सिंदूर रंगा तिरंगा

01-09-2025

सिंदूर रंगा तिरंगा

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)


(सर्वोच्च बलिदान की कहानी) 

 

आषाढ़ की तपती दोपहरी में जब समूचा गाँव अपनी-अपनी झोपड़ियों में दुबका था, तब भी लक्ष्मी की आँखें सड़क पर टिकी थीं। उसका मन रह-रहकर बेचैन हो उठता था। हर आहट पर वह चौंक पड़ती, मानो कोई चिर-परिचित क़दम उसके कानों में गूँज रहा हो। आज पंद्रह अगस्त था, और उसका सुहाग, मेजर विक्रम सिंह, इसी दिन घर लौटने वाला था। पिछले छह महीने से कश्मीर की बर्फ़ीली घाटियों से उसकी कोई ख़बर नहीं थी, सिवाय एक छोटे से ख़त के, जिसमें उसने लिखा था, “लक्ष्मी, इस बार पंद्रह अगस्त को मैं अपने देश के ध्वज के साथ तुम्हारे आँचल तले लौटूँगा। तिरंगा मेरा गौरव है और तुम मेरा सौभाग्य।” 

लक्ष्मी ने अपने माथे पर सिंदूर की लाल रेखा को और गहरा कर लिया। उसे याद आया, जब विक्रम की वर्दी पर पहली बार सितारे सजे थे, तब उसकी आँखें कितनी चमक रही थीं। वह कहती थी, “ये सितारे मेरे सुहाग की पहचान हैं,” और विक्रम हँसकर कहता था, “ये सितारे मेरे देश की आन-बान-शान हैं, और तुम्हारी हँसी मेरे जीवन का चाँद।” 

तभी, द्वार पर एक खटखटाहट हुई। लक्ष्मी का हृदय धक-धक करने लगा। क्या यह विक्रम है? वह अपनी साड़ी का पल्लू ठीक करती हुई भागी, उसके पैरों में एक अनजानी-सी फ़ुर्ती थी। लेकिन द्वार पर वर्दी में खड़े तीन सैनिक थे, और उनके चेहरे पर एक अजीब-सी गंभीरता थी। एक पल के लिए लक्ष्मी को लगा, जैसे किसी ने उसके भीतर का सारा उजाला छीन लिया हो। उसकी साँसें अटक गईं। 

“जय हिंद भाभी जी,” उनमें से एक ने धीरे से कहा। 

लक्ष्मी ने उनके चेहरे पर कुछ खोजने की कोशिश की, कुछ ऐसा जो उसे दिलासा दे सके। पर वहाँ केवल निराशा का एक घना कोहरा था। 

“विक्रम कहाँ है? वह नहीं आया? क्या वह ठीक है?” लक्ष्मी ने एक ही साँस में कई सवाल पूछ डाले। 

सैनिकों ने एक-दूसरे की ओर देखा। उनकी आँखों में वही वेदना थी, जो हज़ारों युद्धों में वीरों को खोने वाले परिवारों के लिए होती है। 

एक सैनिक ने संदूक से लिपटा हुआ एक तिरंगा निकाला। उसकी तहें बहुत क़रीने से लगी थीं, मानो किसी ने उसे बहुत सँभालकर रखा हो। लक्ष्मी का मन चीख उठा। वह जानती थी कि यह तिरंगा केवल एक ध्वज नहीं, बल्कि एक अंतिम संदेश था, एक अंतिम सम्मान था। 

“भाभी जी, मेजर विक्रम सिंह ने देश की रक्षा करते हुए सर्वोच्च बलिदान दिया है।” 

शब्द कानों में पड़े, पर उनका अर्थ समझने के लिए लक्ष्मी का मन तैयार नहीं था। वह पीछे हट गई, जैसे किसी अदृश्य दीवार से टकरा गई हो। उसके हाथ से पूजा की थाली छूटकर गिर पड़ी, और फूल बिखर गए। 

“यह झूठ है,” उसने फुसफुसाते हुए कहा। “यह झूठ है। उसने कहा था वह आएगा। उसने वादा किया था . . .” 
उसकी आवाज़ में दर्द था, जो किसी भी शब्द से अधिक गहरा था। 

सैनिक ने धीरे-धीरे उसे समझाया कि कैसे एक आतंकवादी घुसपैठ के दौरान, मेजर विक्रम सिंह ने अपनी टुकड़ी को सुरक्षित निकाला, लेकिन ख़ुद एक सुरंग में फँस गए। उन्होंने अपने साथियों को बचाने के लिए ख़ुद को बलिदान कर दिया, ताकि दुश्मन आगे न बढ़ सकें। 

लक्ष्मी की आँखों के सामने विक्रम का चेहरा घूम गया, जो हमेशा हँसता रहता था। वह याद करने लगी, जब उनकी शादी हुई थी, तब विक्रम ने उसे कहा था, “लक्ष्मी, मेरा प्रेम तुम्हारे लिए उतना ही गहरा है, जितना इस देश के प्रति मेरा कर्त्तव्य।” और उसने आज अपने कर्त्तव्य को अपने प्रेम से ऊपर रखा था। 

उसने अपने आँसू पोंछे और संदूक से लिपटा हुआ तिरंगा अपने हाथों में लिया। वह तिरंगा ठंडा था, पर उसकी आत्मा में एक आग जल रही थी। उसने उसे अपनी छाती से लगा लिया, जैसे वह विक्रम को आख़िरी बार गले लगा रही हो। उसकी आँखों में अब आँसू नहीं, बल्कि एक गौरवपूर्ण चमक थी। 

“मेरे पति ने अपना वादा निभाया,” उसने शांत स्वर में कहा। “वह तिरंगे के साथ ही लौटे हैं। यही उनका घर है, यही उनका जीवन था।” 

उन सैनिकों ने देखा कि लक्ष्मी की आँखों में आँसू की जगह अब एक दृढ़ता थी। उसने अपने माथे पर लगी लाल बिंदी को छुआ और फिर अपनी अनामिका उँगली से उस तिरंगे को छुआ। उसका मन चीत्कार कर रहा था, पर उसका चेहरा शांत था। 

“वह हमेशा कहते थे कि देश का मान सबसे ऊपर है,” उसने सैनिकों की ओर देख़ते हुए कहा। “आज उन्होंने उसे सिद्ध कर दिखाया। मुझे उन पर गर्व है।” 

शाम ढल चुकी थी। गाँव के लोग धीरे-धीरे लक्ष्मी के घर के बाहर जमा हो रहे थे। सब की आँखों में नमकीन पानी था, पर लक्ष्मी की आँखों में एक अजीब सा सुकून था। वह घर के आँगन में बैठ गई, और अपनी गोद में वह तिरंगा रख लिया। हवा में वह तिरंगा फहरा रहा था, और उसकी एक-एक लहराहट में विक्रम की शौर्य-गाथा गूँज रही थी। 

पंद्रह अगस्त की शाम, जब पूरा देश स्वतंत्रता का जश्न मना रहा था, तब एक पत्नी ने अपने सुहाग के बलिदान को सहर्ष स्वीकार कर लिया था। उसके लिए, यह केवल एक व्यक्तिगत क्षति नहीं थी, बल्कि एक ऐसा बलिदान था, जो राष्ट्र के गौरव को और भी उज्ज्वल कर गया था। 

वह जानती थी कि विक्रम अब हमेशा उसके साथ है, इस मिट्टी में, इस हवा में और इस लहराते हुए तिरंगे में। 
उसने अपने मन में दोहराया, “विक्रम, आज तुम सच में मेरे लिए चाँद बन गए हो। जो चला गया, पर जिसका प्रकाश हमेशा रहेगा।” और फिर, उसके होंठों पर एक हल्की सी मुस्कान आ गई। 

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