धराली की पुकार

15-08-2025

धराली की पुकार

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 282, अगस्त प्रथम, 2025 में प्रकाशित)


(धराली विनाश पर एक कविता - सुशील शर्मा)
 
चौंतीस सेकंड
बस इतना सा समय,
खीरगंगा का प्रचंड अट्टहास
और धराली का एक हिस्सा
धरती पर से मिट गया।
बादल,
जो बरसने के लिए आते हैं,
इस बार टूटकर गिरे,
मानो आकाश ने
अपना पूरा भार
धरती पर फेंक दिया हो।
 
सड़कें चीख उठीं,
घर तिनकों की तरह
धार में बह गए,
हँसते आँगन,
बच्चों की किलकारियाँ,
एक ही पल में
मौन हो गईं।
 
कितने लोग
बाज़ार देखने निकले थे,
कितनों ने
चाय की भाप में
अपने सपनों को गरम किया होगा।
किसी ने बेटी की शादी सोची होगी,
किसी ने बेटे की पढ़ाई,
किसी ने खेतों में
अगली फ़सल का अनुमान लगाया होगा।
और फिर
बस चौंतीस सेकंड,
सब मलबे में दब गया।
 
यह मौत का तांडव था,
जो अपने रास्ते में आए
हर जीवन को निगलता चला गया।
किसी की चीखें
पत्थरों में दब गईं,
किसी की साँसें
पानी की धार में खो गईं।
बचे हुए लोग
अब ढूँढ़ रहे हैं
कंधों पर उठाने को अपने प्रियजन,
पर हाथ ख़ाली लौट आते हैं।
 
धराली आज रो रही है
न केवल उन मृतकों के लिए
जो हमारे बीच नहीं रहे,
बल्कि इस निर्मम सवाल के लिए भी
कि आख़िर क्यों?
क्यों बार-बार
पहाड़ की छाती चीर दी जाती है?
क्यों जंगल काटे जाते हैं,
नदियों को बाँधा जाता है,
और पहाड़ों पर
कंक्रीट के बोझ डाले जाते हैं?
 
यह हादसा
सिर्फ़ बादल फटने का नहीं,
यह हमारी लापरवाहियों का परिणाम है।
हम भूल गए
कि प्रकृति
सिर्फ संसाधन नहीं,
माँ है।
और जब उसकी छाती पर
इतना बोझ डालते हैं,
तो वह कभी न कभी
आक्रोश बनकर टूट पड़ती है।
 
धराली की आत्माएँ
हमसे यही कह रही हैं
हमारे जाने का शोक मनाओ,
पर साथ ही प्रण लो,
कि अब प्रकृति को
और न सताओगे।
 
हमें चाहिए
न सिर्फ़ राहत दल,
बल्कि संवेदनशील नीतियाँ।
हमें चाहिए
जंगलों की रक्षा,
नदियों की स्वच्छता,
और पहाड़ों पर
कंक्रीट नहीं,
हरियाली का सहारा।
हमें चाहिए
सतर्कता की घंटियाँ,
मौसम की सटीक चेतावनियाँ,
और सबसे बढ़कर
प्रकृति को माँ मानने का
संस्कार।
 
धराली के मृत आत्माओं
हम तुम्हें श्रद्धांजलि देते हैं।
तुम्हारा दर्द
हमारे कंधों पर रहेगा।
तुम्हारी याद
हमें बार-बार चेताएगी
कि प्रकृति से
खिलवाड़ का मूल्य
कितना भारी होता है।
 
तुम्हारी आत्माएँ
शांति पाएँ,
और हम
तुम्हारे अधूरे सपनों की क़सम खाकर
यह वचन दें
कि धरती को फिर से
उसकी लय में जीने देंगे।
 
धराली,
तेरी चीखें
हमारी आत्मा में गूँजेंगी
जब तक हम
सचमुच नहीं सीखते
कि प्रकृति से
संधि किए बिना
मानव का भविष्य
संभव नहीं।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
दोहे
कहानी
गीत-नवगीत
सामाजिक आलेख
कविता - हाइकु
कविता-मुक्तक
कविता - क्षणिका
सांस्कृतिक आलेख
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
लघुकथा
स्वास्थ्य
स्मृति लेख
खण्डकाव्य
ऐतिहासिक
बाल साहित्य कविता
नाटक
साहित्यिक आलेख
रेखाचित्र
चिन्तन
काम की बात
काव्य नाटक
यात्रा वृत्तांत
हाइबुन
पुस्तक समीक्षा
हास्य-व्यंग्य कविता
गीतिका
अनूदित कविता
किशोर साहित्य कविता
एकांकी
ग़ज़ल
बाल साहित्य लघुकथा
व्यक्ति चित्र
सिनेमा और साहित्य
किशोर साहित्य नाटक
ललित निबन्ध
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में