जाको राखे सांइयाँ

01-09-2021

जाको राखे सांइयाँ

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 188, सितम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

अमित की पदस्थापना ज़िले से क़रीब 70 किलोमीटर दूर एक पर्वतीय स्थल, जो कि बहुत दुर्गम क्षेत्र था, में थी। उस क्षेत्र में कई रहस्यमयी किंवदंतियाँ प्रचलित थीं, जो कभी-कभी अमित के मानसपटल पर दस्तक देती रहतीं थीं। एक दिन शाम को क़रीब सात बजे ज़िला स्तर से सन्देश मिला कि कल सुबह १० बजे एक अर्जेंट मीटिंग में अमित को उपस्थित होना है। अब अमित के सामने एक बहुत बड़ा संकट था; रात को कैसे ज़िला में पहुँचा जाए? अमित के पास कोई साधन था नहीं। वहाँ से 30 किलोमीटर दूर अमित का एक दोस्त रहता था जिसके पास मोटर साइकिल थी। अमित ने उससे संपर्क साधा और उसने अमित से कहा कि "कैसे भी करके रात को तुम मेरे पास आ जाओ सुबह जल्दी से हम लोग ज़िला मीटिंग अटेंड करने चलेंगे।" अमित ने रात को क़रीब दस बजे अपने कार्यालय स्थल से अपने दोस्त के घर, जो कि क़रीब 30 किलोमीटर था जाने का फ़ैसला लिया। रास्ते में बहुत घना जंगल था किन्तु नौकरी की दुश्वारियाँ अमित के आत्मविश्वास को नहीं डिगा पाईं। अमित ने कड़ा मन करके अपने दस्तावेज़ रखे और माँ का स्मरण करके निकल पड़ा। 

अँधेरे में रास्ता बहुत अनजान और रहस्यमयी लग रहा था। बड़े-बड़े वृक्ष, झाड़-झंखार, झींगुरों की आवाज़ें और बीच-बीच में पक्षियों के फड़फड़ाने की आवाज़ें मन में सिहरन पैदा कर रहीं थीं। लेकिन अमित कड़ा मन करके अपने रास्ते पर बढ़ा जा रहा था। अचानक एक बहुत ज़ोरदार दहाड़ से अमित आपाद मस्तक काँप उठा। बाजू की झाड़ी में से एक विशालकाय आकृति निकल कर सामने खड़ी थी। अमित के सामने एक बब्बर शेर खड़ा था; वह गुर्राता हुआ धीरे-धीरे अमित की ओर बढ़ रहा था। अमित को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? डर के कारण उसके हाथ से टॉर्च छूट गई थी और अमित क़रीब बेहोश होने की हालत में था।

दोनों के बीच में लगभग पंद्रह फ़ीट का फ़ासला था। अचानक, शेर अमित के ऊपर छलांग लगाने ही वाला था, अमित ने डर से आँख बंद कर लीं उसने सोचा अब सब समाप्त है। लेकिन उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब अमित ने देखा एक धवल रंग की आकृति अमित और शेर के बीच में ज्योतिस्वरूप खड़ी हो गई। उस आकृति का कोई स्वरूप नहीं था जैसे सूर्य की कई किरणें मिलकर एक सरल रेखा की आकृति में ऊपर से नीचे की ओर खड़ी हो जाए। उस ज्योतिपुञ्ज को देख कर शेर जैसे भीगी बिल्ली बन गया और तुरंत उस जगह से भागा। अमित अभी भी बेसुध सा उस ज्योतिपुंज को देख रहा था धीरे-धीरे अमित के ऊपर बेहोशी छा गई और जब आँख खुली तो उसने देखा वह अपने दोस्त के घर पलंग पर लेटा है ।

"अरे मैं यहाँ कैसे आ गया?" अमित ने अपने दोस्त से पूछा। "मैं तो वहाँ जंगल में था . . . वो शेर . . .वो . . ." अमित के मुँह से आवाज़ नहीं निकल रही थी।

"अरे तुम्हें एक फ़ॉरेस्ट ऑफ़िसर यहाँ छोड़ गए, रास्ते में तुम उन्हें बेहोश पड़े मिले थे। शायद चक्कर आ गया था तुम्हें; उसी समय वो पेट्रोलिंग करते हुए शहर की ओर जा रहे थे," अमित के दोस्त ने अमित से कहा।

"लेकिन उन्हें कैसे मालूम कि मुझे तुम्हारे पास आना है," अमित के मन में अभी भी रात की एक-एक घटना चलचित्र की भाँति चल रही थी।

"मैंने भी उनसे यही प्रश्न किया था। उन्होंने कहा जहाँ तुम बेहोश हुए थे तो एक बुढ़िया, जिसकी पास में ही झोपड़ी थी, वह पास आ गई और वो उसे उस झोपड़ी में प्राथमिक उपचार के लिए ले गए। वहीं दस्तावेज़ों में तुम्हारा पता उन्हें मिला और उस आधार पर वो तुम्हें मेरे घर छोड़ गए," अमित के दोस्त ने विस्तार से अमित की जिज्ञासा को शांत किया।

"और एक ख़ुश ख़बरी है तुम्हारे लिए; ज़िला स्तर की बैठक अब केंसिल हो गई है। रात को मुझे मेसेज मिला; अब तुम आराम करो दोपहर में मैं तुम्हें वापिस गाँव पहुँचा दूँगा," अमित के दोस्त ने उत्साहपूर्वक ये ख़बर अमित को सुनाई।

अमित का मन अभी भी उथल-पुथल से भरा था क्योंकि न तो अमित ने अपने दोस्त का पता दस्तावेज़ों में रखा था, न किसी को बताया था। फिर उन्हें ये पता किसने दिया? इसी उथल-पुथल में दोपहर हो गई अमित और उसका दोस्त भोजन करके वापिस गाँव के लिए रवाना हो गए।

ये लोग उस जगह पर पहुँचे जहाँ ये घटना रात को घटित हुई थी। वहाँ पर शेर के पाँव के चिह्न स्पष्ट देखे जा सकते थे। साथ ही पास के खेत में एक टूटी झोंपड़ी भी थी, जो बिलकुल सुनसान पड़ी थी। जिज्ञासावश अमित और उसका दोस्त उस झोपड़ी में पहुँचें तो देखा वहाँ पर कोई नहीं था। आसपास देखा दूर-दूर तक किसी मनुष्य के रहने के कोई चिह्न उस झोपड़ी में नहीं थे। हाँ, उस झोपड़ी में घासफूस की दीवार पर एक माँ काली का बहुत पुराना कटा-फटा चित्र बेतरतीब तरीक़े से लटका था। अमित ने अपने दोस्त की नज़र बचा कर उस चित्र को मोड़ कर अपनी जेब में रखा और चुपचाप घर वापिस आ गया। रात्रि को जब अमित बैठ कर दुर्गा सप्तशती का पाठ कर रहा था तो उस चित्र को अपने सामने रखा और जैसे ही अमित ने आँख बंद करके सप्तशती के श्लोक बोलने शुरू किये अचानक वही ज्योतिपुञ्ज उस चित्र में से निकल कर अमित के मानसपटल को उद्दीप्त कर गया। अमित के मुँह से सिर्फ़ यही निकला ’जाको राखे सांइयाँ मार सके न कोय’ उसकी आँखों से अविरल अश्रुधार बह रही थी। माँ के प्रति एक असीम स्नेह उमड़ रहा था जैसे एक शिशु अपनी माँ से मिलने को आतुर हो; वही भाव अमित के अंदर उद्वेलित हो रहे थे। उसे लगा उसका और माँ का यह रहस्यमय रिश्ता कई जन्मों से कई जन्मों तक अविरल व अक्षुण्ण है।

(यह कहानी 30 वर्ष पूर्व के संस्मरण पर आधारित है)

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