बुआ की राखी

15-08-2025

बुआ की राखी

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 282, अगस्त प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

(रक्षाबंधन के रिश्तों को जोड़ती कहानी-सुशील शर्मा) 

 

शहर के शोर-शराबे से दूर, एक शांत गली में बसा था रामनाथ का पुराना घर। घर क्या था, रिश्तों की एक जीती-जागती हवेली थी, जिसकी नींव में स्नेह और दीवारों पर यादों का प्लास्टर चढ़ा था। रामनाथ, सेवानिवृत्त हेडमास्टर, अपनी पत्नी सुमित्रा और दो बेटों, विवेक और अमित, के साथ रहते थे। उनके जीवन का केंद्र उनकी इकलौती बहन, रमा, थी। रमा, जो रामनाथ से दस साल छोटी थी, उनके लिए सिर्फ़ बहन नहीं, बेटी भी थी। 

रमा का विवाह एक छोटे से गाँव में हुआ था। गाँव और शहर की दूरियाँ, व्यस्त जीवनशैली और आर्थिक मजबूरियाँ, ये सब धीरे-धीरे रिश्तों की डोर को कमज़ोर कर रहे थे। एक समय था जब राखी के दिन रमा पूरे परिवार के लिए महीनों पहले से तैयारी करती थी। उसके हाथों की बनी मिठाइयों की सुगंध पूरे घर में फैल जाती थी और उसके लाड़-दुलार से भरा स्पर्श हर भाई को एक अलग ही ख़ुशी देता था। लेकिन, समय के साथ सब कुछ बदल गया। 

इस साल भी राखी का दिन नज़दीक था। सुमित्रा, रसोई में काम करते हुए रामनाथ से बोलीं, “जी, इस बार रमा आएगी न? विवेक और अमित तो अब बड़े हो गए हैं, पर रमा के बिना राखी का त्योहार अधूरा लगता है।”

रामनाथ की आँखों में एक उदासी तैर गई। “कहना तो मुश्किल है, सुमित्रा। अब गाँव में भी खेती का काम बढ़ गया है, उसके पति की तबीयत भी ठीक नहीं रहती। क्या पता आ पाए या नहीं।”

अमित, जो अपने कमरे से बाहर निकला, बोला, “पिताजी, अब तो फोन का ज़माना है। आप उन्हें फोन पर ही राखी बँधवा लीजिए। अब इतना भी क्या इंतज़ार करना।”

विवेक, जो शांत स्वभाव का था, बोला, “अमित, बुआ की राखी सिर्फ़ एक धागा नहीं है। वह उनके प्रेम और त्याग का प्रतीक है। तुम नहीं समझोगे।”

रामनाथ ने उदासी से सिर हिलाया। “विवेक सही कह रहा है। एक धागा ही तो है, पर उस धागे में पूरे साल का स्नेह, उम्मीद और इंतज़ार बँधा होता है।”

उसी शाम रामनाथ ने रमा को फोन किया।

”कैसी हो, रमा?” उनकी आवाज़ में एक अनकही व्यथा थी। 

“मैं ठीक हूँ, भैया। आप सब कैसे हैं?” रमा की आवाज़ में भी थकान और चिंता साफ़ झलक रही थी। 

“हम सब ठीक हैं। राखी आ रही है . . .” रामनाथ ने अटकते हुए कहा। 

“हाँ, भैया। मुझे याद है। पर इस बार . . .” रमा की आवाज़ भर्रा गई। “इस बार आना मुश्किल है। मेरे पति की तबीयत ठीक नहीं रहती और खेती का काम भी सर पर है। मैं आपकी भाभी और बच्चों से माफ़ी चाहती हूँ।”

रामनाथ का दिल टूट गया। वह जानते थे कि रमा के लिए यह फ़ैसला कितना मुश्किल होगा। उन्होंने कहा, “रमा, तुम चिंता मत करो। तुम वहाँ ख़ुश रहो, यही हमारे लिए सबसे बड़ी राखी है।”

परन्तु, रामनाथ जानते थे कि यह झूठ था। उनकी आँखों में आँसू थे, जो उन्होंने रमा से छुपाए। रात भर उन्हें नींद नहीं आई। उन्हें अपनी बचपन की रमा याद आई, जो उनके पीछे-पीछे घूमती थी और उनकी हर बात मानती थी। उन्हें याद आया जब रमा की शादी हुई थी और वह रोते-रोते उनसे लिपट गई थी। 

राखी का दिन आ गया। घर में थोड़ी चहल-पहल तो थी, पर एक उदासी की चादर सब पर बिछी थी। सुमित्रा ने विवेक और अमित को राखी बाँधी। सबने आपस में कुछ मीठा खाया, पर दिल में एक ख़ालीपन था। 

अचानक, घर के दरवाज़े पर एक रिक्शा रुका। एक दुबली-पतली, साड़ी पहने महिला रिक्शा से उतरी। उसके चेहरे पर थकान साफ़ झलक रही थी, पर आँखों में एक चमक थी। यह रमा थी। 

विवेक और अमित दोनों दौड़कर बाहर आए। “बुआ!” दोनों ने एक साथ पुकारा। 

रमा ने दोनों को गले लगाया। उसकी आँखें नम थीं। “तुम दोनों कितने बड़े हो गए हो।”

रामनाथ और सुमित्रा भी बाहर आए। रामनाथ ने देखा, रमा के हाथ में एक छोटी सी पोटली थी। 

“रमा, तुम . . . तुम कैसे आ गई?” रामनाथ की आवाज़ में आश्चर्य और प्रेम दोनों थे। 

“भैया, मैं न आती तो क्या करती? राखी का दिन और मैं अपने भाइयों से दूर रहूँ, ऐसा कैसे हो सकता है?” रमा की आवाज़ में एक दृढ़ता थी। “मुझे बस में सीट नहीं मिली तो खड़ी होकर आई हूँ। पर मुझे कोई थकान नहीं है।”

रमा अंदर आई। उसने सुमित्रा के पैरों को छुआ। “भाभी, मुझे माफ़ कर देना। आने में देर हो गई।”

सुमित्रा की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने रमा को गले लगाया। “अरे पगली, तू आ गई, यही बहुत है। तेरे आने से घर में रौनक़ आ गई।”

रमा ने पोटली खोली। उसमें दो राखियाँ थीं, जो उसने ख़ुद अपने हाथों से बनाई थीं। एक रामनाथ के लिए, एक विवेक और अमित के लिए। उसने राखी की थाली सजाई, जिसमें चंदन, रोली, चावल और एक छोटी सी मिठाई का टुकड़ा था। 

सबसे पहले उसने रामनाथ को राखी बाँधी।

“भैया,” उसकी आवाज़ में भावनाओं का सैलाब उमड़ पड़ा। “यह सिर्फ़ एक धागा नहीं है। यह मेरे बचपन की यादें हैं, आपका मेरे लिए लाड़-दुलार है, आपका मुझ पर विश्वास है। यह एक बहन का प्रेम है, जो कभी नहीं मर सकता।”

रामनाथ की आँखों से आँसू बह निकले। उन्होंने रमा का माथा चूमा। “तू आ गई, मेरी बहन। तूने मेरा मान रख लिया।”

फिर रमा ने विवेक और अमित को राखी बाँधी। “विवेक, अमित,” उसने कहा, “तुम दोनों मेरे बच्चे हो। तुम दोनों हमेशा ख़ुश रहो और एक-दूसरे का ख़्याल रखना।”

विवेक ने कहा, “बुआ, तुम हमारी माँ की तरह हो। तुम आज आई हो, अब हमें हर साल आना होगा। हम तुम्हारा इंतज़ार करेंगे।”

अमित, जो शुरूआत में थोड़ा बेपरवाह था, अब उसकी आँखों में भी नमी थी। उसने बुआ के पैर छुए। “बुआ, मुझे माफ़ कर देना। मैंने आज तक राखी के महत्त्व को नहीं समझा था। पर आज समझ गया हूँ।”

रमा मुस्कुराई। “अब तुम दोनों भी बड़े हो गए हो। अब तुम्हारी बारी है, इस राखी की परंपरा को आगे बढ़ाने की।”

शाम को जब रमा जाने लगी, तो पूरे घर में एक अजीब सी शान्ति छा गई। रामनाथ ने उसे रिक्शे तक छोड़ा। 

रमा ने मुड़कर कहा, “भैया, इस राखी ने मुझे और आपसे ही नहीं, पूरे परिवार को जोड़ दिया है। यह सिर्फ़ एक धागा नहीं है, यह एक वादा है, एक विश्वास है कि हम चाहे कितने भी दूर हों, हमारा रिश्ता कभी नहीं टूटेगा।”

रामनाथ ने हाँ में सिर हिलाया। रमा रिक्शे में बैठ गई। जैसे-जैसे रिक्शा आगे बढ़ा, रामनाथ को लगा कि उनकी आत्मा का एक हिस्सा भी उसके साथ जा रहा है। पर उनके दिल में एक सुकून था। एक सुकून जो वर्षों के इंतज़ार और स्नेह से मिला था। वह जानते थे कि बुआ की राखी केवल एक धागा नहीं, बल्कि अनगिनत भावनाओं, त्याग और अटूट प्रेम का प्रतीक है, जो हमेशा उनके और उनके परिवार के साथ रहेगा।

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