सूरज की दुश्वारियाँ

15-06-2022

सूरज की दुश्वारियाँ

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 207, जून द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

कानों में कुछ कह गयी, 
आज बावली भोर। 
 
सूरज की दुश्वारियाँ, 
चंदा की दुख-पीर। 
सूखी धरा दिवालिया, 
रहे क़ैद में नीर। 
चिल्लाते से हैं नगर, 
और गाँव का मौन। 
बहरी गूँगी क़ौम को, 
अब समझाये कौन। 
 
बीती सदियाँ कह रहीं, 
देख हमारी ओर। 
 
मेड़ें पोखर सब मिटे, 
रिश्तों पर पेबंद। 
डायलिसिस पर ज़िन्दगी, 
साँसें हैं अब मंद। 
नहीं टिटहरी बोलती, 
कोयल है चुपचाप। 
मुल्ला पंडित लड़ रहे, 
अल्ला ईसुर नाप। 
 
टीवी न्यायालय बने, 
जनता मूर्ख घोर। 
 
जीवन अनुमोदित हुआ, 
औरों के अनुसार। 
सब कुछ तो बिकता यहाँ, 
सारा जग बाज़ार। 
देह नेह रिश्ते बिकें, 
सिंहासन पर झूठ। 
सत्य टँगा बाज़ार में, 
ख़ाक भरी सब मूठ। 
 
प्रतिभाओं को लूटता, 
आरक्षण का चोर। 

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