शर्मा जी और सब्ज़ी–एक हरी-भरी कथा

15-06-2025

शर्मा जी और सब्ज़ी–एक हरी-भरी कथा

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 279, जून द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)


(एक पारिवारिक व्यंग्य) 

शर्मा जी का जीवन जितना सादा था, उतना ही सब्ज़ियों से लबालब भरा हुआ भी। कोई माने या न माने, लेकिन शर्मा जी का संसार दो चीज़ों के इर्द-गिर्द ही घूमता था पहला, शाम की सैर और दूसरा, लौटते वक़्त थैले में टँगी सब्ज़ियाँ। शर्मा जी जब भी घर से बाहर निकलते, महल्ले में हलचल मच जाती, और सब्ज़ीमंडी में हरियाली की लहर दौड़ जाती। 

दरअसल, उन्हें सब्ज़ी लाने का ऐसा शौक़ था, जैसे किसी को टिकटों की बारीक़ियाँ समझने का, या पुराने सिक्के जमा करने का। फ़र्क़ बस इतना था कि उनके संग्रह की मियाद तीन दिन से ज़्यादा नहीं चलती थी, और महक थोड़ी अलग होती थी आलू-प्याज़-भिन्डी टाइप। 

अब ये तो भई, मानव स्वभाव है कि कुछ शौक़ समझ में नहीं आते। लेकिन शर्मा जी के इस हरे-भरे शौक़ ने तो हद ही कर दी थी। घर में आलू की बोरियाँ, टमाटर के ढेर और बैंगनों का धूसर समुद्र बन चुका था। उनकी धर्मपत्नी, जिन्हें सब्ज़ियों से ज़्यादा अपनी रसोई की जगह प्यारी थी, दिन में तीन बार सख़्त आदेश देतीं, “शर्मा जी, देखिए! आज सब्ज़ी नहीं लानी है। बिलकुल नहीं। फ़्रिज में भिंडी सूख रही है, लौकी मर रही है और परवल तो आत्महत्या की कोशिश कर रहा है!”

शर्मा जी पूरी गंभीरता से सुनते, सिर हिलाते और “हाँ-हाँ, बिल्कुल” कहकर निकल जाते। फिर जब लौटते, तो उनके हाथ में थैला लटका होता, जिसमें सब्ज़ियाँ ऐसे झाँक रही होतीं जैसे किसी संगीत समारोह से लौट रही सेलिब्रिटीज़। कौन सी सब्ज़ी लाए हैं ये शर्मा जी को ख़ुद नहीं पता होता। दुकानदार जो थमा दे, वही उनके थैले में चला आता। एक बार उन्होंने मेथी माँगी थी, दुकानदार ने ग़लती से मूली दे दी। शर्मा जी मुस्कुराते हुए बोले, “हरी है, वही काफ़ी है।” 

शर्मा जी एक विद्यालय में प्राचार्य हैं और उनके विद्यालय के सामने ही सब्ज़ी बाज़ार लगता है अतः उन्हें ऐसा लगता है कि ये सारी सब्ज़ियाँ उनकी अपनी है अतः वे अधिकार के साथ दुकानदारों से मोल भाव करके सब्ज़ियाँ क़ब्ज़े में ले लेते थे। 

उनके इस व्यवहार पर उनके पिताजी भी परेशान थे। कई बार डपट चुके थे, “देखो बेटा, ये शौक़ घर उजाड़ देता है। पहले तुम्हारी माँ तुम्हें नहीं रोक पाई, अब तुम्हारी पत्नी हार गई है। कहीं ऐसा न हो कि एक दिन सब्ज़ियाँ ही तुम्हें खा जाएँ।” 

मगर शर्मा जी थे कि सब्ज़ियों के प्रेम में इतने डूबे थे कि उन्हें दुनिया सब्ज़ियों की तरह ही दिखती थी। पड़ोसी गुप्ता जी की शक्ल उन्हें तोरी जैसी लगती थी लंबी, चुपचाप और कुछ-कुछ बेस्वाद। वहीं त्रिपाठी जी की मूँछें उन्हें हरे मिर्च की तरह लगतीं तीखी और तनी हुई। 

अब हालत ये हो गई है कि महल्ले की सब्ज़ी मंडी में शर्मा जी को देख कर सब्ज़ियाँ ख़ुद को सजा-सँवार कर उनके थैले में कूदने को तैयार हो जाती हैं। टमाटर हल्का-सा लाल होते ही सोचता है, “अब शर्मा जी आएँगे तो चल दूँगा उनके साथ, फ़्रिज में शान्ति मिलेगी।”

कभी-कभी तो ऐसा होता कि शर्मा जी ने सब्ज़ी लाने की सोची भी नहीं होती, पर दुकान वाले दूर से देखकर ही झोला भर देते हैं। दुकानदार बारे लाल तो उन्हें ‘चलती-फिरती उपज मंडी’ कहते हैं। वे कहते हैं, “शर्मा जी जैसे ग्राहक रोज़ आएँ तो बारिश में भी धंधा सूखा न हो।” 

उनकी पत्नी ने तो एक बार थक-हारकर यह तक कह दिया, “कभी गुलाब लाकर देखिए, मैं इत्र छिड़ककर आपके पैरों की धूल चूम लूँगी।” मगर शर्मा जी के लिए गुलाब की तुलना भी लौकी से हो जाती “लौकी भी तो सफेद-सफेद होती है, जिसमें कोई काँटे नहीं होते और जिसे खाकर स्वास्थ्यवर्धन होता है।” 

सब्ज़ियों के प्रति शर्मा जी का यह आकर्षण बचपन से नहीं था। यह विकसित हुआ है एक प्रकार का ‘हरी प्रेम’ जो नौकरी से रिटायर होते-होते पूर्ण विकसित पके आम की तरह परिपक्व हो चुका है। अब तो हालत ये हो गई है कि शर्मा जी यदि दो दिन सब्ज़ी न लाएँ, तो बाज़ार की अर्थव्यवस्था डगमगाने लगती है। सब्ज़ीवालों के बच्चों की स्कूल फ़ीस रुक जाती है। साथ ही शर्मा जी को बुख़ार आ जाता है और पूरी रात उनको नींद नहीं आती है और अगर झपकी लग भी जाए तो सपने में उनकी प्यारी सब्ज़ियाँ नाचते हुई दिखती हैं। 

उनकी बेटी ने एक बार पूछ ही लिया, “पापा, ये सब्ज़ी प्रेम कहाँ से आया?” 

शर्मा जी ने बड़े आत्मिक स्वर में उत्तर दिया, “बिटिया, जीवन में बहुत कुछ हाथ से फिसलता है नौकरी, प्रमोशन, बाल, दाँत . . . लेकिन सब्ज़ियाँ ये बस पकड़ने की देर है, जीवन भर साथ निभाती हैं।” 

यह कहकर वे मुस्कराए, और अपनी प्रिय लौकी की ओर प्रेम से निहारा। 

सब्ज़ी मंडी के पास ही साहित्यकारों की बैठक होती है और शर्मा जी उसमें अपनी ज़बरदस्ती उपस्थिति देकर सब्ज़ियों के बारे में नई-नई कविताएँ सुना कर साहित्यकारों को बोर कर देते हैं अब तो साहित्यकार उन्हें देख कर छुपने लगे हैं। 

अब उनका हाल ये है कि घर में ‘हरी भरी सभा’ चलती है आलू अध्यक्ष, भिंडी उपाध्यक्ष और करेला विपक्ष का नेता। फ़्रिज खुलते ही सब्ज़ियाँ आपस में कानाफूसी करती हैं, “आज कौन जाएगी?” 

“अरे सुन, शर्मा जी आ रहे हैं . . . सँभल जा बहन, तेरा नंबर है।” 

पड़ोस की महिलाएँ उन्हें देख कर कहती हैं, “देखो देखो, हरे ठेले पर फिर सब्ज़ी का वीर आ रहा है।” महल्ले के बच्चे उन्हें ‘सब्ज़ी अंकल’ कहने लगे हैं और जब वे सैर को निकलते हैं तो पीछे-पीछे मज़ाक में नारा लगाते हैं 

“हर घर में सब्ज़ी पहुँचेगी, जब शर्मा जी घूमने निकलेंगे!”

अब शर्मा जी को लेकर महल्ले में एक अफ़वाह भी फैल गई है कि वे गुप्त रूप से सब्ज़ियों की राजनीतिक पार्टी बनाने जा रहे हैं “हरी झंडा दल”, नारा है “भिंडी बढ़ाओ, करेला हटाओ!” और चुनाव चिह्न थैला! 

इधर पत्नी ने अब नया उपाय निकाला है। वे शर्मा जी को घूमने भेजने से पहले उनके थैले की जगह छाता पकड़ाती हैं। लेकिन शर्मा जी सब्ज़ियाँ लाने का जुगाड़ कर ही लेते हैं। पिछले हफ़्ते तो वो सब्ज़ी पॉकेट में भर लाए थे “थोड़ी सी धनिया थी, जेब में ही आ गई।” 

अब तो उनका नाम किसी ‘हरी साहित्य महोत्सव’ के लिए भेजा जा रहा है व्याख्यान का विषय होगा “सब्ज़ी और संस्कार: एक समकालीन विमर्श।” 

निष्कर्ष यही है शर्मा जी का जीवन हमें यह सिखाता है कि शौक़ कोई भी हो, अगर उसमें मन रम जाए तो वह साधना बन जाता है . . . भले ही वह साधना हरे धनिये तक ही सीमित क्यों न हो। 

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