अविचल प्रताप: भारत की आत्मचेतना के प्रहरी

01-06-2025

अविचल प्रताप: भारत की आत्मचेतना के प्रहरी

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 278, जून प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

(महाराणा प्रताप के व्यक्तित्व का विश्लेषण करता हुआ आलेख) 

 

भारतवर्ष के इतिहास में अनेक ऐसे नायक हुए हैं जिन्होंने केवल अपने समय को ही नहीं, आने वाले युगों की चेतना को भी दिशा दी है। ऐसे ही महान योद्धा और राजधर्म के अप्रतिम प्रतीक थे महाराणा प्रताप। वे केवल मेवाड़ की सीमाओं तक सीमित कोई राजा नहीं थे, वे भारत की आत्मा में रचे-बसे एक स्वाधीनता-प्रतीक थे, जिनके जीवन, संघर्ष और सिद्धांतों ने राष्ट्रचेतना को प्रज्वलित किया। 

आज जब भारत आत्मनिर्भरता, आत्मगौरव और सांस्कृतिक पुनरुत्थान की ओर अग्रसर है, तब महाराणा प्रताप की विरासत न केवल प्रेरणादायक है, बल्कि मार्गदर्शक भी। 

महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को हुआ था। वे मेवाड़ के राजा उदयसिंह के ज्येष्ठ पुत्र थे। बाल्यकाल से ही उन्होंने युद्धकला, घुड़सवारी, अस्त्र-शस्त्र और आत्मसम्मान की शिक्षा प्राप्त की। वे सिसोदिया वंश के उत्तराधिकारी थे— एक ऐसा वंश जो कभी भी विदेशी शासन के समक्ष नहीं झुका। 

प्रारंभ से ही प्रताप ने स्पष्ट कर दिया था कि उनके लिए राज्य या सुविधाएँ महत्त्वपूर्ण नहीं, अपितु स्वराज और स्वाभिमान सर्वोपरि हैं। वे उन राजाओं में से थे जिन्होंने मुग़ल बादशाह अकबर की अधीनता अस्वीकार कर दी। जब अधिकांश राजवंश अकबर के दरबार में झुक चुके थे, तब महाराणा प्रताप ने अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया। 

18 जून 1576 को हल्दीघाटी की प्रसिद्ध लड़ाई लड़ी गई, जहाँ महाराणा प्रताप की सेना ने मुग़लों की विशाल और सुसज्जित सेना से लोहा लिया। भले ही यह युद्ध निर्णायक रूप से उनके पक्ष में नहीं गया, परन्तु यह प्रताप की वीरता, रणनीति और आत्मबल का प्रतीक बन गया। 

इस युद्ध में प्रताप का प्रिय घोड़ा चेतक घायल होकर भी प्रताप को युद्धभूमि से निकाल लाया— यह केवल एक योद्धा और उसके पशु के बीच का सम्बन्ध नहीं, बल्कि स्वराज के लिए बलिदान की भावना का प्रतीक बन गया। 

हल्दीघाटी के बाद भी प्रताप ने आत्मसमर्पण नहीं किया। जंगलों में, पर्वतों पर, छोटी-छोटी गुफाओं में रहकर वे छापामार युद्ध करते रहे। उन्होंने पुनः मेवाड़ के अधिकांश भागों को स्वतंत्र कराया— यह इतिहास की विलक्षण घटनाओं में से एक है। 

जब अन्य राजा अकबर के समक्ष झुककर दरबारी सम्मान, धन और सुख सुविधाएँ भोग रहे थे, तब महाराणा प्रताप अपने परिवार सहित जंगलों में रहे। उनकी पत्नी और बच्चों को बाँस के बर्तनों में भोजन करना पड़ता था, अनेक बार अन्न के अभाव में उपवास करना पड़ता था, परन्तु उन्होंने कभी अपने सम्मान का सौदा नहीं किया। 

महाराणा प्रताप का यह त्याग आज के भारत को आत्मनिर्भरता, संघर्ष और अस्मिता की शिक्षा देता है। वे बताते हैं कि राष्ट्र की स्वतंत्रता और आत्मसम्मान के लिए व्यक्तिगत सुख का त्याग आवश्यक है। 

आज जब भारत वैश्विक मंच पर अपनी पहचान बना रहा है, तब महाराणा प्रताप के सिद्धांत और अधिक प्रासंगिक हो गए हैं:

प्रताप का जीवन इस बात का प्रमाण है कि कोई भी राष्ट्र तब तक सच्चे अर्थों में स्वतंत्र नहीं हो सकता जब तक उसका नेतृत्व आत्मगौरव से प्रेरित न हो। आज “वोकल फ़ॉर लोकल”, “मेक इन इंडिया” और “आत्मनिर्भर भारत” जैसी पहलें प्रताप की स्वराज अवधारणा की ही आधुनिक अभिव्यक्तियाँ हैं। 

महाराणा प्रताप ने कभी व्यक्तिगत शत्रुता नहीं पाली। उन्होंने कभी अकबर के प्रति अनादर का भाव नहीं रखा, परन्तु उनके अधीन रहने की बात स्वीकार नहीं की। यह हमें सिखाता है कि विचारों की असहमति गरिमा और सिद्धांतों के साथ हो सकती है। 

प्रताप का जीवन नीति और धर्म का अद्भुत संगम था। उन्होंने कभी अन्याय, प्रजा पर अत्याचार या लोभ के मार्ग को नहीं अपनाया। भारत के लिए आज ऐसा नैतिक नेतृत्व अत्यंत आवश्यक है जो सत्ता को सेवा समझे। 
प्रताप केवल युद्धकौशल के लिए नहीं, सांस्कृतिक आत्मगौरव के लिए भी स्मरणीय हैं। उन्होंने मेवाड़ की परंपराओं, कला, और स्थापत्य को सुरक्षित रखा। उनका जीवन बताता है कि स्वाधीनता केवल भू-भाग की रक्षा नहीं, बल्कि सांस्कृतिक आत्मा की रक्षा भी है। 

वे राष्ट्रवाद की उस भावना के प्रतीक हैं जो किसी संप्रदाय, भाषा या जाति से नहीं, बल्कि राष्ट्र की साझा आत्मा से संचालित होती है। 

इतिहास में कई बार महाराणा प्रताप की तुलना राजा मान सिंह या अकबर से की जाती है, परन्तु यह तुलना केवल सैन्य दृष्टिकोण से की जाती है। वास्तव में, प्रताप का स्थान इसलिए विशेष है क्योंकि उन्होंने बल से नहीं, बलिदान से इतिहास रचा। 

राजनीति की चतुर चालों के सामने प्रताप का नैतिक आग्रह खड़ा था। उन्होंने कभी राजपाट की क़ुर्बानी देने में हिचकिचाहट नहीं दिखाई। उनका जीवन इस सत्य को उद्घाटित करता है कि नैतिक शक्ति सैन्य शक्ति से बड़ी होती है। 

आज जब भारत विविध चुनौतियों से जूझ रहा है जैसे कि सांस्कृतिक अपमूल्यन, उपभोक्तावाद, नैतिक क्षरण तब महाराणा प्रताप के जीवन के प्रमुख पक्ष हमें दिशा देते हैं:

हमें संस्कृति और परंपरा का सम्मान करना चाहिए हमारी जड़ें हमारी शक्ति हैं। 

प्रताप का जीवन हमें संदेश देता है कि राजनीति में नैतिकता की आवश्यकता है सत्ता सेवा का माध्यम होनी चाहिए। 

साथ ही शान्ति में भी आत्मबल होना चाहिए समर्पण नहीं, संवाद के साथ खड़ा होना ज़रूरी है। 

प्रताप का जीवन युवाओं में राष्ट्रप्रेम की चेतना जागृत करता है प्रताप केवल इतिहास नहीं, प्रेरणा हैं। 

भारत के पाठ्यक्रमों में महाराणा प्रताप को केवल एक योद्धा या हल्दीघाटी के युद्ध के संदर्भ में पढ़ाया जाता है। आवश्यकता है कि उन्हें एक राष्ट्रनिर्माता, सांस्कृतिक संरक्षक और आत्मगौरव के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया जाए। उनके जीवन से नेतृत्व, नैतिकता, परंपरा और आत्मनिर्भरता के अनेक पाठ लिए जा सकते हैं। 

महाराणा प्रताप भारतीय चेतना के उस स्तंभ का नाम है जिसने ग़ुलामी की गहन अंधकार में स्वतंत्रता का दीप प्रज्वलित रखा। उनका जीवन इतिहास के पृष्ठों तक सीमित नहीं, अपितु भारत के भविष्य की प्रेरक धरोहर है। 

आज का भारत यदि आत्मनिर्भर, समरस और सांस्कृतिक रूप से सशक्त बनना चाहता है, तो महाराणा प्रताप के सिद्धांतों को केवल स्मरण नहीं, जीवन में धारण करना होगा। 

महाराणा प्रताप प्रतिकार नहीं, प्रतीकार हैं वे उस भावना के प्रतिनिधि हैं जो कहती है:

“झुकना नहीं है, चाहे टूट जाना पड़े; क्योंकि राष्ट्र की अस्मिता से बड़ा कोई स्वार्थ नहीं।”

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