अधूरी पूर्णता–एक मौन प्रेमकथा
डॉ. सुशील कुमार शर्मा
(एक संवेदनशील मंचीय नाट्य)
पात्रविवरण:
दीपक– एक आदर्शवादी युवक, मनोविज्ञान का छात्र और आंतरिक द्वंद्वों से जूझता हुआ।
संजीवनी– कुलपति की बेटी, संवेदनशील, प्रखर और प्रेम को अपनी आत्मा की भाषा मानने वाली।
प्रोफ़ेसर अत्रि– कुलपति, पिता और एक पारंपरिक सोच के प्रतिनिधि।
मीनल– दीपक की बाद की मित्र, जिसके साथ वह अस्थायी रूप से भावनात्मक राहत पाता है।
राजुल– गहन समझ वाली, सहानुभूति रखने वाली, लेकिन स्वयं अपने प्रश्नों में उलझी।
युग– संजीवनी का पति
प्रथम दृश्य–विश्वविद्यालय परिसर–पहली अनुभूति
(मंच पर एक विशाल नीम का पेड़। उसके नीचे एक बेंच। मंच की एक ओर पुस्तकालय का संकेतक, दूसरी ओर उद्यान की छाया। दीपक बेंच पर बैठा है, पुस्तक खुली है, पर आँखें खोई हुई। कुछ क्षण बाद संजीवनी प्रवेश करती है–लाल दुपट्टा हवा में लहराता है)
संजीवनी (हल्की मुस्कान के साथ):
क्या आप फिर किसी विचार की गहराई में उतर गए हैं, दीपक?
दीपक (धीरे से, उसकी ओर देखते हुए):
विचार नहीं . . . अनुभूति में।
तुम्हारी उपस्थिति में मन शोर नहीं करता, बस भीतर कोई शांत सरोवर हिलता है।
संजीवनी (बैठते हुए):
कभी लगता है, ये जो हम पढ़ रहे हैं—मनोविज्ञान, व्यवहार, चेतना—
सब केवल शब्द हैं . . .
पर जब तुम बोलते हो, तो मुझे लगता है, ये सब जीने योग्य है।
दीपक:
संजीवनी, क्या तुम जानती हो?
तुम्हारी मुस्कान किसी ग्रंथ की तरह है—
जिसे हर बार पढ़ने पर कोई नया अर्थ खुलता है।
संजीवनी (धीरे से):
पर ग्रंथों को सब समझ नहीं पाते, दीपक।
और कभी–कभी . . . समझने वाले ही उन्हें छोड़ देते हैं।
दीपक (मुस्कुराते हुए):
क्योंकि वे डरते हैं कि वे कहीं उन्हें खो न दें . . .
या शायद इसलिए कि वे ख़ुद को ही खो देने लगते हैं।
संजीवनी (कुछ मौन के बाद):
तुम्हारे साथ समय रुक जाता है।
और फिर जब तुम नहीं होते . . .
तो सब कुछ तेज़ चलने लगता है, असहनीय, अर्थहीन।
दीपक (गंभीर स्वर में):
कभी–कभी मैं सोचता हूँ . . .
क्या हम दो मनुष्य, जो एक-दूसरे को आत्मा से छूते हैं,
क्या हम समाज के नियमों में बँध कर रह पाएँगे?
संजीवनी:
क्यों नहीं?
जब प्रेम इतना शुद्ध हो,
तो क्या वह नियमों का बँधन बन सकता है, या वह स्वयं धर्म नहीं बन जाता?
दीपक:
प्रेम अगर आत्मा का धर्म बन जाए,
तो फिर यह संसार उसे 'गुनाह' क्यों कहता है?
संजीवनी:
क्योंकि इस संसार ने प्रेम को कभी समझा ही नहीं, दीपक।
उसे या तो वासना कहा गया, या बलिदान।
बीच की शुद्ध अनुभूति को कोई नाम ही नहीं मिला।
(मौन। दोनों एक-दूसरे की ओर देख़ते हैं। दूर मंदिर की घंटी बजती है)
दीपक (धीरे से):
संजीवनी . . .
मैं हर दिन तुम्हें छोड़ने का संकल्प लेता हूँ,
और हर रात तुम्हें भीतर और गहराई से पा लेता हूँ।
संजीवनी (धीरे से आँखें बंद कर):
तुम्हारा न होना भी,
तुम्हारी उपस्थिति से कम नहीं होता . . .
(प्रकाश मंद होता है। दोनों की छवियाँ मंच पर स्थिर होती हैं। दृश्य समाप्त होता है)
दृश्य द्वितीय–संजीवनी का घर: संवादों की अधूरी आवाज़ें
(मंच पर एक सुसज्जित बैठक। एक ओर पुस्तकें, दीवार पर एक परिवार का चित्र। दीवार घड़ी की टिक-टिक चल रही है। संजीवनी एक मेज़ पर बैठी है। हाथ में दीपक द्वारा उपहार में दी गई पुस्तक। वह उसे निहार रही है। दरवाज़े पर दस्तक होती है)
संजीवनी (उठकर धीरे से):
आ जाइए . . .
(दीपक प्रवेश करता है। उसके हाथ में एक पुराना ख़त और क़लम है। संजीवनी धीरे से मुस्कुराती है)
दीपक (बैठते हुए):
आजकल शब्द मुझसे रूठ गए हैं, संजीवनी . . .
ख़त अधूरा रह गया . . . और मैं भी . . .
संजीवनी:
अधूरा पत्र कभी-कभी पूरा जीवन कह देता है . . .
क्या लिखना चाहते थे?
दीपक (धीरे-धीरे):
कि मैं तुम्हें चाहता हूँ—
इस चाहत में कोई दंभ नहीं, कोई माँग नहीं . . .
सिर्फ़ समर्पण है।
संजीवनी (धीमे स्वर में):
और मैं . . .
मैं हर उस शब्द में जीती हूँ जो तुमने कभी नहीं कहा।
तुम्हारी चुप्पी भी संवाद बन चुकी है मेरे लिए।
दीपक (नज़रें झुकाते हुए):
पर क्या यह चुप्पी, इस समाज के कानों तक पहुँच पाएगी?
क्या तुम्हारे पिता . . . क्या ये दीवारें हमारी चुप्पियों को सुन पाएँगी?
(मंच पर प्रोफ़ेसर अत्रि का प्रवेश— गंभीर चेहरा, हाथ में समाचारपत्र। वह कुछ क्षण तक दोनों को देख़ता है)
प्रोफ़ेसर अत्रि (धीरे, अधिकार के साथ):
दीपक, मैं चाहता हूँ कि तुम आज से संजीवनी के लिए घर न आओ . . .
उसकी दुनिया अब कुछ और बनने वाली है . . .
संजीवनी (अचकचाकर):
पापा!
प्रोफ़ेसर अत्रि:
यह भावना जितनी पवित्र हो सकती है,
समाज उतना ही अपवित्र दृष्टि डालता है उस पर।
मैं उसे उस दृष्टि से बचाना चाहता हूँ।
दीपक (गंभीर स्वर में):
मैं समझता हूँ, सर।
पर क्या आप समझते हैं—
एक प्रेम जो आत्मा से उपजा हो,
उसे रोकना एक आत्मा को तोड़ना होता है।
प्रोफ़ेसर अत्रि:
प्रेम, दीपक, केवल भावना नहीं है—
यह भविष्य का दायित्व भी है।
संजीवनी की शादी तय हो रही है।
(संजीवनी चौंकती है। वह कुछ कहना चाहती है, पर रोक लेती है। उसकी आँखों में गहरा दर्द)
संजीवनी (धीरे से):
तो ये है वह उत्तर जो जीवन देता है प्रेम को . . .
दीपक (आँखें बंद कर):
मैं नहीं लड़ पाऊँगा आपसे, सर।
क्योंकि मैं आपको उसी श्रद्धा से देख़ता हूँ
जिस श्रद्धा से संजीवनी को प्रेम करता हूँ . . .
प्रोफ़ेसर अत्रि:
तो यह विदा है?
दीपक:
नहीं, यह वियोग है . . .
विदा तो उन रिश्तों को मिलती है जो कभी जुड़ते हैं . . .
(प्रोफ़ेसर बाहर चले जाते हैं। मंच पर मौन। केवल घड़ी की टिक-टिक)
संजीवनी (धीरे-धीरे, काँपती आवाज़ में):
दीपक . . . क्या प्रेम कभी पूरा होता है?
दीपक (आँखें भर आईं):
नहीं . . .
प्रेम पूरा नहीं होता . . .
वो तो बस अधूरी प्रार्थना की तरह होता है—
जो जीवनभर अनसुनी रहकर भी
हृदय में सबसे ऊँचा स्वर बन जाती है . . .
(संजीवनी उसकी ओर देखती है। आँखों में आँसू। मंच पर मंद प्रकाश। दृश्य समाप्त)
दृश्य तृतीय: मीनल का आगमन–असमंजस और पलायन
(मंच संयोजन: दीपक का कमरा–बहुत साधारण-सा, मेज़ पर किताबें बिखरी हैं, एक कोने में संजीवनी की दी हुई रुमाल अब भी फूलों के साथ सजी है। खिड़की से आती धूप दीवार पर टिकी है। दीपक अकेला बैठा है, बेतहाशा कुछ लिखने की कोशिश में, पर शब्द बार-बार टूट जाते हैं।)
(मंच पर मौन। दीपक की आत्म-स्वरूप वाणी सुनाई देती है)
दीपक (स्वगत):
लिखना चाहता हूँ कुछ—
पर हर पंक्ति बीच में छूट जाती है . . .
कभी क़लम काँप जाती है, कभी दिल।
संजीवनी चली गई . . .
लेकिन उसकी उपस्थिति अब भी हर चीज़ पर ठहरी है—
मेरी नज़्मों में, ख़ामोशियों में, और इस कमरे की उदासी में . . .
(दरवाज़े पर हल्की-सी दस्तक होती है। मीनल प्रवेश करती है–गहरी मुस्कान के साथ, पर नज़रें बहुत कुछ जानती हैं)
मीनल (हल्के स्वर में):
क्या अब भी ख़ामोशी से बातें कर रहे हो, दीपक?
दीपक (थोड़ा चौंक कर):
मीनल! तुम? इतने समय बाद?
मीनल:
तुम्हारी ख़ामोशी की चिंता खींच लाई।
बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं तुमने . . .
कभी तुमसे शब्दों की कमी की उम्मीद नहीं की थी।
दीपक (उदासी से):
शब्द हैं मीनल, पर स्याही नहीं रही . . .
जिस प्रेम ने अर्थ दिए थे उन्हें— वो अब स्मृति बन गया है।
मीनल (धीरे से पास बैठते हुए):
संजीवनी?
दीपक:
हाँ . . .
वो चली गई मुझसे . . .
या कहो, मैंने ही जाने दिया . . .
क्योंकि कुछ प्रेम . . . सिर्फ़ मौन में जीवित रहते हैं . . .
मीनल (संवेदनशील स्वर में):
तुमने हमेशा दूसरों के फ़ैसले को स्वीकार किया,
अपने हृदय की आवाज़ को दबा लिया . . .
पर क्या यह सही था?
दीपक (दर्द से):
सही और ग़लत प्रेम में तय नहीं होते मीनल,
वहाँ केवल भावनाएँ होती हैं—
या तो वे बह जाती हैं, या किसी को डुबा देती हैं।
मीनल (धीरे से उसका हाथ पकड़ते हुए):
और जब कोई डूब रहा हो . . .
तो क्या कोई उसे थाम सकता है?
दीपक (हल्की मुस्कान से):
अगर वो थामने वाला . . .
सिर्फ़ हमदर्द न हो, प्रेमी हो . . .
तो शायद हाँ।
मीनल (गंभीरता से):
तो मैं प्रेमी नहीं हूँ?
दीपक (नज़रें झुकाते हुए):
तुम हो . . .
पर मेरे प्रेम की जगह वो नहीं भर सकती जिसे मैंने आत्मा में बसा लिया हो।
तुम मेरा सहारा बन सकती हो—
पर मेरी संजीवनी नहीं . . .
मीनल (आँखें नम होकर):
मैं यह जानती थी . . .
पर फिर भी आई,
क्योंकि तुम्हारा टूटना . . . मुझे जीने नहीं दे रहा था . . .
दीपक (धीरे से):
मुझे जीने की आदत नहीं रही अब . . .
बस जीते रहने की विवशता है . . .
(मीनल चुपचाप उठती है। दीपक के सिर पर हल्का हाथ फेरकर पीछे हटती है)
मीनल:
अगर कभी अपने दुःख से परे देख सको—
तो मैं यहीं हूँ . . .
न सहारा बनकर . . . न संजीवनी बनकर . . .
बस एक मनुष्य, जो तुम्हारे अकेलेपन को बाँटना चाहता है।
(मीनल धीरे से मंच से बाहर चली जाती है। दीपक उसे देखता है, फिर धीरे-धीरे खिड़की की ओर मुड़ता है)
दीपक (स्वयं से):
कभी-कभी प्रेम वह नहीं होता जिसे हम पाते हैं,
बल्कि वह होता है जिसे हम खोकर भी नहीं खोते . . .
(मंच पर धीमा प्रकाश। दीपक की परछाईं दीवार पर बड़ी होती जाती है। फिर धुँधले प्रकाश में दृश्य समाप्त होता है)
दृश्य चतुर्थ: संजीवनी की सगाई–भीतर की टूटन और सामाजिक मुस्कान
(मंच संयोजन: एक सुंदर-सा सजा हुआ हॉल। चमचमाते दीप, फूलों की लड़ियाँ, हँसते चेहरे और शहनाई की मधुर तान। बीच में एक सजे हुए मंच पर संजीवनी और डॉ. युग खड़े हैं। रिश्तेदारों और मित्रों की भीड़ है, पर संजीवनी की आँखों में गहराती उदासी है।)
(पर्दा खुलता है। हल्की रागिनी की ध्वनि में मंच पर हलचल। फिर धीमे स्वर में संवाद आरंभ होते हैं)
(भीतर की आत्मस्वरूप वाणी–संजीवनी की)
संजीवनी (स्वगत):
हँसी ओढ़ ली है आज मैंने—
उस गहरे दुःख पर जो शगुन की चूड़ियों के नीचे छिप गया है।
दीपक, तुम्हें जाने क्या लगता होगा . . .
पर मेरे भीतर, हर फूल आज काँटे की तरह चुभ रहा है।
(डॉ. युग संजीवनी से कुछ कहता है। वह हल्की मुस्कान देती है)
डॉ. युग:
संजीवनी, मैं बहुत ख़ुश हूँ आज . . .
तुम्हारे साथ अपने जीवन की शुरूआत करके मुझे लगा है—
जैसे जीवन को कोई दिशा मिल गई हो।
संजीवनी (हल्के स्वर में):
दिशाएँ अक्सर किसी और की दी हुई होती हैं, युग . . .
हम बस चल देते हैं।
डॉ. युग (हँसते हुए):
तुम आज बहुत गूढ़ बातें कर रही हो।
यह दिन तो मुस्कुराने का है।
संजीवनी (एक लंबा साँस लेकर):
हाँ, शायद . . .
मुस्कुराना भी एक सामाजिक कर्त्तव्य है।
(भीड़ से कोई रिश्तेदार आकर चहकता है)
राजुल:
वाह! क्या जोड़ी है! जैसे राधा-कृष्ण हों!
संजीवनी बिटिया, तुम्हारा भाग्य तो सचमुच चमक गया!
(संजीवनी चुप रहती है, सिर्फ़ सिर झुकाती है। उसके मन की आवाज़ गूँजती है)
संजीवनी (स्वगत):
क्या सच में चमक गया मेरा भाग्य?
या मैंने उसकी राख ओढ़ ली है
जो दीपक की आँखों की लौ थी कभी . . .
(भीड़ में कहीं दूर दीपक खड़ा है–बिल्कुल सामान्य कपड़ों में, उसकी आँखें सिर्फ़ एक चेहरा खोज रही हैं। संजीवनी की नज़र उससे मिलती है)
दीपक (स्वगत):
आज . . .
आज तुम्हें किसी और के नाम से पुकारा गया है।
पर तुम्हारी आँखें अब भी मेरे नाम की पुकार छिपाए हुए हैं।
मैं आशीर्वाद देने नहीं आया . . .
मैं आया हूँ ख़ुद को खो देने।
(दोनों एक-दूसरे को देखते हैं–भीड़ के शोर के बीच गहरा मौन। फिर, संजीवनी की सहेली पास आती है)
सहेली:
क्या हुआ संजीवनी? तुम्हारी आँखें नम हैं?
संजीवनी (हल्की हँसी के साथ):
कभी-कभी . . .
ख़ुशी की आँखें भी भर आती हैं।
सहेली:
या शायद कोई छूटता हुआ अतीत याद आता है?
संजीवनी (संजीदगी से):
अतीत कभी छूटता नहीं . . .
वह हमारे साथ जीता है—
बस उसकी धड़कन अब दिखाई नहीं देती।
(दीपक धीरे-धीरे मंच से बाहर चला जाता है। उसकी पीठ और संजीवनी की आँखों का रिश्ता वहीं ठहर जाता है)
संजीवनी (स्वगत):
दीपक . . .
मैंने आज समाज के हाथ में अपना वर्तमान सौंप दिया . . .
पर मेरा अतीत और भविष्य—
अब भी सिर्फ़ तुम्हारा है।
(मंच पर धीमा संगीत। संजीवनी के चेहरे पर स्थिरता है, पर भीतर एक गहरी टूटन। प्रकाश धीरे-धीरे मंद पड़ता है। दृश्य समाप्त)
दृश्य पंचम: वैवाहिक जीवन की भीड़ में एकांत
मंच संयोजन: एक आधुनिक ड्राइंग रूम। दीवारों पर सुखद तस्वीरें, पुस्तकें, फूलदान, और एक ओर चाय की ट्रे। युग और संजीवनी एक साल बाद की वैवाहिक दिनचर्या में हैं – एक ऐसी दिनचर्या, जहाँ सब कुछ व्यवस्थित है . . . लेकिन आत्मा की परतें बिखरी हैं।
(पर्दा खुलता है। दो कुर्सियाँ आमने-सामने। युग मोबाइल में व्यस्त है। संजीवनी चाय का कप लिए खिड़की के पास बैठी है।)
संजीवनी (मन ही मन):
ये घर है . . .
पर मन?
वो अब भी किसी बीते रास्ते पर बसा है।
दीवारों पर हँसी टंगी है,
पर भीतर की चुप्पी अब भी बोलती है –
दीपक के शब्दों में . . .
युग (मोबाइल से):
संजीवनी, तुम्हें पता है आज मेरी मीटिंग में कितनी तारीफ़ हुई मेरी।
"डॉ. युग के साथ काम करना, मतलब प्रेरणा लेना!"
ऐसा कहा उन्होंने . . .
संजीवनी (हल्के स्वर में):
तारीफ़ें . . . बहुत सुंदर होती हैं युग . . .
पर क्या वे अकेलापन मिटा पाती हैं?
युग (चौंककर):
क्या मतलब है तुम्हारा?
तुम्हें क्या कमी है यहाँ?
हर सुख है, हर सुविधा।
संजीवनी (गंभीर):
सुविधा और सुख एक नहीं होते युग।
तुम हर दिन सफल हो जाते हो . . .
और मैं हर दिन कुछ और खो देती हूँ।
युग (थोड़ा चिढ़कर):
फिर क्या चाहिए तुम्हें?
प्यार?
मैं कोशिश करता हूँ . . .
पर तुम ख़ुद दीवार बन गई हो।
संजीवनी (आँखों में नमक लिए):
मैं दीवार नहीं युग . . .
मैं तो वो खिड़की हूँ,
जिससे तुमने कभी देखा ही नहीं।
युग (धीमे स्वर में):
तुम अब भी उसके बारे में सोचती हो न?
संजीवनी (एक लंबा मौन, फिर धीरे):
सोचना नहीं छोड़ सकता कोई . . .
जिसने आत्मा को छू लिया हो।
वो स्मृति नहीं . . . एक भाव है।
दीपक कोई ‘व्यक्ति’ नहीं . . .
वो मेरी अधूरी कविता है।
(एक लंबा मौन। युग उठकर टहलने लगता है। कमरे में एक घुटन-सी फैल जाती है।)
युग:
मैं तुम्हें खो नहीं सकता . . .
लेकिन तुम्हारा पा भी नहीं सका।
क्या यह विवाह है?
संजीवनी (धीरे से):
नहीं युग . . .
ये सिर्फ एक अनुबंध है . . .
जिसके हर हस्ताक्षर में . . .
एक नाम अधूरा छूट गया है।
(मंच पर हल्का प्रकाश मंद होता है। बाहर बारिश की ध्वनि आती है। संजीवनी खिड़की से बाहर देखते हुए मन ही मन बोलती है।)
संजीवनी (स्वगत):
कुछ रिश्ते . . .
जीते जी मर जाते हैं . . .
और कुछ . . .
मरकर भी साँस लेते हैं —
हर स्मृति में, हर खामोशी में।
(पर्दा गिरता है। धीमी रागिनी पृष्ठभूमि में बहती है।)
दृश्य षष्ठम: वर्षों बाद–मौन की भेंट
मंच संयोजन: एक साहित्यिक संगोष्ठी। मंच पर नामचीन लेखक, दर्शकों की क़तारें, दीवारों पर पोस्टर–“भावनाओं की पुनर्परिभाषा।”
दीपक अब एक प्रसिद्ध लेखक बन चुका है। उसकी नवीन पुस्तक ‘अनकही’ का विमोचन हो रहा है।
संजीवनी वहाँ एक अतिथि के रूप में आमंत्रित है–संयोग या नियति?
(पर्दा उठता है। दीपक मंच पर है, आत्मविश्वासी लेकिन गहन। संजीवनी दर्शकों की पंक्ति में बैठी है–शांत, किन्तु भीतर कुछ काँपता हुआ)
दीपक (श्रोताओं से):
“अनकही” कोई उपन्यास नहीं, एक जीवन की परछाईं है।
कुछ रिश्तों को शब्द नहीं चाहिए होते . . .
वे मौन में लिखे जाते हैं . . .
और मौन में ही समझे जाते हैं।
(संजीवनी की आँखों में पानी भर आता है। वो आँखें बंद कर लेती है। दीपक मंच से उतरता है। कुछ क्षणों बाद, दोनों आमने-सामने खड़े होते हैं— एक लंबी चुप्पी के बाद)
दीपक (धीरे से):
इतने वर्षों बाद भी . . .
तुम्हारी मौन उपस्थिति ने
मेरे हर शब्द को अर्थ दिया है।
संजीवनी (नज़रें नहीं मिलाते हुए):
शब्द तो तुम्हारे थे दीपक . . .
मैं तो बस एक अधूरी भावना थी . . .
जिसे तुमने पुस्तक बना लिया।
दीपक:
तुम अधूरी नहीं थीं . . .
तुमने ही तो मुझे पूरा किया।
संजीवनी (थोड़ी कठोरता से):
फिर क्यों छोड़ा मुझे उस मोड़ पर,
जहाँ न लौटने की राह थी,
न आगे बढ़ने की हिम्मत?
दीपक (गंभीर):
कभी-कभी छोड़ना नहीं होता संजीवनी,
छुट जाना होता है . . .
जैसे बारिश से भीगे अक्षर
धूप में सूख जाते हैं।
संजीवनी:
पर वो धूप . . . मेरे भीतर अब तक जल रही है।
दीपक:
और मेरे भीतर वो बारिश अब भी बरसती है . . .
पर दोनों मौसम कभी साथ नहीं आ सके।
(दोनों कुछ पल चुप रहते हैं। भीड़ हँसती है, बातें करती है, पर इन दो आत्माओं की भेंट में कोई आवाज़ नहीं)
संजीवनी:
तुम्हारी “अनकही” ने मेरी कहनियों को चुरा लिया . . .
पर शायद यही सही था।
मैं सामाजिक सम्मान में उलझ गई . . .
और तुम साहित्य की शरण में।
दीपक (हल्की मुस्कान के साथ):
तुम्हारे मौन ने ही मेरे लेखन को आवाज़ दी . . .
तुम मेरी प्रेरणा नहीं थीं . . .
तुम मेरी पीड़ा थीं— और इसलिए अमर हो गईं।
(संजीवनी की आँखों से आँसू बहते हैं। दीपक उसकी ओर रूमाल बढ़ाता है। वह मना नहीं करती)
संजीवनी (धीरे से):
हमारे बीच का रिश्ता अब भी जीवित है न?
दीपक (गंभीरता से):
नहीं . . .
अब वो शाश्वत हो गया है।
(दोनों एक बार फिर चुप हो जाते हैं। मंच पर शान्ति छा जाती है। पृष्ठभूमि में धीमे स्वर में कविता की पंक्तियाँ गूँजती हैं)
स्वर (ऑफ-स्टेज):
“कभी शब्द चुप रहे, कभी आँखें बोल उठीं,
जो अधूरा रहा . . . वही सबसे पूरा था . . .”
(पर्दा धीरे-धीरे गिरता है। दृश्य समाप्त)
दृश्य सप्तम: आत्मस्वीकृति–टूटन की ईमानदारी
मंच संयोजन: संजीवनी और युग का शयनकक्ष। एक ओर सूटकेस खुला पड़ा है–उसमें कपड़े, किताबें, कुछ तस्वीरें। मेज़ पर संजीवनी की डायरी खुली है, क़लम अटकी हुई।
रात है, खिड़की से चाँदनी भीतर उतरती है। एक गहरी चुप्पी चारों ओर बसी है।
(पर्दा उठता है। संजीवनी शांत बैठी है, जैसे शब्दों का ज्वार भीतर ही भीतर उठ रहा हो। युग भीतर आता है, थका हुआ, लेकिन चिंतित)
युग:
क्या तुम कहीं जा रही हो?
संजीवनी (धीरे):
नहीं युग,
मैं तो वहीं लौट रही हूँ
जहाँ मेरी आत्मा वर्षों से ठहरी थी—
मेरे भीतर।
युग (थोड़ी तल्खी):
मतलब?
अब तुम अकेले जीओगी?
तुम्हें हमारे रिश्ते की कोई क़ीमत नहीं?
संजीवनी (शांत, स्पष्ट):
यही तो दुख है . . .
हमारा रिश्ता सिर्फ़ बाहर था . . .
अंदर तो बस एक लंबा सन्नाटा था,
जिसमें तुम मुझे देख ही न सके।
युग (गंभीर):
क्या वो दीपक अब भी तुम्हारे मन में है?
संजीवनी (थोड़ा काँपती हुई):
हाँ युग . . .
वो अब भी है . . .
पर एक प्रेमी की तरह नहीं . . .
एक आईने की तरह
जिसमें मैं ख़ुद को देख पाती हूँ।
युग:
तो मैंने क्या दिया तुम्हें?
एक घर, सम्मान, साथ . . .
संजीवनी:
हाँ . . .
सब दिया . . .
पर वो ‘मैं’ नहीं दिया
जिसे मैं तुम्हारे साथ बाँटना चाहती थी।
तुमने मुझे छाया दी . . .
पर धूप की पहचान छीन ली।
युग (कुंठित):
तुम जानती हो, लोग क्या कहेंगे?
संजीवनी:
लोगों ने कभी वो नहीं देखा
जो हमने सहा।
मैं अब लोगों की नहीं,
अपने भीतर की जवाबदेही हूँ।
(वो अपनी डायरी उठाती है, युग के सामने रखती है)
संजीवनी:
इसमें मेरी सारी चुप्पियाँ हैं . . .
तुम चाहो तो पढ़ लेना,
शायद जान सको कि
तुम्हारी ‘पत्नी’ क्या-क्या नहीं कह पाई।
युग (थोड़ी नरमी से):
तुम मुझे छोड़ क्यों रही हो?
संजीवनी (आँखों में आँसू):
क्योंकि अब मैं ख़ुद को छोड़ नहीं सकती।
मैं टूटी हुई नहीं हूँ . . .
मैं अधूरी नहीं हूँ . . .
मैं सिर्फ़ खोई हुई थी . . .
अब मिल गई हूँ ख़ुद से।
(वो धीरे से सूटकेस बंद करती है। बाहर बारिश शुरू हो जाती है। युग खड़ा है–न रो रहा है, न बोल रहा है। सिर्फ़ मौन की चपेट में है)
संजीवनी:
अगर कभी तुम्हें भी ख़ुद से बात करनी हो . . .
तो इस डायरी को पढ़ लेना युग . . .
मैं शायद न दिखूँ . . .
पर शब्दों में मिल जाऊँगी।
(वह धीरे-धीरे बाहर की ओर बढ़ती है। मंच पर हल्का संगीत बजता है—एक करुण लेकिन आत्मसम्मान से भरा हुआ स्वर। पर्दा गिरता है)
दृश्य अष्टम: दो रचनाएँ–एक आत्मा
मंच संयोजन: एक पुस्तक मेले का आयोजन। अलग-अलग प्रकाशकों के स्टॉल। बीच में एक नुक्कड़ कैफ़े— 'शब्दसमय'। वहाँ एक कोना— शान्ति से भरा, दो कुर्सियाँ आमने-सामने।
दीपक अपनी नयी पुस्तक ‘राग-अलाप’ के विमोचन हेतु आमंत्रित है। संजीवनी भी अब लेखिका बन चुकी है— उसकी पहली पुस्तक ‘प्रतिबिंब’ का भी विमोचन है।
(पर्दा उठता है। दीपक अकेला बैठा है, कॉफ़ी का कप हाथ में। आँखों में वही पुराना सूनापन, पर अब उसमें बौद्धिकता की आभा है। संजीवनी धीरे-धीरे पास आती है। दोनों कुछ क्षण तक बिना कुछ कहे देखते हैं)
दीपक (हल्की मुस्कान से):
कभी सोचा न था . . .
हम दोनों की किताबें एक ही मेले में . . .
एक ही दिन . . .
संजीवनी (शांत स्वर में):
कभी सोचा भी न था . . .
कि जिन अधूरी बातों को हम जी न सके,
वो एक दिन किताबों में पूरी होगी।
दीपक:
‘राग-अलाप’ तो मेरी आत्मा की एक पुकार है . . .
पर तुम्हारी ‘प्रतिबिंब’ ने जवाब दे दिया।
संजीवनी (धीरे से):
कभी जो तुम्हारे शब्दों में छुप गई थी,
वही अब मेरे शब्दों में बोल रही है।
दीपक (गंभीर होकर):
तुमने लिखा . . .
“कुछ रिश्ते निभाने नहीं, पहचानने होते हैं।”
क्या हम वही थे?
संजीवनी (आँखें झुका कर):
हाँ . . .
हम कोई सामाजिक भूमिका नहीं थे . . .
हम चेतना के दो रंग थे,
जो मिल तो न सके,
पर एक चित्र बन गए।
दीपक (धीरे-धीरे):
मैंने जब भी लिखा . . .
तुम मेरी क़लम की स्याही बन गईं।
तुम्हारे बिना मैं शब्दों का ढाँचा था . . .
अर्थ तुम थीं।
संजीवनी:
और तुम्हारे बिना
मैं एक अनुभूति भर थी,
स्वर नहीं थी।
तुमने मुझे लेखनी दी . . .
मैंने उसमें अपना मौन उड़ेल दिया।
(कुछ क्षण चुप्पी छा जाती है। बाहर हल्की हवा चलती है। पुस्तक मेले की चहल-पहल जैसे धीमी हो गई हो)
दीपक:
क्या अब हम मित्र हैं?
संजीवनी (हल्की मुस्कान से):
नहीं दीपक . . .
अब हम एक-दूसरे के ‘अस्तित्व’ हैं।
रिश्तों से ऊपर की कोई पहचान . . .
जहाँ ईर्ष्या नहीं, अपेक्षा नहीं—
केवल स्वीकृति होती है।
दीपक (थोड़ा भावुक):
तुम्हारे शब्द . . .
अब भी वही शान्ति दे जाते हैं,
जैसे तुम्हारा मौन देता था।
संजीवनी (धीरे):
अब मेरा मौन शब्दों में बदल चुका है . . .
और तुम्हारे शब्द अब शान्ति हो चुके हैं।
(दोनों एक-दूसरे की पुस्तकें एक-दूसरे को देते हैं। कैफ़े में धीमी संगीत की लहर उठती है— कोई धीमा राग, कोई अंतर्मुखी स्वर। पर्दा धीरे-धीरे गिरता है)
दृश्य नवम: अंतिम साक्षात्कार–प्रेम का निर्वाण
मंच संयोजन: एक निजी अस्पताल का कमरा। दीवारें सफ़ेद, खिड़की पर हल्के नीले परदे। मशीनों की धीमी बीप . . . एक जीवित जीवन की टूटती साँसें।
दीपक बिस्तर पर है, चेहरे पर शान्ति, आँखें बंद। पास में एक नर्स। डॉक्टर बाहर जाते हैं।
संजीवनी भीतर प्रवेश करती है— आँखों में आँसू, पर स्वर में एक अद्भुत धैर्य।
(पर्दा उठता है। संजीवनी धीमे क़दमों से दीपक के पास जाती है। उसका हाथ अपने हाथ में लेती है)
संजीवनी (धीरे से):
दीपक . . .
अब शब्दों की कोई ज़रूरत नहीं . . .
तुम्हारे मौन ने वो सब कह दिया
जो पूरी उम्र हम कह न सके।
(दीपक की पलकों में हल्की हरकत होती है। संजीवनी उसकी धड़कन को छूती है— जैसे कोई अंतिम सन्देश सुन रही हो)
संजीवनी:
तुम जानते हो,
हमारा प्रेम कभी किसी सामाजिक नाम का मोहताज नहीं था . . .
वो तो एक निःस्वार्थ समर्पण था,
जहाँ मैं तुम्हारी कविता बन गई . . .
और तुम मेरे मौन का अर्थ।
दीपक (बहुत धीमे स्वर में):
सं . . . जी . . . व . . . नी . . .
क्या . . . तुम . . . रो रही हो?
संजीवनी (आँसू रोकते हुए):
नहीं दीपक . . .
आज नहीं . . .
आज मैं मुस्कुरा रही हूँ . . .
क्योंकि तुम्हें पाकर,
मैंने जीवन में सबसे सुंदर सत्य जाना—
प्रेम वह नहीं जो पास रखे,
प्रेम वह है जो अंत में भी शान्ति दे जाए।
दीपक:
तुम . . . मेरे अंतिम . . . अध्याय . . . की . . . सबसे . . . सुंदर . . . पंक्ति . . . हो . . .
संजीवनी (धीरे):
और तुम . . . मेरे जीवन की वह भूमिका . . .
जिसने मुझे लेखिका बनाया . . .
स्त्री नहीं, आत्मा बनाया।
(दीपक की आँखें धीरे-धीरे बंद हो जाती हैं। एक हल्की मुस्कान उसके होंठों पर आकर ठहर जाती है। मशीन एक लंबी बीप देती है। संजीवनी उसका हाथ अपने हृदय से लगाकर आँखें बंद कर लेती है)
संजीवनी (धीरे, आत्मा से):
जाओ दीपक . . .
अब किसी शब्द की आवश्यकता नहीं . . .
तुम मुक्त हो . . .
तुम मेरी कविता बनकर
हर पन्ने पर जीवित रहोगे।
(मंच पर एक धीमा प्रकाश उतरता है। हल्का संगीत–कोई मीठा, शांत राग . . . जैसे कोई आत्मा किसी और संसार में प्रवेश कर रही हो। पर्दा धीरे से गिरता है)
दृश्य दशम: विरासत–प्रेम का अमर स्वर
मंच संयोजन: एक साहित्य समारोह का मंच। पृष्ठभूमि में बड़ी स्क्रीन पर ‘अनकहे रिश्ते’ पुस्तक का आवरण। सामने माइक, एक कुर्सी, और संजीवनी की पुस्तकें सजाई हुईं। दर्शक बैठे हुए हैं— युवा, बुज़ुर्ग, कवि और साहित्यकार।
(पर्दा उठता है। संजीवनी मंच पर आती है, शांत और दृढ़। हाथ में अपनी पुस्तक)
संजीवनी (गंभीरता से):
आज मैं यहाँ केवल एक पुस्तक प्रस्तुत करने नहीं आई—
मैं अपने जीवन की एक यात्रा लेकर आई हूँ,
जहाँ प्रेम सिर्फ़ एक शब्द नहीं,
एक अनुभूति थी, एक संघर्ष था, एक गहन सत्य था।
(दर्शक ध्यान से सुनते हैं)
संजीवनी:
हमने प्रेम को निभाने की कोशिश की,
पर कभी-कभी निभाना पर्याप्त नहीं होता।
समझना पड़ता है, स्वीकारना पड़ता है—
और कभी-कभी, छोड़ना पड़ता है।
(संजीवनी की आवाज़ में हल्का भावुकपन)
संजीवनी:
यह नाटक, यह पुस्तक, उन अनकहे रिश्तों की कहानी है—
जहाँ दो आत्माएँ एक-दूसरे से अलग रहकर भी,
एक-दूसरे में गहराई से जुड़ी रहती हैं।
यह प्रेम का नया रूप है—
जो बंधनों से ऊपर, सीमाओं से परे होता है।
(संजीवनी एक गहरी साँस लेती है)
संजीवनी:
दीपक अब मेरे साथ नहीं,
पर उसकी कविताएँ, उसकी यादें, उसकी चेतना—
मेरे शब्दों में, हमारे बीच जीवित हैं।
और मैं विश्वास करती हूँ—
प्रेम का अर्थ यही है—
जाना, आना, और अमर होना।
(थोड़ी देर के लिए शान्ति छा जाती है। दर्शक तालियाँ बजाते हैं)
संजीवनी (मुस्कुराते हुए):
आइए, हम सब मिलकर इस प्रेम की नई भाषा को समझें,
जहाँ शब्द कम और अनुभव ज़्यादा हो,
जहाँ हम सब एक दूसरे की गहराई में झाँक सकें।
(संजीवनी पुस्तक के पन्ने पलटती है, मंच पर एक नया प्रकाश खिलता है— उम्मीद, जीवन और प्रेम की नई सुबह की तरह)
(पर्दा गिरता है)
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