प्रेम–प्रतिबिंब

01-05-2025

प्रेम–प्रतिबिंब

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

प्रस्तावना:

 

“प्रेम–प्रतिबिंब” केवल एक नाटक नहीं है—यह एक अनुभूति है, जो प्रेम की सूक्ष्मतम परतों को छूती है। यह उन मौन स्वरों की कथा है, जो कहे नहीं जाते, केवल जीये जाते हैं। यह उन आँखों की भाषा है, जो शब्दों की मोहताज नहीं होती। 

इस नाटक में प्रेम को संकुचित नहीं किया गया— न केवल मिलन तक, न केवल वियोग तक। 
यहाँ प्रेम एक यात्रा है—
संघर्ष से तपस्या तक, 
त्याग से आत्मबोध तक, 
और अंततः—जीवन की गहराइयों तक।

 

पात्रविवरण:

 

1. प्रिया:
राजपुरोहित की पुत्री। 
सुंदर, संवेदनशील, विदुषी, और प्रेम में अडिग। 
प्रेम को केवल भाव नहीं, धर्म समझने वाली नायिका। 

2. आर्य:
कवि, चिंतक, सामान्य कुल में जन्मा, पर आत्मा से उच्च। 
प्रेम को शब्द नहीं, साधना मानने वाला साधक। 
त्यागी, निर्मल और गंभीर। 

3. राजपुरोहित–
प्रिया के पिता। 
धर्म, कुल और समाज की परंपराओं का रक्षक। 
प्रेम को विद्रोह मानता है। 

4. दरबारीगण/सभा के सदस्य:
समाज की परंपराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। 
प्रेम और आत्मा की स्वतंत्रता से असहज। 

5. सखी (प्रियामित्रा):
प्रिया की आत्मीय सहेली। 
वात्सल्य और सलाह की सशक्त उपस्थिति। 

6. शिष्य:
आर्य का अनुयायी। 
जिज्ञासु, युवा और प्रेम के गूढ़ अर्थों को समझने वाला पात्र। 

7. नगरजन/स्त्रियाँ/वनवासी साधकगण:
वातावरण और समय की सोच को प्रतिबिंबित करते हैं। 

 

प्रथम दृश्य—चंद्रिका वन में प्रथम मिलन

 

(गद्य शैली में, विस्तृत संवादों के साथ) 

 

स्थान: झील के किनारे फैला चंद्रिका वन। 
रात्रि का पहला पहर है। फूलों की गंध और शीतल समीर वातावरण को रोमांचित कर रही है। झील में पूर्णिमा का चंद्रमा प्रतिबिंबित हो रहा है। 
प्रिया अकेली बैठी है, उसकी दृष्टि झील के जल पर स्थिर है, पर मन विचलित। 

 

प्रिया (स्वगत):

कितनी ही रातें आईं और गईं . . . 
पर आज की रात . . . कुछ अलग है। 
मन के भीतर एक अजीब सी गूँज है . . . 
जैसे कोई आने वाला हो। 

(एक क्षण रुककर) 

आर्य . . . 
तुम आओगे न? 

(कुछ दूर से क़दमों की धीमी आहट . . . आर्य प्रवेश करता है) 

आर्य:

मैं आया, प्रिया। 
उस पुकार को अनसुना नहीं कर सका
जो शब्दों से नहीं, आत्मा से निकली थी। 

प्रिया (धीरे से मुस्कराकर):

तुम्हें आना ही था . . . 
क्योंकि इस झील की हर लहर तुम्हारा नाम जपती रही। 

आर्य:

और तुम्हारे नाम की गूँज मेरी कविता में उतरती रही। 

प्रिया:

तुम जानते हो आर्य . . . 
जब तुम दूर होते हो, तब भी पास लगते हो। 
कभी हवा की सरसराहट में, कभी इस झील की चुप्पी में। 

आर्य:

प्रिया, दूरी केवल शरीर की होती है . . . 
मन की निकटता ही सच्चा मिलन है। 

प्रिया:

लेकिन मैं चाहती हूँ कि तुम सच में मेरे पास रहो, 
स्पर्श के नहीं, साथ के अर्थ में। 
ताकि जब मैं बोलूँ, तो तुम सुन सको। 
और जब मैं चुप रहूँ, तो तुम समझ सको। 

आर्य:

तो फिर यही वादा रहा, 
कि तेरी चुप्पियों को भी मैं गुनगुनाऊँगा। 

प्रिया (मुस्कराकर):

तुम्हारी बातें गीत-सी हैं . . . 
हर शब्द जैसे मेरे अंतर्मन को छू जाता है। 

आर्य:

क्योंकि मेरी हर बात तुम्हारे लिए ही तो जन्मी है। 
मैं जब कविता लिखता हूँ, 
तो लगता है जैसे तुम ही काग़ज़ पर उतर आई हो। 

प्रिया:

और मैं जब दर्पण देखती हूँ . . . 
तो उसमें अपनी छाया नहीं, तुम्हारी आँखें दिखती हैं। 

आर्य:

प्रिया, 
प्रेम इतना सरल नहीं होता। 
इसके रास्ते फूलों से नहीं, आग से बने होते हैं। 

प्रिया:

मैं उस आग में चलने को तैयार हूँ। 
अगर तुम साथ हो। 

आर्य:

साथ मेरा सदा रहेगा, 
पर क्या समाज हमें स्वीकारेगा? 

प्रिया:

मुझे समाज नहीं चाहिए, 
मुझे केवल वह सत्य चाहिए, जिसमें तुम हो। 

आर्य:

तुम्हारा साहस ही मेरी शक्ति है। 
तुम नहीं होती तो मैं केवल कवि होता, 
तुम हो, इसलिए मैं प्रेम का अनुभव हूँ। 

प्रिया:

कविता को अर्थ तब मिलता है, 
जब उसे कोई आत्मा मिलती है। 
मैं उस आत्मा को पहचानती हूँ–
वह तुम हो, आर्य। 

आर्य (धीरे से):

तू मिले तो जीवन संगीत बन जाए . . . 
वरना ये साँसें भी शोर लगती हैं। 

प्रिया (अश्रुपूरित नेत्रों से):

मुझे डर लगता है आर्य . . . 
कि कहीं ये क्षण बस एक स्वप्न न हो। 

आर्य:

अगर ये स्वप्न है, 
तो मैं कभी जागना नहीं चाहूँगा। 

प्रिया:

तो चलो . . . 
इस चाँदनी को साक्षी मानकर, 
एक व्रत लें? 

आर्य:

प्रेम का व्रत? 

प्रिया:

हाँ, 
कि चाहे जो भी हो—
हम एक-दूसरे को न छोड़ेंगे, 
न अपने भीतर के प्रेम को मरने देंगे। 

आर्य (हाथ बढ़ाते हुए):

मैं, आर्य, इस व्रत को स्वीकार करता हूँ . . . 
हर जन्म, हर युग में। 

प्रिया (हाथ थामकर):

और मैं, प्रिया, 
इस प्रेम को अमर मानकर, तुम्हारे साथ चलूँगी . . . 
हर आँधी, हर अग्नि-पथ में। 

(दूरी से कोई बाँसुरी की मधुर धुन गूँजती है। झील की लहरें थिरक उठती हैं। चाँद और अधिक उज्ज्वल प्रतीत होता है) 

 

दृश्य समाप्त। 

 

द्वितीय दृश्य–तिरस्कार और तपस्या का तिमिर

 

स्थान: 


राजसभा। महल के राजप्रांगण में सभा लगी है। सभा में प्रिया, राजपुरोहित (प्रिया के पिता), दरबारी, नगरजन और कुछ स्त्रियाँ उपस्थित हैं। वायुमंडल भारी है। एक प्रेम की पवित्रता, परंपरा की दीवारों से टकरा रही है। 

 

राजपुरोहित (क्रोधित):

प्रिया! 

कहते हैं तू एक साधारण कवि से प्रेम करती है? 
तू . . . जो राजवंश की पुत्री है, 
एक विपन्न ब्राह्मण से बंधन जोड़ना चाहती है? 

प्रिया (गंभीर स्वर में):

हाँ, मैंने प्रेम किया है। 
पर प्रेम कभी कुल, जाति, धन या सत्ता से नहीं डरता। 
वह केवल आत्मा की पुकार सुनता है। 

दरबारी 1 (हँसते हुए):

क्या प्रेम से राज्य चलता है, प्रिया? 
या कविता से पेट भरता है? 

प्रिया:

पेट भरने को अन्न चाहिए, 
पर आत्मा को प्रेम चाहिए। 

राजपुरोहित:

क्या तेरे पास विवेक नहीं? 
एक असमर्थ युवक, जो केवल शब्द बुनता है, 
क्या वह तुझे जीवन दे पाएगा? 

प्रिया (सहज):

जीवन वही देता है, 
जो हृदय में स्थान पाता है। 
बाक़ी सब भ्रम है। 

सभा की स्त्री 1:

प्रेम तो युवावस्था का मोह होता है। 
वक़्त के साथ मिट जाएगा। 

प्रिया:

वक़्त से जो न मिटे, 
वही प्रेम होता है। 

राजपुरोहित (कठोर स्वर में):

प्रेम तुम्हारा अधर्म है! 
और यदि तुम पीछे नहीं हटती, 
तो इस घर से, इस कुल से तुम्हारा त्याग होगा। 

(सभा में सन्नाटा छा जाता है) 

प्रिया (आँखों में आँसू लिए):

त्याग मुझे स्वीकार है, 
पर प्रेम का त्याग नहीं। 

(उसी क्षण आर्य प्रवेश करता है—वस्त्र धूलधूसरित, पर मुख तेजस्वी) 

आर्य:

मैं अपराधी हूँ, यदि प्रेम अपराध है। 
पर मैं अपनी प्रिया को नीचा नहीं देख सकता। 
यदि चाहो तो मेरा दंड मुझे दो। 
पर हमारे हृदयों पर राज करना, किसी सभा का अधिकार नहीं। 

राजपुरोहित:

तेरे जैसे कवि की यही औक़ात है—
कठिनाई से डरकर कविता में भाग लेना। 

आर्य (धीरे से):

कविता मेरी ढाल नहीं, मेरी आत्मा है। 
मैं युद्ध नहीं करता, पर सत्य के लिए झुकता भी नहीं। 

दरबारी 2:

क्या तुम प्रिया को सुख दे पाओगे? 

आर्य:

मैं उसके लिए महल नहीं बना सकता, 
पर प्रेम का मंदिर अवश्य बना सकता हूँ। 

राजपुरोहित:

जाओ! 
हम तुझे और तेरे प्रेम को त्यागते हैं। 

(आर्य प्रिया की ओर देखता है) 

आर्य:

प्रिया . . . 
मैं तेरे हृदय को दुःख नहीं देना चाहता। 
इसलिए मैं जा रहा हूँ। 
पर विश्वास रखना, मेरा प्रेम तुझसे कभी दूर नहीं जाएगा। 

प्रिया (काँपती आवाज़ में):

आर्य! 
जाओ नहीं . . . 
मुझे समाज से नहीं डर लगता। 
मुझे तुम्हारे बिना होने से डर लगता है। 

आर्य:

प्रेम का धर्म है तप . . . 
आज मुझे तप करना है— तेरे लिए, 
ताकि जब लौटूँ, 
तो केवल प्रेमी नहीं, प्रकाश बनकर लौटूँ। 

(आर्य झुकता है, प्रिया की आँखों से आँसू बहते हैं। 
वह चला जाता है। 
दृश्य थम जाता है) 

 

तृतीय दृश्य–मिलन और जीवन की गहराई

 

स्थान: 

 

हिमालय की तलहटी में एक साधक कुटी। 
बरसों बीत चुके हैं। 
आर्य अब एक तपस्वी है, भीतर स्थिर, बाहर मौन। 
प्रिया वन आश्रम में सेवा और ध्यान में लीन है। 
दोनों के बीच दूरी नहीं रही— बस मौन संवाद हैं। 

 

 

आर्य (स्वगत):

ये वर्षों की शान्ति मेरे भीतर एक कविता बन गई है . . . 
प्रिया, 
तेरे बिना भी तू मुझमें रही। 
हर ध्यान में तू, हर मौन में तू। 

शिष्य (आर्य से):

गुरुवर, आप प्रेम की बात करते हैं, 
पर कभी आपने प्रेम को पाया? 

आर्य (मुस्कराकर):

हाँ . . . 
और खोया नहीं, 
उसे भीतर जीया है। 

(उसी समय दूसरी ओर—प्रिया अपने आश्रम में) 

प्रिया (स्वगत):

समाज से छूटी, नाम से छूटी . . . 
पर आर्य की स्मृति से कभी मुक्त नहीं हो सकी। 
वह प्रेम, अब मेरी चेतना बन गया है। 

सखी:

प्रिया, तुम्हारी आँखें आज चमक रही हैं। 

प्रिया (धीरे से):

क्योंकि कोई आने वाला है . . . 
जिसे जाना नहीं था। 

अंतिम दृश्य

 

वही झील। 
वर्षों बाद वही चाँदनी, वही वायुमंडल। 
प्रिया और आर्य आमने-सामने खड़े हैं)

आर्य:

तू वैसी ही है . . . 
बस और शांत, और सुंदर। 

प्रिया:

और तुम . . . 
अब केवल कवि नहीं रहे, 
अब तुम ख़ुद एक कविता हो। 

आर्य:

हमारा प्रेम अब देह में नहीं रहा, 
अब वो एक अनुभूति है . . . 
जिसे शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता। 

प्रिया:

और जिसे कोई सभा तोड़ नहीं सकती। 

आर्य:

तू अब मेरी साधना की सिद्धि है, 
मेरा अंतर्यामी संगीत। 

प्रिया:

और तुम मेरी आत्मा का प्रतिध्वनि। 

आर्य:

तो चलो . . . 
अब साथ चलें—
न विवाह की रीतियों से, 
न समाज की मंज़ूरी से—
केवल प्रेम के मौन में। 

(दोनों एक-दूसरे का हाथ थामते हैं। 
झील के जल में चंद्रमा का प्रतिबिंब काँपता है। 
पार्श्व में एक सूक्ष्म, दिव्य बाँसुरी की धुन सुनाई देती है) 

 

दृश्य समाप्त। 

पटाक्षेप

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

बाल साहित्य कविता
दोहे
नाटक
साहित्यिक आलेख
कविता
सांस्कृतिक आलेख
रेखाचित्र
चिन्तन
काम की बात
कविता-मुक्तक
गीत-नवगीत
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
कहानी
सामाजिक आलेख
काव्य नाटक
लघुकथा
कविता - हाइकु
यात्रा वृत्तांत
हाइबुन
पुस्तक समीक्षा
कविता - क्षणिका
हास्य-व्यंग्य कविता
गीतिका
अनूदित कविता
किशोर साहित्य कविता
एकांकी
स्मृति लेख
ग़ज़ल
बाल साहित्य लघुकथा
व्यक्ति चित्र
सिनेमा और साहित्य
किशोर साहित्य नाटक
ललित निबन्ध
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में