दिया गया। पता चला कि जिसे टिकट मिला है उसने पार्टी फ़ंड के साथ-साथ चुनाव प्रभारी को भी भारी राशि से उपकृत किया है। शैलेश का हृदय टूट चुका था वसुधा ने उसे बहुत सांत्वना दी कि जो हुआ वो ठीक है ईश्वर ने कुछ सोच-समझ कर फ़ैसला लिया होगा।
लेकिन शैलेश के पूरे ख़्वाब चकनाचूर हो गए। दिनों-दिन उसका स्वास्थ्य गिरता गया एक दिन पुनः उसे चक्कर आये और ख़ून की उल्टी हुई। अचेत अवस्था में उसे नागपुर ले जाया गया। नागपुर में उसके बहुत सारे टेस्ट हुए डॉक्टर ने रिपोर्ट देख कर वसुधा को बुलाया।
"वसुधा जी बड़े दुःख के साथ आपको बताना पड़ रहा है कि आपके पति की दोनों किडनियाँ ख़राब हो चुकीं हैं। शुगर ने इनके प्रायः सभी अंगों को प्रभावित किया है गर जल्दी से इनका ऑपरेशन नहीं किया गया तो इनके हार्ट को ख़तरा हो सकता है," डॉक्टर ने बहुत गंभीर स्वर में वसुधा को बताया।
वसुधा की आँखों में से झरझर आँसू गिर रहे थे। डॉक्टर ने वसुधा को सांत्वना दी, "फ़िलहाल अभी ख़तरा नहीं है; फिर भी आपको हर आठ दिन में डायलिसिस तो कराना ही पड़ेगा।"
वसुधा को शैलेश से ज़्यादा खुद पर गुस्सा आ रहा था कि उसने शैलेश को रोका क्यों नहीं। क्या वो अपना अर्द्धांगिनी होने का फ़र्ज़ निभा पाई? डॉक्टर से बात करके वसुधा जब शैलेश के पास पहुँची तो माहौल बहुत ग़मगीन था। सबको पता चल चुका था कि समस्या बहुत गंभीर है। परिवार के लोग एक दूसरे को ढाढ़स बँधा रहे थे। वसुधा तो जैसे कि पत्थर की हो चुकी थी; उसने सोचा अगर उसने हिम्मत हार दी तो सब समाप्त हो जायेगा।
"पापाजी आप चिंता न करें डॉक्टर कह रहा था सब ठीक हो जायेगा। कई बार डायलेसिस से भी ठीक हो जाते हैं," वसुधा ने अपने अंतर्मन को कड़ा करते हुए अपने सास-ससुर को हिम्मत बँधाई।
“हाँ बेटी अब तो ईश्वर का ही सहारा है। भगवन करे तेरा सुहाग जल्दी ठीक हो जाये," वसुधा की सास ने रोते हुए वसुधा को गले लगाया।
कुछ महीनों तक शैलेश डायलेसिस पर चलता रहा किन्तु स्वास्थ्य धीरे-धीरे बिगड़ने लगा। पूरे शरीर पर सूजन आने लगी साथ ही साथ अब हर दो दिन में डायलिसिस की ज़रूरत पड़ने लगी, ख़र्च बहुत बढ़ने लगा। धीरे-धीरे शैलेश का साहस भी जबाब देने लगा।
वसुधा उसे हिम्मत देते हुए बोली, "आप धीरज रखो मैं आप को कुछ नहीं होने दूँगी।"
"नहीं वसुधा अब मैं शायद ही ठीक हो पाऊँ। तुम बच्चों का ख़्याल रखना। काश मैं तुम्हारी बात मान लेता," शैलेश रोते हुए बोला।
"क्या आपको अपनी अर्द्धांगिनी पर विश्वास नहीं है; जब तक मैं हूँ आपको कुछ नहीं होगा," वसुधा अंदर से अपने आपको मज़बूत करके बोली।
"नहीं मुझे पूरा विश्वास है तुम पर, मुझे बचा लो वसुधा," शैलेश वसुधा की गोदी में अपना सिर छुपा कर फफक कर रोने लगा।
"चिंता मत करो मेरी विधायक जी से बात हुई है। नगर में तुम्हारे लिए मैंने लोगों से आग्रह किया है कि वो कुछ मदद करें। कुछ आपके पापाजी और मेरे पापाजी सहायता करेंग; मैं आपको बहुत जल्दी स्वस्थ कर लूँगी," वसुधा ने शैलेश के बालों में प्यार से हाथ फेरते हुए कहा।
विधायक एवं शहर के समाज सेवी संगठनों के प्रयासों से शैलेश की किडनी प्रत्यारोपण के लिए रक़म का प्रबंध तो हो गया लेकिन अभी किडनी का प्रबंध नहीं हो सका था। बाहर के लोग बहुत ज़्यादा पैसे माँग रहे थे माँ-पिता जी को शुगर थी और उनकी किडनी उतनी सुरक्षित नहीं थी। आख़िर वसुधा ने निर्णय लिया की वह अपनी किडनी शैलेश को देगी।
वसुधा के मायके वालों ने इस बात का विरोध किया।
"दीदी तुम्हारे सामने पूरी ज़िंदगी पड़ी है। बच्चों को पालना है और क्या भरोसा की इसके बाद भी जीजा जी सुधर जायेंगे। तुम क्यों अपने जीवन का रिस्क ले रही हो," भाई ने वसुधा के निर्णय का पुरज़ोर विरोध किया।
"तो क्या मैं अपने सामने अपना सुहाग उजड़ जाने दूँ?" वसुधा ने भाई से प्रश्न किया।
"नहीं बेटा लेकिन तुम्हें कुछ हो गया या प्रत्यारोपण असफल रहा तो बच्चों का क्या होगा?" पिताजी ने उसे समझाया।
"लेकिन पापा मैं अपने सामने शैलेश को मौत के मुँह में जाते नहीं देख सकती। मैं अपनी अंतिम साँस तक उन्हें बचाने की कोशिश करूँगी," वसुधा ने सबको अपना अंतिम निर्णय सुना दिया।
भोपाल के चिरायु अस्पताल में वसुधा और शैलेश ऑपरेशन थियेटर में थे। क़रीब आठ घंटे तक बॉम्बे से आये डाक्टरों ने शैलेश के शरीर में वसुधा की किडनी का सफल प्रत्यारोपण किया। क़रीब छह माह की सहन चिकित्सा देख-रेख के बाद शैलेश और वसुधा आज अपने घर आ रहे थे। घर में उत्सव का माहौल था; क्योंकि परसों दीपावली थी।
दीपावली के दिन पूरा परिवार ख़ुशियों में डूबा था। शैलेश लकदक नए कुर्ते पैजामे में जम रहा था, वसुधा लाल रंग की साड़ी में दुल्हन जैसी लग रही थी।
शैलेश ने वसुधा को अपने पास खींचते हुए कहा, "अब तुम सही मायने में मेरी अर्द्धांगिनी बनी हो।"
"क्यों क्या पहले नहीं थी?" वसुधा ने मुस्कुराते हुए कहा।
पहले सिर्फ़ रिश्तों में थीं अब तो तुम्हारे अंग से मैं पूरा हुआ हूँ," शैलेश ने वसुधा की गोदी में अपना सिर रखते हुए कहा।
बाहर बच्चों की किलकारियाँ और दीवाली के पटाखों की आवाज़ें आ रही थीं। इधर वसुधा शैलेश के बालों में हाथ फिराते हुए सोच रही थी क्या सावित्री अपने सत्यवान को इसी तरह से यमराज से लड़कर वापिस लाई होगी! उधर शैलेश सोच रहा है कि वाक़ई पुरुष अपनी अर्द्धांगिनी के बिना कितना अधूरा रहता है!
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