सम्बन्ध और स्वार्थ का द्वंद्व

15-12-2025

सम्बन्ध और स्वार्थ का द्वंद्व

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 290, दिसंबर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)


 (सम्बन्धों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण) 

 

मानव सम्बन्ध, चाहे वे प्रेम, मित्रता, या पारिवारिक बँधन हों, जीवन की सबसे मूलभूत आवश्यकताओं में से एक हैं। हम अक्सर इन सम्बन्धों को निःस्वार्थ प्रेम, त्याग और समर्पण की कसौटी पर आँकते हैं। लेकिन जब हम मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक गहराई में उतरते हैं, तो यह कठोर सत्य सामने आता है कि अधिकांश मानवीय भावनाएँ, जिनमें ‘प्यार’ भी शामिल है, कहीं न कहीं आत्म-केंद्रित संतुष्टि से जुड़ी होती हैं। यह विचार कि “लोग अपने मन की ख़ुशी के लिए आपसे प्यार करते हैं, आपके मन की ख़ुशी के लिए नहीं, “आधुनिक समाज की उपभोक्तावादी प्रवृत्तियों और मानवीय मनोविज्ञान की जटिलताओं को उजागर करता है। यह दावा करता है कि प्रेम का प्राथमिक उद्देश्य दूसरे व्यक्ति की भलाई या ख़ुशी नहीं, बल्कि स्वयं की भावनात्मक, सामाजिक, या मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति है। 

1. प्रेम का उपभोक्तावादी दृष्टिकोण

आधुनिक युग में, प्रेम और सम्बन्ध अक्सर एक लेन-देन के रूप में देखे जाते हैं। हम किसी व्यक्ति से इसलिए जुड़ते हैं क्योंकि वह हमारी ज़िन्दगी में किसी मूल्य का संचार करता है। यह मूल्य भौतिक, भावनात्मक, बौद्धिक या सामाजिक हो सकता है:

भावनात्मक पूर्ति:

व्यक्ति आपसे प्यार करता है क्योंकि आप उसे सुरक्षित, समर्थित, या वांछित (Desired) महसूस कराते हैं। आपकी उपस्थिति उसके अकेलेपन को दूर करती है, उसके आत्म-सम्मान को बढ़ाती है, या उसे जीवन में एक उद्देश्य देती है। जब आप ये भावनाएँ देना बंद कर देते हैं, तो ‘प्यार’ की तीव्रता अक्सर कम हो जाती है। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति को आपकी उपस्थिति से जो अच्छा महसूस होता है, वह उसी ‘अच्छे महसूस’ होने से प्यार करता है। 

सामाजिक या भौतिक लाभ:

कई बार लोग आपसे इसलिए जुड़ते हैं क्योंकि आप उनकी सामाजिक स्थिति को बढ़ाते हैं, उनकी वित्तीय स्थिरता में योगदान करते हैं, या उन्हें किसी प्रकार का सुविधा प्रदान करते हैं। यह ‘प्यार’ बाहरी लाभों पर निर्भर करता है, न कि आपके आंतरिक स्वरूप पर। 

अपूर्णता की पूर्ति:

लोग अक्सर दूसरों में वे गुण खोजते हैं जो उनमें स्वयं में नहीं होते। यदि कोई व्यक्ति ख़ुद को असुरक्षित महसूस करता है, तो वह आपसे इसलिए प्यार कर सकता है क्योंकि आप आत्मविश्वास से भरे हैं। इस तरह, वह आपके माध्यम से अपनी अपूर्णता को पूरा करने का प्रयास करता है। यह प्रेम, अनिवार्य रूप से, स्वयं की कमी को भरने का एक प्रयास है। 

2. ‘दूसरों की ख़ुशी’ बनाम ‘स्वयं की संतुष्टि’

निःस्वार्थ प्रेम का अर्थ है दूसरे व्यक्ति की ख़ुशी को अपनी ख़ुशी से ऊपर रखना। लेकिन व्यवहार में, यह दुर्लभ है। अधिकांश तथाकथित निःस्वार्थ कार्य भी अंततः ‘मन की शांति’ या ‘पुण्य’ की भावना से संचालित होते हैं—जो कि आत्म-संतुष्टि का ही एक रूप है। 

जब आप किसी प्रियजन की मदद करते हैं और वह ख़ुश होता है, तो आपको जो संतोष और ख़ुशी मिलती है, वह उस व्यक्ति की ख़ुशी का प्रतिबिंब होती है। आप उस व्यक्ति से प्रेम करते हैं क्योंकि उसकी ख़ुशी आपको ख़ुश करती है। यदि आप उसकी मदद करते और वह दुखी या उदासीन रहता, तो शायद आपको वह संतोष नहीं मिलता और धीरे-धीरे आप उस कार्य या सम्बन्ध से विमुख हो जाते। 

यह वह ख़ुशी नहीं है जो दूसरे व्यक्ति के हृदय में उठती है; बल्कि यह वह भावनात्मक पुरस्कार है जो आपको दूसरे को ख़ुश करने के ‘अधिकार’ या ‘क्षमता’ से मिलता है। 

3. सम्बन्ध विच्छेद का कठोर सत्य

इस विचार की पुष्टि तब होती है जब सम्बन्ध टूटते हैं। यदि प्रेम निःस्वार्थ होता और केवल दूसरे की ख़ुशी पर केंद्रित होता, तो जब वह व्यक्ति बदलता, या कठिनाइयों का सामना करता, तो प्रेम और गहरा होना चाहिए था। 

लेकिन अक्सर, जब कोई व्यक्ति:

अपनी आकर्षक बाहरी विशेषताओं को खो देता है। 
 वित्तीय रूप से कमज़ोर हो जाता है। 
 मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के कारण भावनात्मक रूप से उपलब्ध नहीं रहता। 

 वह ‘मूल्य’ देना बंद कर देता है जो वह पहले देता था तो सम्बन्ध में दरार आने लगती है। ‘प्यार’ फीका पड़ जाता है क्योंकि दूसरे व्यक्ति को वह संतुष्टि मिलनी बंद हो गई है जिसके लिए उसने मूल रूप से सम्बन्ध शुरू किया था। ब्रेकअप या तलाक़ अक्सर यह दिखाता है कि व्यक्ति ने अपने मन की ‘ज़रूरतों’ को पूरा करने के लिए सम्बन्ध समाप्त किया, न कि टूटे हुए साथी के मन की ख़ुशी या भलाई के लिए। 

4. दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण

यह विचार कई दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों से मेल खाता है:

 

हेडोनिज़्म:

यह सिद्धांत मानता है कि मनुष्य के सभी कार्य सुख प्राप्त करने या दुःख से बचने पर केंद्रित होते हैं। प्रेम भी एक ऐसा कार्य है जो सबसे बड़ा भावनात्मक सुख देता है। 

सिग्मंड फ़्रायड का मनोविश्लेषण:

फ़्रायड ने माना कि मानव व्यवहार का एक बड़ा हिस्सा ‘इद’ (Id) द्वारा नियंत्रित होता है, जो सुख के सिद्धांत पर काम करता है। प्रेम भी अचेतन रूप से अपनी ज़रूरतों को पूरा करने का एक तरीक़ा हो सकता है। 

विकासवादी मनोविज्ञान:

विकासवादी दृष्टिकोण से, प्रेम और जुड़ाव का उद्देश्य आत्म-संरक्षण और प्रजाति के प्रसार को सुनिश्चित करना है। भले ही यह प्रेम दिखाई दे, इसका अंतिम जैविक उद्देश्य ‘स्वयं’ के जीन या कल्याण को बढ़ावा देना होता है। 

5. अपवाद और समाधान:

क्या निःस्वार्थ प्रेम सम्भव है? 

उपर्युक्त विश्लेषण कठोर लग सकता है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि सभी प्रेम फ़र्ज़ी हैं। यह केवल उस मूल प्रेरणा को स्पष्ट करता है जो सम्बन्ध शुरू करती है। इस आत्म-केंद्रित आधार को पार करने के लिए दो क़दम आवश्यक हैं:

जागरूकता:

सबसे पहले इस सत्य को स्वीकार करना कि हम स्वभावतः स्व-केंद्रित हैं। यह ज्ञान हमें यह समझने में मदद करता है कि ‘प्यार क्यों बदलता है'। 

करुणा की वृद्धि:

सच्चा और गहरा प्रेम तब आता है जब हम अपनी ज़रूरतों से परे जाकर दूसरे व्यक्ति के वास्तविक स्वरूप को देखते हैं और उसकी अपूर्णताओं के साथ भी उसकी ख़ुशी की इच्छा करते हैं। यह प्रेम ‘प्यार में पड़ना’ नहीं है, बल्कि ‘प्यार में खड़ा होना’ है। यह प्रेम ग्रहणशील होने के बजाय देने वाला होता है। माता-पिता का अपने बच्चों के प्रति प्रेम, या आध्यात्मिक प्रेम, अक्सर इस सीमा को पार करने का प्रयास करता है, जहाँ दूसरे के हित को प्राथमिकता दी जाती है। 

प्रेम को परिभाषित करने की आवश्यकता

लोग अपने मन की ख़ुशी के लिए आपसे प्यार करते हैं, यह एक यथार्थवादी और थोड़ा निराशावादी विचार है जो हमें मानवीय प्रेरणाओं की गहरी समझ प्रदान करता है। यह हमें सिखाता है कि जिस प्रेम की हम अपेक्षा करते हैं, वह अक्सर एक भावनात्मक अनुबंध होता है। 

यह विचार हमें यह चुनौती देता है कि हम अपने सम्बन्धों को स्वार्थ के धरातल से ऊपर उठाएँ। सच्चा प्रेम, जो दूसरे की ख़ुशी के लिए किया जाता है, वह सहज नहीं होता; यह एक सचेत प्रयास है। यह अपने ‘मैं’ को कम करके, दूसरे के ‘आप’ को प्राथमिकता देने का दैनिक अभ्यास है। जब हम इस सत्य को स्वीकार कर लेते हैं, तो हम दूसरों से अवास्तविक अपेक्षाएँ रखना बंद कर देते हैं और स्वयं उस प्रेम का स्रोत बनने का प्रयास करते हैं जो ग्रहण करने के बजाय प्रदान करने पर केंद्रित होता है। तभी जाकर प्रेम का उच्चतम और निःस्वार्थ स्वरूप सम्भव हो पाता है।

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