वाघा का विघटन–जब शेर भी कन्फ्यूज़ हो गया

01-06-2025

वाघा का विघटन–जब शेर भी कन्फ्यूज़ हो गया

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 278, जून प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

(अगर पाकिस्तान का भारत में विलय होता है तो भारत की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियाँ क्या होंगी एक व्यंग्यात्मक विश्लेषण सुशील शर्मा की क़लम से) 

 

जब भारत ने पाकिस्तान को युद्ध में पराजित कर लिया और उसे भारत का हिस्सा घोषित कर दिया गया, तो सिर्फ़ एक सीमा रेखा नहीं टूटी— टूटीं लाखों धारणाएँ, बहसें और ‘व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी’ की स्थापित थ्योरीज़। एक सुबह जैसे ही टीवी एंकरों ने घोषणा की कि “अब पाकिस्तान भारत का 30वां राज्य होगा, ” पूरा देश एक साथ मुस्कुरा भी रहा था और माथा भी पीट रहा था। कुछ उत्साहित थे— “अब तो कराची में भी गोलगप्पे मिलेंगे!”— और कुछ भयभीत थे— “अब हर क्रिकेट मैच ‘इंट्रा-क्लास टेस्ट’ हो जाएगा।”

संविधान सभा की आत्मा ने करवट ली। “हम भारत के लोग . . . ” की प्रस्तावना में अब “हम भारत और नवपश्चिमी भारत के समन्वित लोग” जोड़ना पड़ा। बाबा साहेब की मूर्ति संसद के लॉन में एकाएक काँप उठी। जैसे ही नक़्शा बदला गया, बच्चों ने बस्तों में नयी परेशानियाँ जोड़ लीं— “इतना बड़ा भारत तो पूरी ड्राइंग शीट में भी नहीं समाएगा, सर!” अब नक़्शे में जम्मू-कश्मीर के बग़ल में कराची दिखता था और नीचे ‘सीमा समाप्त’ नहीं, ‘नवप्रारंभ’ लिखा गया। 

राजनीतिक गलियारों में उत्साह और उलझन की मिली-जुली चाय खौल रही थी। सत्ता पक्ष ने इसे ऐतिहासिक क्षण कहा, विपक्ष ने पूछा—“अब क्या पाकिस्तान का बजट भी हम देंगे?” नेताजी बोले, “अब सब अपने हो गए।” लेकिन सामने से फुसफुसाहट आई, “अपने हो गए तो फोन टेप क्यों कर रहे हो?” अफ़सरों को नए सिरे से विभाग बाँटने पड़े। एक अफ़सर की लॉटरी लगी—उसे बलूचिस्तान का मुख्य सचिव बना दिया गया। माँ की प्रतिक्रिया, “बेटा विदेश गया है नौकरी करने।” 

न्यूज़ चैनल्स के लिए तो मानो यह दिवाली थी। उन्होंने “विशेष कार्यक्रम: पाकिस्तान अब पराया नहीं” के 24 घंटे के एपिसोड चलाए। एंकर अब कमेंटेटर से ज़्यादा मोटिवेशनल स्पीकर लगने लगे। भारत और पाकिस्तान की संयुक्त टीम के लिए क्रिकेट प्रेमियों ने शोक सभा की। ICC ने जब टीम इंडिया की जर्सी में बाबर आज़म की फोटो छापी तो ट्विटर पर शोक संदेशों की बाढ़ आ गई—“अब किसे हराएँगे भाई?” कोई नहीं जानता था कि जीत का मज़ा तब आता है जब सामने दुश्मन हो, और अब तो दुश्मन भी घर का हिस्सा हो गया था। 

बॉलीवुड ने सबसे पहले व्यापारिक दिमाग़ चलाया। अब सलमान खान और माहिरा खान साथ में रोमांस कर सकते थे, बिना किसी ‘बैन’ के डर के। करण जौहर और शोएब मंसूर ने मिलकर “जब वाघा टूटा” नाम से फ़िल्म लॉन्च की, जिसमें क्लाइमैक्स में तिरंगा और चाँद सितारा दोनों एक ही रेल में लहराते दिखाए गए। बॉक्स ऑफ़िस पर रिकॉर्ड तोड़ कमाई हुई, लेकिन सेंसर बोर्ड परेशान था—“अब काटें किसके सीन?” 

सास-बहू सीरियलों में अब नई बहुएँ लाहौर से आ रही थीं और सासें दिल्ली से। एक सीरियल आया—“सरहद के पार सासु माँ”— जिसमें सास कहती थी, “ये तो मेरी बहू नहीं, मेरी आशा का विस्तार है।” टीआरपी आसमान छूने लगी। सोशल मीडिया पर मीम्स की बाढ़ आ गई। “पहले विस्फोट होता था, अब विवाह होगा।”

व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों को अब नए सिलेबस की ज़रूरत थी। पहले ‘देशद्रोही’ कहने का जो मज़ा था, वो अब नहीं रहा। क्योंकि अब ‘वो’ सब भी भारतवासी बन चुके थे। बहस का स्तर इतना नीचे चला गया कि लोग पूछने लगे—“क्या अब पाकिस्तान में भी झारखंड की तरह बिजली कटेगी?” 

ब्यूरोक्रेसी में अफ़रा-तफ़री मच गई। संयुक्त प्रशासन चलाना ऐसा था जैसे एक बकरी और एक बाघ को एक ही रस्सी से बाँध दो। IAS ट्रेनिंग के लिए कराची और क्वेटा में कैम्प लगाए गए। कुछ अफ़सरों ने इस्तीफ़ा दे दिया—“हमें परीक्षा पास करनी थी, बॉर्डर पार नहीं करना था।” सरकारी फ़ॉर्मों में नया कॉलम जुड़ गया—“आप भारत के किस संस्करण से हैं–मूल, नवपश्चिम, या अनिर्णीत?” 

सबसे मज़ेदार असर देखा गया वाघा बॉर्डर पर। वहाँ रोज़ होने वाली पैर पटक परेड अब रूमानी शायरी में बदल गई थी। पहले जहाँ जवान एक-दूसरे को आँखें दिखाते थे, अब आँख मारते थे। ‘हू . . हू . . .” की जगह “क्या हाल है यार?” सुनाई देने लगा। एक दिन तो इतना प्यार उमड़ पड़ा कि दोनों तरफ़ के जवानों ने मिलकर भांगड़ा ही डाल दिया। 

बच्चों को नई कहानियाँ सुनाई जाने लगीं—“एक समय की बात है, जब भारत और पाकिस्तान दो थे। फिर एक दिन उन्होंने गूगल मीट पर बात की और एक हो गए।” बच्चे पूछते, “क्या वो भी फ़्रेंड रिक्वेस्ट भेजते थे?” तो दादी मुस्कुराकर कहती, “बेटा, तब मिसाइल भेजते थे, अब मीम भेजते हैं।” 

धार्मिक संगठनों के पास नई उलझन थी। अब विरोध किसका करें? मंदिर और मस्जिद दोनों एक देश में, तो “बाहरवाले” कौन कहलाएँ? कुछ कट्टरपंथी अब एक-दूसरे को ‘भारतीय-पाकिस्तानी भारतीय’ कह कर संबोधित करने लगे। मंदिरों में अब ग़ज़ल गायकी की प्रतियोगिताएँ होने लगीं और मस्जिदों में हिंदी क़व्वालियों का दौर। गंगा-जमुनी तहज़ीब का स्यापा भी हुआ और उत्सव भी। 

एक दिन संसद में प्रस्ताव आया, “अब संयुक्त राष्ट्र के सामने भारत को ‘महासंयुक्त भारत’ के नाम से प्रस्तुत किया जाए।” विपक्ष ने पूछा—“तो क्या अब पासपोर्ट में तीन भाषाएँ और जुड़ेंगी?” सरकार ने उत्तर दिया—“अब सिर्फ़ भाषाएँ नहीं, भावनाएँ भी जुड़ेंगी।” विपक्ष के नेताओं ने ट्वीट किया—“अब पाकिस्तान भी मेरा भाई है।” प्रधानमंत्री ने उत्तर में कहा—“एक भारत, श्रेष्ठ भारत, और अब अखंड भारत।” 

कुल मिलाकर, नक़्शा तो बदल गया, पर नीयतें . . . वो अब भी संसद में कुर्सियों पर टिकी थीं। यह व्यंग्यात्मक कल्पना यथार्थ से दूर होकर भी हमारी राजनीतिक और सामाजिक सोच के चिह्नों को आईना दिखा जाती है। भारत और पाकिस्तान का एक हो जाना न केवल एक भूगोल की घटना होती, यह इतिहास, मनोविज्ञान, और व्यंग्य का महा-संगम होता। और अंततः शेर भी यह सोचकर कन्फ्यूज़ हो गया–“अब गुर्राऊँ तो किस पर?” 
 

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