मिठाइयों में बसा मनुष्य का मनोविज्ञान
डॉ. सुशील कुमार शर्मा
(एक तीखा व्यंग्य-सुशील शर्मा)
दीपावली का आगमन भारतीय घरों में केवल दीपों की पंक्तियाँ नहीं लाता, बल्कि संबंधों, नैतिकता और मानवीय स्वभाव के एक गूढ़ दर्शन को भी उजागर करता है। हमारे बुज़ुर्ग जिनका मधुर दर्शन जीवन की व्यावहारिकता में भी काव्य खोज लेता था, दीपावली के आगमन पर हमें मिठाइयों के माध्यम से जीवन का सार समझाते थे। उनका वह दर्शन जहाँ रसगुल्ला लचीलापन सिखाता था, जलेबी आंतरिक रस का महत्त्व बताती थी, और काजू कतली आत्म-सम्मान की क़ीमत समझाती थी वास्तव में आदर्शों का एक अक्षय कोष था।
किंतु, व्यंग्य की विभीषिका यह है कि आज के सामाजिक ताने-बाने और मनुष्य के सूक्ष्म मनोविज्ञान ने इन मधुर दर्शनों को तोड़-मरोड़कर अपने स्वार्थ-सिद्धि का हथियार बना लिया है। आज मिठाइयों के ये सिद्धांत उस बाज़ार के नियम बन गए हैं, जहाँ आदर्शों की नहीं, बल्कि अवसरवादिता की बोली लगती है।
रसगुल्ले का लचीलापन सदा ही सत्ता और बेशर्मी का प्रत्यावर्तन की ओर संकेत करता है, बुज़ुर्ग कहते थे कि रसगुल्ला कहता है कि “आप हमें चाहें जितना निचोड़ो, लेकिन थोड़ी देर बाद हम अपने स्वरूप में आ जाएँगे।” यह सिद्धांत जीवन में अनिवार्य लचीलेपन और प्रत्यावर्तन की क्षमता को दर्शाता है।
आधुनिक समाज ने इस लचीलेपन को बेशर्मी का कवच बना लिया है। आज सत्ता के गलियारों में, व्यापार के अखाड़ों में और यहाँ तक कि सामाजिक विवादों में भी, यह रसगुल्ला दर्शन सबसे अधिक फलता-फूलता है। एक नेता पर भ्रष्टाचार का आरोप लगता है, मीडिया उसे निचोड़ता है, सामाजिक निंदा की आँधी आती है, लेकिन कुछ समय बाद वह फिर से अपने ‘स्वरूप‘—यानी अपनी कुर्सी और अपने प्रभाव—में वापस आ जाता है।
मनुष्य का मनोविज्ञान आज सीख गया है कि ग़लती या अपराध मायने नहीं रखता; मायने रखती है पद की ‘सिरप’ (पद की चाशनी) और सत्ता की ‘संरचना’ (स्वरूप)। रसगुल्ला इसलिए नहीं लौटता कि वह पवित्र है, बल्कि इसलिए कि वह ‘चाशनी’ में सराबोर है। यह व्यंग्य है उस सामाजिक व्यवस्था पर, जहाँ ‘सत्य’ निचोड़ दिया जाता है और ‘सत्ता’ अपनी जगह वापस लौट आती है, क्योंकि उसका लचीलापन अब उसकी निर्लज्जता बन चुका है।
हैसियत का रस और टेढ़ापन लिए जलेबी के बारे में बुजुर्गों का दर्शन था कि “आपका स्वरूप मायने नहीं रखता, आपके भीतर रस है तो दुनिया आपकी इज़्ज़त करेगी।” यह दर्शन आंतरिक गुणवत्ता और योग्यता को प्राथमिकता देता है।
जलेबी की बात सही थी—स्वरूप मायने नहीं रखता, पर आज ‘रस’ मायने रखता है, और आज का ‘रस’ योग्यता नहीं, हैसियत है। सामाजिक सम्बन्ध आज इसी विरोधाभास पर टिके हैं। जलेबी का टेढ़ा-मेढ़ा स्वरूप इस बात का प्रतीक है कि आज का सफल जीवन कितना जटिल, पाखंडी और समझौते भरा है।
व्यक्ति का चरित्र भले ही टेढ़ा हो, उसका व्यवहार भले ही उलझा हुआ हो, लेकिन यदि उसके पास धन का ‘रस‘, पहुँच का ‘रस’ और प्रभाव का ‘रस’ है, तो दुनिया उसके आगे नतमस्तक होती है। समाज उस जलेबी की टेढ़ी चालों को नहीं देखता, वह केवल उसकी चाशनी की चमक को देखता है। यह व्यंग्य है उस लेन-देन वाले पाखंड पर, जहाँ लोग योग्यता को नहीं, बल्कि उसके पीछे छिपी शक्ति को सम्मान देते हैं।
बूँदी के लड्डू मनुष्य में त्वरित सफलता और छोटे प्रयासों की महत्ता सिखाते हैं, बूँदी का लड्डू हमें सिखाता था कि “छोटे छोटे प्रयासों से भी बड़ा बना जा सकता है।” यह धैर्य, श्रम और क्रमबद्धता का दर्शन था।
आज के ‘क्विक फ़िक्स’ के युग में यह लड्डू दर्शन उपहास का पात्र बन गया है। मनुष्य का मनोविज्ञान तत्काल संतुष्टि का ग़ुलाम है। कोई ‘बूँदी’ बनकर धीरे-धीरे ‘लड्डू’ नहीं बनना चाहता। हर कोई ‘जादुई पाउडर’ खोज रहा है जो रातों-रात सफलता का लड्डू बना दे—चाहे वह त्वरित प्रसिद्धि हो, क्रिप्टोकरेंसी में अचानक लाभ हो, या शॉर्टकट से सरकारी पद हथियाना।
जो व्यक्ति छोटे-छोटे, ईमानदार प्रयास कर रहा है, उसे ‘पिछड़ा’ या ‘नासमझ’ क़रार दिया जाता है। समाज उन ‘बूँदियों’ की उपेक्षा करता है जो धैर्यपूर्वक काम कर रही हैं, और केवल उन ‘लड्डुओं’ को पूजता है जिनकी बाहरी चमक उधार की है या जिनके भीतर की बूँदी बेईमानी से भरी है। यह व्यंग्य है उस अधैर्य संस्कृति पर, जिसने श्रम के मूल्य को कम करके त्वरित, सतही सफलता को सर्वोपरि मान लिया है।
बुजुर्ग कहते थे सोन पापड़ी जैसा अस्तित्व होना चाहिए जहाँ औपचारिकता और सम्बन्धों का बोझ और मजबूर उपस्थिति निभाने का साहस हो
सोन पापड़ी का दर्शन है “कोई पूछे या न पूछे, हम पहले भी थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे।” यह एक तरह की शाश्वत उपस्थिति और आत्म-सम्मान का प्रतीक था।
आज समाज में सोन पापड़ी उस सामाजिक औपचारिकता का प्रतीक बन गई है, जो सम्बन्धों पर बोझ बन जाती है। दीपावली पर यह मिठाई एक घर से दूसरे घर, एक रिश्तेदार से दूसरे रिश्तेदार तक, सामाजिक दायित्व की एक रिले रेस की तरह दौड़ती है। यह वह मिठाई है जो न कोई ख़ुशी से ख़रीदता है, और न कोई ख़ुशी से खाता है—परंतु यह ‘उपस्थित’ अवश्य रहती है।
सोन पापड़ी की यह मजबूरी भरी उपस्थिति आज के कई सामाजिक सम्बन्धों का सटीक वर्णन है। कई रिश्ते केवल इसलिए क़ायम हैं क्योंकि वे ‘पहले भी थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे‘—भावनाओं या प्रेम के कारण नहीं, बल्कि परंपरा या मजबूरी के कारण। यह व्यंग्य है उस खोखली औपचारिकता पर, जहाँ प्रेम का आदान-प्रदान नहीं, बल्कि दायित्वों का हस्तांतरण होता है।
काजू कतली की ‘मर्सिडीज़’ वाली क़ीमत, आत्म-मूल्य का बाज़ारीकरण है काजू कतली सिद्धांत, सबसे तीखा और प्रासंगिक है: “आप अपने आपको इतना सस्ता नहीं करिए कि रास्ते से गुज़र रहा व्यक्ति आपके भाव जान सके, बल्कि आपकी गुणवत्ता इतनी अच्छी होनी चाहिए कि मर्सिडीज़ से उतरकर आदमी को शोरूम में जाना पड़े।”
आज मनुष्य के आत्म-मूल्य का पूर्णतः बाज़ारीकरण हो चुका है। हर कोई ‘काजू कतली’ बनना चाहता है, लेकिन आंतरिक गुणवत्ता के लिए नहीं, बल्कि ‘मर्सिडीज़’ वाले सम्मान के लिए। आज व्यक्ति ख़ुद को जानबूझकर दुर्लभ (Exclusive) बनाता है। वह सोशल मीडिया पर अपनी पहुँच, अपने सम्बन्ध, और अपनी व्यस्तता को इस तरह दिखाता है, ताकि दूसरा व्यक्ति यह महसूस करे कि वह ‘सस्ता’ नहीं है, और उससे सम्बन्ध बनाना ‘शोरूम’ में जाने जैसा एक महँगा सौदा है।
यह व्यंग्य है उस स्टेटस सिंड्रोम पर, जहाँ मित्रता, सहायता और प्रेम जैसे भावों की क़ीमत भी काजू कतली की तरह ऊँची रखी जाती है। लोग उस सम्बन्ध की क़द्र नहीं करते जो उन्हें आसानी से उपलब्ध हो जाए (रास्ते का भाव), बल्कि उसी को सम्मान देते हैं जो उन्हें कठिनाई से, ‘शोरूम’ की क़ीमत चुकाकर, प्राप्त हो। यह मनुष्य के उस हीन भावना से जन्मे अहंकार का चित्रण है, जो अपने मूल्य को आंतरिक विकास से नहीं, बल्कि बाहरी अस्वीकार्यता से परिभाषित करता है।
मिठास का तिरस्कार और जीवन का कड़वा सच बुजुर्गों की मिठाइयों का दर्शन एक सुंदर नैतिक ब्लूप्रिंट था, लचीले बनो (रसगुल्ला), चरित्रवान बनो (जलेबी), परिश्रमी बनो (लड्डू), और आत्म-सम्मानित रहो (सोन पापड़ी), तथा गुणवत्ता ही तुम्हारी पहचान हो (काजू कतली)।
लेकिन आज का समाज इस दर्शन को उलट देता है, सत्ता में लचीले बनो, टेढ़ेपन से हैसियत कमाओ, त्वरित सफलता पर इतराओ, और अपने मूल्य को इतना ऊँचा कर दो कि साधारण व्यक्ति तुम्हें छू भी न सके।
यही हमारे समाज के ताने-बाने का कड़वा सच है। मिठाइयों की मिठास आज भी क़ायम है, पर मनुष्य के स्वभाव का मनोविज्ञान उस मिठास का तिरस्कार करके, उसे अपने स्वार्थ के लिए साधन बना रहा है। पिता जी का दर्शन आज एक सुंदर आदर्श है, पर हमारी सामाजिक यात्रा का यथार्थ उससे कहीं अधिक कड़वा और तीखा है।
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- गणतंत्र दिवस
- दुर्मिल सवैया – डॉ. सुशील कुमार शर्मा – 001
- प्रदूषण और पर्यावरण चेतना
- शिव वंदना
- सायली छंद - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - चाँद
- सोशल मीडिया और युवावर्ग
- होली पर कुण्डलिया
- गीत-नवगीत
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- अखिल विश्व के स्वामी राम
- अच्युत माधव
- अनुभूति
- अब कहाँ प्यारे परिंदे
- अब का सावन
- अब नया संवाद लिखना
- अब वसंत भी जाने क्यों
- अबके बरस मैं कैसे आऊँ
- आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
- आज से विस्मृत किया सब
- इस बार की होली में
- उठो उठो तुम हे रणचंडी
- उर में जो है
- कि बस तुम मेरी हो
- कृष्ण मुझे अपना लो
- कृष्ण सुमंगल गान हैं
- गमलों में है हरियाली
- गर इंसान नहीं माना तो
- गुरु पूर्णिमा पर गीत
- गुलशन उजड़ गया
- गोपी गीत
- घर घर फहरे आज तिरंगा
- चला गया दिसंबर
- चलो होली मनाएँ
- चढ़ा प्रेम का रंग सभी पर
- ज्योति शिखा सी
- झरता सावन
- टेसू की फाग
- तुम तुम रहे
- तुम मुक्ति का श्वास हो
- दिन भर बोई धूप को
- धरती बोल रही है
- नया कलेंडर
- नया वर्ष
- नव अनुबंध
- नववर्ष
- फागुन ने कहा
- फूला हरसिंगार
- बहिन काश मेरी भी होती
- बेटी घर की बगिया
- बोन्साई वट हुए अब
- भरे हैं श्मशान
- मतदाता जागरूकता पर गीत
- मन का नाप
- मन को छलते
- मन गीत
- मन बातें
- मन वसंत
- मन संकल्पों से भर लें
- महावीर पथ
- मैं दिनकर का वंशज हूँ – 001
- मैं दिनकर का वंशज हूँ – 002
- मौन गीत फागुन के
- मज़दूर दिवस पर गीत
- यूक्रेन युद्ध
- वयं राष्ट्र
- वसंत पर गीत
- वासंती दिन आए
- विधि क्यों तुम इतनी हो क्रूर
- शस्य श्यामला भारत भूमि
- शस्य श्यामली भारत माता
- शिव
- श्रावण
- सत्य का संदर्भ
- सुख-दुख सब आने जाने हैं
- सुख–दुख
- सूना पल
- सूरज की दुश्वारियाँ
- सूरज को आना होगा
- स्वागत है नववर्ष तुम्हारा
- हर हर गंगे
- हिल गया है मन
- ख़ुद से मुलाक़ात
- ख़ुशियों की दीवाली हो
- कविता - क्षणिका
- स्वास्थ्य
- स्मृति लेख
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- ऐतिहासिक
- बाल साहित्य कविता
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- अरे गिलहरी
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - ठंड
- गर्मी की छुट्टी
- चिड़िया का दुःख
- चिड़िया की हिम्मत
- पतंग
- पानी बचाओ
- बादल भैया
- बाल कविताएँ – 001 : डॉ. सुशील कुमार शर्मा
- बेचारा गोलू
- मुनमुन गिलहरी
- मैं कुछ ख़ास बनूँगा
- मैं ही तो हूँ— तुम्हारे भीतर
- लोरी
- लौकी और कद्दू की लड़ाई
- हम हैं छोटे बच्चे
- होली चलो मनायें
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