राम संकल्प

15-06-2024

राम संकल्प

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 255, जून द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

(राम वनवास) 

काव्य नाटिका
काव्यानुवाद: सुशील शर्मा
 
पात्र: राम, लक्ष्मण, दशरथ, कैकेयी:, कौशल्या, सुमित्रा, सीता, मंथरा

 

प्रथम दृश्य

(राम के शील, आचरण एवं शौर्य की प्रसंशा चतुर्दिक फैली थी, राजा दशरथ अत्यंत प्रसन्न थे एवं ऐसा पुत्र पाकर स्वयं को धन्य समझ रहे थे, एक दिन राजा दशरथ ने दर्पण देख कर अपना मुकुट सीधा कर रहे थे, तभी उन्हें अपने कुछ बाल सफ़ेद दिखे, उन्होंने निश्चय कर लिया कि अब राम को युवराज का पद देकर राजकाज उन्हें सौंप कर वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश किया जाय) 

 

(नेपथ्य)
 
राम सुयश से दशरथ सुख में
गद्‌गद्‌ हृदय हुए राजा। 
पुण्य प्रतापी जिसका सुत हो
बजे प्रतिष्ठा का बाजा। 
 
दर्पण मुख दशरथ ने देखा
श्वेत केश का गुच्छ दिखा। 
राम अवध युवराज बनेगें
मन में निर्णय शीघ्र लिखा। 
 
मन प्रसन्न, तन पुलकित दशरथ
गुरु वशिष्ठ के आश्रम जाकर
बोले वचन विनीत शुभंकर
गुरु वशिष्ठ की आज्ञा पाकर। 

 

दशरथ:
 
सत्य आचरण, शौर्य, ज्ञान धन
राम शील गुणवान है। 
सबका हित वह चाहने वाला
धर्मात्मा विद्वान है। 
 
योग्य राम सब विधि से गुरुवर
क्यों न अवध युवराज हो। 
इस आनंद उत्सव का हिस्सा
पूरा अवध समाज हो। 
 
वशिष्ठ:
 
अति उत्तम निर्णय दशरथ यह
शीघ्र राम युवराज बनाओ। 
शीघ्र करो अभिषेक राम का
मन आनंद अमित सुख पाओ। 

 

(नेपथ्य)
 
पाकर गुरु वशिष्ठ की आज्ञा
दशरथ ने निज सभा बुलाई। 
रख कर यह प्रस्ताव सभा में
ध्वनिमत से स्वीकृति थी पाई। 
 
मँगवाई अभिषेक सामग्री
गुरुवर के आदेश से। 
मंडप तोरण चौक चमकते
मंगलमय परिवेश से। 
 
सभा मंडप बने विस्तृत
झालरों से सज रहे। 
मधुर ध्वनि में मोहते मन
वाद्य मधुरिम बज रहे। 
 
सूर्य के संकेत ध्वज पर
द्वार बाजे बज रहे
अवधवासी सभी प्रमुदित
द्वार मंगल सज रहे। 
  
हृदय से प्रमुदित रानियाँ हैं
दान भर भर दे रहीं। 
राम की छवि को निरख मन
प्रभु बलाएँ ले रहीं। 
 
(दशरथ यह शुभ समाचार देने के लिए मुनि वशिष्ठ को राम के पास भेजता हैं, राम उन्हें देख कर अपने आसन पर शीघ्रता से खड़े हो जाते हैं एवं उन्हें दण्ड प्रणाम करते हैं) 

 

राम:
 
हे गुरुवर प्रभु आप पधारे
अहो भाग्य हैं राम के। 
पद चरणों से पावन भूमि
भाग्य खुले इस धाम के। 
 
क्यों न मुझे बुलवाया गुरुवर
दास उपस्थित हो जाता
अपने गुरु आश्रम में जाकर
गुरुवंदन मैं कर आता। 
 
वशिष्ठ:
 
अति विशिष्ट यह बात पुत्र है
इसलिए मैं आया हूँ। 
मन आनंदमग्न है मेरा
फूला नहीं समाया हूँ। 
 
रामचंद्र तुम रघु-भूषण हो
शील ज्ञानगुण निधि विवेक
कल तुम रघु युवराज बनोगे
होगा राम राज्य अभिषेक। 

 

(यह शुभ समाचार सुनाकर एवं विभिन्न ज्ञान एवं कर्मकांड की बातें समझा कर वशिष्ठ मुनि वहाँ से जाते हैं, राम को यह अच्छा नहीं लगता है कि भरत और शत्रुघ्न की अनुपस्थिति में उनका राज्य अभिषेक हो, किन्तु पिता की आज्ञा एवं गुरु की आज्ञा को मानते हुए वो अनिच्छा से तैयार हो जाते हैं) 
 
(नेपथ्य)
 
देवों को यह नहीं सुहाया
राम राज्य का योग। 
रचा कुचक्र स्वार्थ के बस में
शारद का सहयोग। 
 
बड़ी विपत्ति में हैं माता
यह संदेशा पाकर। 
राम राज्य अभिषेक को रोको
बोले शारद से जाकर। 
 
दृश्य दो

  
(कैकेयी राम का राज्याभिषेक सुनकर अत्यंत हर्षित है एवं उन्होंने ब्राह्मणों को बुलाकर भोजन कराये एवं बहुत दान दक्षिणा दिन एवं प्रसन्न होकर अपने महल में गयी वहाँ उसने देखा उसकी प्रिय दासी मंथरा एक कोने में उदास बैठी है) 

 

कैकेयी:
 
क्यों उदास प्रिय दासी तुम हो
क्यों चुप हो तुम आज। 
मन प्रसन्न अपना कर लो तुम
अपना राम बना युवराज। 
 
मंथरा:
 
क्यों कल है अभिषेक राम का
क्यों कैकेयी आनंदित है। 
नहीं भरत है यहाँ उपस्थित
दासी इससे चिंतित है। 
 
कैकेयी:
 
मामा के गृह भरत गया है
लौट नहीं वह पाएगा। 
राम बना युवराज अवध का
दृश्य देख नहीं पायेगा। 
 
मंथरा:
 
रानी कैकेयी तुम भोली हो
समझ नहीं तुम पाओगी। 
दशरथ के इस कुचक्र में
फँस के बस रह जाओगी। 
 
दिया राम को राज्य अवध का
भरत को भेजा है परदेश। 
कपट भरी चतुराई देखो
कल ही निकला समय विशेष। 
 
कैकेयी:
 
चुप कर दुष्टा कूबड़ कुचाली
क्या कहती मन की मैली। 
घरफोड़ू ये कुधर कुवाचक
बात तेरे मन क्यों फैली। 
 
जीभ निकालूँ दुष्टा तेरी
शब्द कुवाचक अगर कहे। 
राम प्राण मेरे तन का है
हृदय में मेरे बसा रहे। 
 
ज्येष्ठ भ्रात ही राजा होता
सेवक होते लघु भ्राता। 
रघुकुल की यह रीति सुहावन
सुनले तू मेरी माता। 
 
कल होगा अभिषेक राम का
बोल तुझे क्या चाहिए। 
हृदय मगन आनंदित मेरा
जो चाहो वो पाइये। 
 
राम पुत्र है प्यारा मेरा
जीवन का आधार है। 
मैं उसकी प्यारी माता हूँ
राज्य राम अधिकार है। 
  
तुझे भरत सौगंध बोल तू
क्या तेरे मन डोल रहा है। 
सत्य शपथ तू आज बता री
जो मन तेरा बोल रहा है। 
 
मंथरा:
 
और भरत क्या नहीं है बेटा
क्या वो बहकर आया है। 
इतना भोलापन न अच्छा
जिसने मन भरमाया है। 
 
आग लगे मेरे इस मुख में
मैं जो सच्चा कहती हूँ। 
कौन हूँ क्या हूँ मैं रिश्ते में
जो मैं अच्छा कहती हूँ। 
 
स्वामी हित पर घात अगर हो
तो क्या मैं बस मौन रहूँ। 
मैं भी बस भोली बन जाऊँ
सच्ची बातें नहीं कहूँ। 
 
चिकनी चुपड़ी तुम को प्रिय हों
मैं तो कड़वी कहती हूँ। 
प्यारे लाल भरत के हित में
कड़वी बातें बकती हूँ। 
 
राजा तो मन के हैं मैले
तुम अति भोली भाली हो। 
उनके हृदय कपट बसता है
तुम पानी की प्याली हो। 
 
बड़ी चतुर कौशल्या रानी
थाह नहीं कोई पाता। 
अपना स्वार्थ सिद्ध करना बस
कौशल्या को ही आता। 
 
राजा को तुम अतिशय प्यारी
इससे मन में जलती है। 
भरत राज ने ले ले पूरा
डाह हृदय में पलती है। 
 
भरत को मामा के घर भेजा
इसमें भी षड्यंत्र है। 
नहीं कोई अब पथ में कंटक
राजा राम स्वतंत्र है। 
 
राजतिलक की तैयारी में
पूरा पखवाड़ा बीता। 
तुम्हें संदेशा आज मिला है
भाग्य तुम्हारा है रीता। 
  
अगर राम अभिषेक हुआ तो
तुम दासी बन जाओगी। 
कौशल्या फिर राज करेगी
तुम पथ ठोकर खाओगी। 
 
सेवक भरत रहेगा हर पल
क्या यह तुम सह पाओगी। 
अपने पुत्र के अधिकारों से
तुम वंचित हो जाओगी। 
 
भरत को भेजा मातुल गेह। 
नहीं था तनिक भी मन में नेह। 
दिया है राम को पूरा राज
भरत से सुत पर कर संदेह॥
 
कहूँ मैं यह सब छाती तान
नहीं है तुमको कुछ भी भान। 
भरत बन कर के केवल दास
राम का झेलेगा अभिमान। 
 
श्रेष्ठ बस कौशल्या की जात। 
दूध की मक्खी कैकेयी: मात। 
चाकरी बस तेरे निज हाथ
सत्य कहती हूँ कड़वी बात। 

 

(नेपथ्य)
 
सुनकर बातें मंथरा
कैकेयी हुई निढाल। 
क्रोध से भौंहें तन गईं
आँसू लुढ़के गाल। 

 

कैकेयी:
 
मैं भोली बनकर अब तक
सबको अपना कहती थी। 
षड्यंत्रों के इस जंगल में
निर्मल जल सी बहती थी। 
 
अपने वश मैं मैंने अब तक
बुरा किसी का नहीं किया। 
मेरे किन पापों के कारण
देवों ने यह कष्ट दिया। 
 
नहीं चाकरी सौत करूँगी
चाहे नैहर में रह लूँगी। 
अपमानों को नहीं सहूँगी
मृत्युदंड चाहे सह लूँगी। 
 
मंथरा:
 
नहीं अशुभ बोलो सुता
जियो हज़ारों वर्ष। 
अमर सुहागन तुम रहो
मन में रख कर हर्ष। 
 
जिसने चाहा है बुरा
उसका होगा नाश। 
तुम क्यों मन दुख पालती
रखो भरत की आस। 
 
ज्ञानी ज्योतिष ने कहा
भरत बने सम्राट। 
यदि आज्ञा हो आपकी
कह दूँ बात विराट। 
 
कैकेयी:
 
बस अब तू ही मेरा संबल है
क्यों न बात तेरी मानूँ। 
कहे यदि तू कुआँ कूद लूँ
तुझको बस अपना जानूँ। 
 
मंथरा:
 
तेरे दो वरदान अभी भी
हैं उधार राजा पर रानी। 
आज माँग लो उन दो वर को
आज करो अपनी मन मानी। 
 
भरत अयोध्या राजा होगा
राम मिलेगा वन का वास। 
ये दोनों वर उनसे माँगो
यह जीवन की अंतिम आस। 
 
राम शपथ जब राजा लेवें
तभी माँगना दोनों वर। 
आज रात्रि यदि बीत गयी तो
जीवन होगा कठिन कुधर। 
 
जाओ रानी कोप भवन में
त्रिया चरित्र तुम दिखलाओ। 
राजा को अपने वश करके
अपनी बातें मनवाओ। 
 
कैकेयी:
 
तू मेरी प्राणों से प्यारी
तू मेरी हितकारी है। 
बनी सहारा इन पीड़ा में
मन तेरा आभारी है। 

 

दृश्य तीन
 
(रात्रि विश्राम के लिए दशरथ कैकेयी के महल में पहुँचते हैं दासी कहती है कि रानी कोपभवन में है सुनकर राजा दशरथ चिंतित होकर कैकेयी: के पास जाते हैं) 

 

(नेपथ्य)

 

महल में जब पहुँचे भूपाल। 
वहाँ जाकर देखा जो हाल। 
हो गए जड़ नृप इंद्र समान
खिचीं रेखाएँ नृप के भाल। 
 
भूमि पर रानी गई थी लेट। 
पुराने वस्त्र थे लिए लपेट। 
सामने था आभूषण ढेर
क्रोध अंगों में लिया समेट। 
 
गए थे दशरथ मन को ताड़। 
सामने ज्वालामुखी पहाड़। 
विवश थे शौर्य शक्ति के केंद्र
वचन बोले मन भर कर लाड़। 

 

दशरथ:
 
क्यों रूठी हो प्राण प्रिये तुम
मुझको इसका बोध कराओ। 
हे सुलोचनी कोकिल बेनी
अब ज़रा समीप आ जाओ। 

   
(राजा स्नेह से कैकेयी को स्पर्श करते हैं, कैकेयी उनका हाथ झटक देती है) 

 

क्या विनोद यह प्रिया तुम्हारा
आज सभी आनंदित हैं। 
सबके मन सुख-साज सजे हैं
आज सभी जन प्रमुदित है। 
 
कौन है जिसने कष्ट दिया है
किसने मृत्यु न्योती है। 
किसने यम को याद किया है
किसकी बुझनी ज्योति है। 
 
किसने तुमको कष्ट दिया है
किसने पीड़ा पहुँचाई है। 
मुझको उसका नाम बताओ
जिसकी मृत्यु घिर आई है। 
 
देव अगर वो अमर भी होगा
तो भी न बच पायेगा। 
देव यक्ष गंधर्व मनुज हो
सीधा यम घर जायेगा। 
 
तेरा मुख चंदा के जैसा
दशरथ बना चकोर है। 
मेरे मन की तू स्वामिन है
हृदय तुम्हारी ओर है। 
 
प्रजा कुटुम्बी धन सम्पत्ति
पुत्रों की तू स्वामिन है। 
प्राण भी मेरे तेरे वश में
तू प्यारी मन भावन है। 
 
किया था तूने मेरा त्राण
लगे थे जब छाती में बाण
लड़ा था तूने वह संग्राम
बचाये तूने मेरे प्राण। 
 
माँग ले जो चाहे तू आज। 
प्राण अपने से कैसी लाज
है सौ बार राम सौगंध
करूँगा पूरे तेरे काज। 
 
तुझे दूँगा वरदान अभिन्न। 
माँग ले होकर हृदय प्रसन्न। 
राम की मुझको है सौगंध
आज मैं हारूँ वचन प्रपन्न। 
 
त्याग कर क्रोध अग्नि का राज। 
सजा लो अपने तन पर साज। 
पुत्र तेरा वह अति प्रिय राम
अयोध्या का कल हो युवराज। 

 

(कैकेयी जैसे ही राम के युवराज बनने की बात सुनती है तो उसके तन बदन में आग लग जाती है, किन्तु अपने मनोभावों को छुपा कर मुस्कुराते हुए बोलती है) 

 

कैकेयी:
 
जताते हो तुम झूठी प्रीति। 
जानती हूँ प्रिय यह नर नीति। 
बोलते हो पहले कुछ माँग
भूल कर बनते बड़े विनीत। 
 
याद मुझे है युद्धक्षेत्र में
दो वर का था वचन दिया। 
पर संदेह हृदय में मेरे
क्या दोगे तुम आज पिया। 
 
दशरथ:
 
सच है प्रिय में बड़ा भुलक्कड़
भूल गया मैं दो तेरे वर। 
पर तुमने ही कहा था मुझसे
माँगोगी तुम उचित समय पर। 
 
चार माँग लो दो के बदले
जो माँगोगी वो दूँगा। 
धन सम्पत्ति प्राण माँग लो
वचन नहीं पीछे लूँगा। 
 
रघुकुल की यह रीति सदा से
वचन असत्य नहीं होते
प्राण भले ही निकले तन से
मुख का वचन नहीं खोते। 
 
राम सत्य संकल्प है मेरा
शपथ राम की खाता हूँ। 
अंतिम वचन प्रिया यह मेरा
कहा जो वही निभाता हूँ। 
 
कैकेयी:
 
प्राण प्रिये पहला वर देदो
भरत अयोध्या राज मिले। 
अगर नाथ मैं तुमको प्यारी
मेरे मन यह पुष्प खिले। 
 
अगर नाथ मुझ पर प्रसन्न हों
दूजे वर की करूँ मैं आस। 
भरत भ्रात प्रिय पुत्र राम को
चौदह वर्ष मिले वनवास। 

 

(नेपथ्य)
 
क्रूर कराल वचन यह सुन कर
दशरथ तन मन टूट गया। 
हुए निढाल भूमि पर बैठे
जैसे सब कुछ छूट गया। 
 
सहम गए दशरथ कुछ ऐसे
जैसे झपटा बाज़ बटेर। 
रंग गया मुखड़े का उड़ सब
मन में था अति क्रोध घनेर। 
 
सारे सुंदर सपने टूटे
हृदय किसी ने फाड़ा है। 
कल्पवृक्ष जो अभी था फूला
कैकेयी ने उजाड़ा है। 
 
देख दशा राजा की ऐसी
कैकेयी क्रोधित हो बोली। 
भौंहें तान ठोकती छाती
पैर पटक धरती डोली। 

 

कैकेयी:
 
भरत नहीं क्या पुत्र आपका
जो यह मुँह लटकाये हो। 
क्या विवाहिता नहीं आपकी
भगा मुझे क्या लाए हो। 
 
सुन कर वचन हमारे प्रियवर
क्यों बिजली तन दौड़ी है। 
क्यों बैठे तुम बन कर मूरत
बुद्धि कहाँ पर छोड़ी है। 
 
यदि नहीं वश में वर देना
मना मुझे अब कीजिये। 
सत्य प्रतिज्ञ सूर्यवंशीं हैं
यह न दुहाई दीजिये। 
 
कहा आपने सो माँगे वर
भले आप न दीजिये। 
सत्य छोड़ अपयश अपनाकर
कुल कलंक धर लीजिये। 
 
शिबि, दधीचि, बलि ने तो अब तक
तन, धन सब कुछ पल में त्यागा। 
मर्यादा वचनों की राखी। 
दशरथ क्यों बन रहा अभागा। 

 

(कैकेयी के कटुवचन सुन कर दशरथ अंदर से अपने आप को अत्यंत अपमानित महसूस कर रहे थे पर अब कुछ नहीं हो सकता था तीर कमान से निकल चुका था। अतः दशरथ ने क्रोध के स्थान पर प्रेम से कैकेयी को समझाने का प्रयास किया) 

 

दशरथ:
 
प्रिये क्यों छोड़ी तुमने प्रीति। 
कहाँ की है यह कुटिल कुनीति। 
भरत राम दो मेरे नेत्र
ज्येष्ठ को राज्य वंश की नीति। 
 
बात सदा है प्रिय यह सत्य
दोष यह मेरा निश्चित नित्य
नहीं बताई तुमको बात
कहता नहीं हूँ कभी असत्य। 
 
भरत को कल ही दूँगा राज्य। 
किन्तु क्यों बातें करो विभाज्य। 
राम से सुत को क्यों वनवास
राम क्यों बना आज परित्याज्य। 
 
रोक ले यह दूजा वरदान। 
प्रेम का मेरे कर सम्मान। 
माँग ले बदले में सौ दान
राम है तेरा पुत्र विधान। 
 
राम पर तुझको नेह विशेष। 
आज पर क्यों यह क्रोध अशेष। 
राम से सुत को क्यों वनवास
आज क्यों राम निकाला देश। 
 
राम तो मेरे तन का प्राण। 
राम बिन कैसे होगा त्राण। 
राम ही आदि राम ही अंत
क्यों बिंधा हृदय ये बाण। 
 
तेरे चरण पखारूँ रानी
नहीं राम को दूर करो। 
मेरे प्राण उसी में बसते
प्राण हमारे यूँ न हरो। 
 
(कैकेयी ने ग़ुस्से से राजा दशरथ को देखा एवं अपने वचन पर अटल रहते हुए बोली) 
 
कैकेयी:
 
मैं दृढ़ हूँ अपने वचनों पर
वचन आप क्यों तोड़ते। 
पहले वचन हार कर मुझसे
अब क्यों यह मुख मोड़ते। 
 
लाख उपाय करो रघुवंशी
वचन नहीं वापस लूँगी। 
वचन यदि मेरे न माने
त्याग प्राण अभी दूँगी। 
 
अंत जो ऐसा ही करना था
माँग माँग क्यों कहते थे। 
झूठे धर्म धुरंधर बन कर 
व्यर्थ आन में रहते थे। 
 
इक असहाय स्त्री की भाँति
रघुवंशी क्यों रोते हो। 
अपने पुत्र, राज्य के पीछे
क्यों मन धीरज खोते हो। 
 
या तो वचन छोड़िये राजा
या धीरज धारण करिये। 
सत्यव्रती राजा की भाँति
वचन शीघ्र मेरे भरिये। 
 
दशरथ:
 
मेरा काल समाया तुझ में
नहीं तुम्हारा दोष है। 
है पिशाच की वाणी तेरी
ख़ाली बुद्धि कोष है। 
 
नहीं चाहता भरत राजपद
सब तेरी दुर्बुद्धि है। 
होनहार कुसमय पर देखो
बिगड़ी तेरी बुद्धि है। 
 
कैसा खेल विधि ने खेला
तू कलंकनी वंश की। 
तू चाहे जो मन की कर ले
तू मृत्यु के अंश की। 
 
दृष्टि से तू ओझल हो जा
तू कपटी कुल घातन है। 
मेरी मृत्यु की तू वाहक
नीच नारि तू पापन है।

 

दृश्य चार

 

(रात्रि भर राजा दशरथ मन में अति चिंता भर कर राम राम की रट लगाए थे, एक क्षण को भी उनको नींद नहीं आयी जैसे सबेरा हुआ वह पुनः भूमि पर पड़े पड़े विलाप कर रहे थे, कह रहे थे कि राम को बुलाओ। सुमंत्र राम को बुलाते हैं, राम दौड़ते हुए आते हैं एवं दशरथ का सिर अपनी गोद में ले कर बैठ जाते हैं) 

 

राम राम हे राम कहाँ हो
मेरे प्राण बचाओ तुम। 
पिता तुम्हारा शक्ति हीन है
शीघ्र यहाँ अब आओ तुम। 
 
हे मेरे प्रिय कुल के दीपक
तुम दशरथ के प्राण हो। 
तुम बिन जीवन रहे अधूरा
तुम बिन कैसे त्राण हो। 

(राम दशरथ से कई बार पूछते हैं कि आपकी यह दशा क्यों हुई किन्तु दशरथ कोई उत्तर नहीं देते मात्र राम राम का विलाप करते रहते हैं, राम कैकेयी से पूछते हैं) 

 

राम:
 
हे माता बतलाइये
पिताश्री का त्रास
क्यों इतने पीड़ित पिता
क्या कुछ है आभास। 
 
रोग इन्हें क्या हो गया
क्यों है तप्त शरीर। 
हृदय विकल क्यों हो रहा
मन क्यों विषम अधीर। 
 
 कैकेयी:
 
नेह राम से अत्यधिक
यही है इनका रोग। 
विकल प्राण तन में हुए
सहें न राम वियोग। 
 
इच्छित वर मैंने लिए
भरत राज्य अभिषेक। 
राम तुम्हारा वन गमन
बस इतनी सी टेक। 
 
विकल हृदय तबसे है इनका
पल युग जैसे कटते हैं। 
होकर हृदय अधीर विकल मन
राम राम बस रटते हैं। 
 
राम:
 
सुन माता वो सुत बड़भागी
पिता की आज्ञा जो माने। 
मात-पिता की मन संतुष्टि
यही लक्ष्य बस जो जाने। 
 
वन में ऋषि मुनि मुझे मिलेंगे
जीवन का होगा कल्याण। 
मात-पिता की अनुपम आज्ञा
बनेगी मेरी जीवन त्राण। 
 
इससे बढ़कर क्या सुख होगा
मेरा भरत बनेगा राजा। 
उसके मस्तक मुकुट देख कर
हृदय राम के हर्ष विराजा। 
 
बस इतनी छोटी बातों पर
पिता धैर्य क्यों खोते हैं। 
मेरे इस सौभाग्य विषय पर
क्यों अधीर मन होते हैं। 
 
दशरथ:
 
देख अभागिन किसको तूने
आज ये वन का वास दिया
मेरे सरल निष्कपट राम को
घोर कष्ट आभास दिया। 
 
अभी समय है रोक ले इसको
जग तेरे गुण गायेगा। 
अगर हठी तू रही वचन पर
हृदय बहुत पछतायेगा। 
 
बिना राम तन मृत्यु निश्चित
तू विधवा हो जाएगी। 
राम बिना क्या भरत रहेगा
तू कुछ भी न पाएगी। 
 
(दशरथ राम वियोग सोच कर मूर्छित हो जाते हैं) 
 
कैकेयी:
(राम से)
 
मात-पिता के प्रिय सुत तुम हो
पिता का मन समझाओ तुम। 
रघुवंशी के वचन अटल हैं
इनको प्रिय बतलाओ तुम। 
 
बलिहारी सुत आज तुम्हारी
तुम सच्चे रघुवंशी हो। 
अपने पिता का मान बचा लो
धैर्य धर्म के अंशी हो। 
 
(दशरथ की मूर्छा खुलती है तो वह फिर राम राम की रट लगा कर राम को बार बार गले से लगते हुए विलाप करते हैं) 
 
दशरथ:
 
महादेव मम विनती सुनलो
आप तो औघड़दानी हैं। 
मैं सेवक हूँ आशुतोष प्रभु
आप महा अवदानी हैं। 
 
राम चित्त ऐसी बुद्धि दो
पिता की आज्ञा न माने। 
शील नेह का त्याग करे वह
मेरे वचन न पहचाने। 
 
सुयश नष्ट चाहे मेरे हों
स्वर्ग नर्क में जहाँ रहूँ। 
राम आँख से न ओझल हो
चाहे जितने कष्ट सहूँ। 
 
राम राम हा राम तुम्हीं हो
मेरे प्राणों के आधार। 
राम राम हा राम तुम्हीं हो
मेरे जीवन का आचार। 
 
राम राम हा राम तुम्हीं हो
सद्गुण धर्म धैर्य की रीत। 
राम राम हा राम तुम्हीं हो
दशरथ जीवन का संगीत। 
 
राम राम हा राम तुम्हीं हो
अवध बिहारी रघुनायक। 
राम राम हा राम तुम्हीं हो
दशरथ तन मन अधिनायक। 
 
(दशरथ अत्यंत दुखित होकर विलाप करते हैं उनकी यह देश देख कर राम उन्हें समझाते हैं) 
 
राम:
 
मैं अज्ञानी अल्पज्ञ हूँ
पिता आप हो श्रेष्ठ। 
इतनी छोटी बात पर
क्यों इतना दुःख नेष्ठ। 
 
धर्म धैर्य रघुवंश के
आप श्रेष्ठ प्रतिमान। 
विकल हृदय मत कीजिये
आप धर्म अधिमान। 
 
वचन आपका पालना
मेरा है कर्त्तव्य। 
रघुकुल रीति सँभालना
है मेरा मंतव्य। 
 
भरत अनुज है प्रिय मुझे
कर उसका अभिषेक। 
मन प्रसन्न करिये पिता
बन कर साधु विवेक। 
 
मुझको आज्ञा दीजिये
शीघ्र आऊँगा लौट। 
करें आप मन से क्षमा
मेरी सारी खोट।

 

दृश्य पाँच

 

(राजा दशरथ बिना कुछ कहे दूसरी ओर मुँह कर लेते हैं राम माँ कौशल्या की आज्ञा लेने दूसरे महल में जाते हैं) 

 

राम:
 
माँ कौशल्या के चरणों में
नमन राम स्वीकार हो। 
आशीर्वाद मुझे दो माता
सदगुण नित आधार हो। 
 
कौशल्या:
 
सुखद घड़ी है आने वाली
राम राज्य अभिषेक की। 
राम बड़ा ज्ञानी सुत मेरा
बातें विनय विवेक की। 
 
अवधपुरी के सारे वासी
कितना मन उत्साह भरे। 
राम अवध युवराज बनेंगे
सब अंतस मन साध धरे। 
 
शीघ्र नहा कर वस्त्र बदल लो
मुँह मीठा अपना कर लो। 
पिता श्री की आज्ञा लेकर
मुकुट आज सिर पर धर लो। 
 
राम:
 
धन्य मात वत्सल तेरा है
धन्य पिता का प्रेम है। 
राम कृतज्ञ हृदय से माता
कुशल अवध का क्षेम है। 
 
पिता ने वन का राज्य दिया है
मेरा मन आनंदित है। 
सभी कार्य मेरे शोधित हों
जीवन सुखद सुगन्धित है। 
 
मातु आपकी यदि अनुमति हो
मैं वन को जाना चाहूँ
पिता वचन को पूर्ण कराने
मातु नेह पाना चाहूँ। 
 
(वन की बात सुनकर कौशल्या भौंचक्की रह जाती हैं, राम के साथ जो मंत्री थे वो सारी बातें कौशल्या को बताते हैं, कौशल्या पर जैसे दुःख का पहाड़ टूट पड़ता है, अपने को धीरज बँधा कर वह राम से कहती हैं) 

कौशल्या:
 
तुम सुकुमार पिता के प्यारे
तनिक भी न आभास दिया। 
अवध राज्य सिंहासन बदले
क्यों तुमको वनवास दिया। 
 
मात्र पिता का यदि वचन हो
मातु वचन पर रुक जाओ। 
मात-पिता यदि दोनों चाहें
तो फिर निश्चित वन जाओ। 
 
यदि हठ से मैं पुत्र को रोकूँ
धर्म सभी का नष्ट हो। 
वंश मध्य में क्लेश हो भारी 
मन में सबके कष्ट हो। 
 
पति की आज्ञा का पालन ही
मेरा पहला धर्म है। 
उनका वचन असत्य न होवे
यही धर्म का मर्म है। 
 
बिन तेरे न भरत रहेगा
प्रजा को भारी कष्ट हो। 
पिता तुम्हारे दुखी रहेंगे
सुख समृद्धि नष्ट हो। 
 
वन के भाग बहुत बड़शाली
अवध अभागा राज्य है। 
जिसने त्यागा राम लला को
वहाँ कष्ट साम्राज्य है। 
 
धर्म धुरी प्रिय तुम सुत मेरे
दया दान की खान हो। 
ईश देव सब करेंगे रक्षा
राम आत्म अभिमान हो। 
 
(उसी समय यह समाचार सुनकर सीताजी अकुला उठीं और सास के पास जाकर उनके दोनों चरणकमलों की वंदना कर सिर नीचा करके बैठ जाती हैं, सीता की मनोदशा देख कर कौशल्या राम से कहती हैं) 

कौशल्या:
 
नहीं कहूँगी मुझे साथ लो
नेह का बंधन न डालूँगी
न हो कुछ संदेह हृदय में
मात धर्म मैं नित पालूँगी। 
 
जब वह नन्हा राम हमारा
माँ माँ कह कर तुतलाता था। 
आकर के मेरी गोदी में
वह नन्हा सो जाता था। 
 
उस पल का सुमरन कर कर मैं
समय वर्ष चौदह काटूँ। 
नहीं धर्म से विलग करूँ मैं
राम किसी से न बाटूँ। 
 
बस इस माँ की यह विनती है
सीता हृदय हमारी है। 
इसको अपने साथ रखो तुम
यह इसकी अधिकारी है। 
  
सीता अतिसुकुमार हंसनी
वन के दुःख कैसे भोगे। 
बिना राम वह रहे न जीवित
क्या आज्ञा उसको दोगे। 

 

दृश्य छह

 

(राम सीता से माँ के सामने बात करने में सकुचाते हैं, पर वह जानते हैं कि इस समय सीता से बात करना अति आवश्यक है) 

 

राम:
 
हे सीते मैं सीख बताऊँ
बात नहीं मन लेना तुम
हे सुकुमारि भार्या मेरी
ध्यान बात पर देना तुम। 
 
मेरा अपना भला चाहती
तो तुम मेरी बात सुनो
वचन मान कर मेरा देवी
तुम माता की गोद चुनो। 
 
सास-ससुर के पद पूजो तुम
यही बहू का धर्म है। 
उनका मन प्रसन्न तुम रखना
यही सिया का कर्म है। 
 
कौशल्या माँ की सेवा में
सीय छोड़ कर मैं जाऊँगा। 
सीता के द्वारा बरबस ही
सेवा का फल मैं पाऊँगा। 
 
प्रिय सीता हे सुमुखि सियानी
संग मेरे यदि तुम जाओगी। 
बड़ा कठिन वन का जीवन है
तन मन से तुम दुःख पाओगी। 
 
जाड़ा वर्षा धूप हवा सब
रूप भयानक वन के हैं। 
दुर्गम पथ कटंक से पूरित
कठिन कष्ट तन मन के हैं। 
 
बाघ भेड़िये सिंह भयानक
नदिया नाले गहरे हैं। 
कंद मूल फल का भोजन है
अंधकार के पहरे हैं। 
 
वन के योग्य नहीं तुम सीते
लोग मुझे सब टोकेंगे
अपयश मेरा करेगा पीछा
परिजन तुमको रोकेंगे। 
 
(श्रीराम के कोमल तथा मनोहर वचन सुनकर सीताजी के सुंदर नेत्र जल से भर गए। श्री राम की यह शीतल सीख उनको जलाने वाली लगी) 

सीता:
 
बात आपकी सत्य है प्रियवर
शिक्षा सुखद सुनहरी है
पर क्या मेरी बात सुनेंगे
पीड़ा मन में गहरी है। 
 
बिना पति स्त्री का जीवन
नारकीय हो जाता है। 
पति वियोग में भाग्य नारि का
पीड़ा में खो जाता है। 
 
हे रघुवर हे रघुकुल दिनमणि
हे प्राणनाथ हे दयानिधान
बिना पति स्त्री का जीवन
लगता मुझको नर्क समान। 
 
हीन सभी रिश्ते बिन पति के
नहीं पूर्ण होवें सब काज। 
धन शरीर घर नगर राज्य सब
बिन पति के हैं शोक समाज। 
 
बिन पति जैसे देह जीव बिन
बिना नीर के नदी रहे
वैसे ही बिन पति के स्त्री
कष्ट स्वर्ग में नित्य सहे। 
 
निर्मल शरद चंद्र सा श्री मुख
सीता के सब कष्ट हरे। 
सारे सुख प्रभु मैं पा जाऊँ
तन मन प्रभु का साथ धरे। 
 
कंद फूल फल अमृत होंगें
मेरु महल अयोध्या जैसे। 
पक्षी पशु कुटम्बी होंगे
पर्णकुटी सुख कम हो कैसे। 
 
पति चरणों की सेवा करना 
मेरा पहला कर्म है। 
प्राणपति के श्री मुख दर्शन
पत्नी का नित धर्म है। 
 
चौदह वर्ष दूर रह कर के
प्राण रहित हो जाऊँगी
मुझे अयोध्या यदि छोड़ा प्रभु
आप से न मिल पाऊँगी। 
 
दीन बंधु हे शील के सागर
सीता शरण तुम्हारी है। 
सीता को सेवा में रखिये
सादर विनय हमारी है। 
 
(राम समझ गए यदि सीता को अयोध्या में छोड़ा तो यह प्राण त्याग देगी अतः उन्होंने सीता को साथ ले चलने का वचन दिया) 
 
राम:
 
हे सीता सुकुमार भामनी
पीड़ा में मत आप जलो। 
त्यागो सोच छोड़ चिंता को
संग मेरे वनवास चलो। 

 

दृश्य सात

 

(जब लक्ष्मणजी ने यह समाचार सुना तो वे व्याकुल एवं उदास होकर राम के पास आये उनका शरीर काँप रहा है, रोमांचित था, नेत्र आँसुओं से भरे हैं। प्रेम में अत्यन्त अधीर होकर उन्होंने श्री रामजी के चरण पकड़ लिए) 

 

(नेपथ्य)

 

व्याकुल मन उदास तन लक्ष्मण
नैनों में जल के धारे। 
रघुवर के चरणों में बैठे
प्रेम मग्न सब कुछ हारे। 

 

राम:
 
मत अधीर मन को करो
नेह न तुम मुझसे बांधों
करो प्रजा की सेवा उत्तम
निज कर्त्तव्यों को साधो। 
 
मात-पिता गुरु स्वामी शिक्षा
का अनुपालन करते जो
जन्म सफल उनका होता है
कर्त्तव्यों को भरते जो। 
 
अतः अनुज तुम रहो अयोध्या
सीख मेरी उत्तम मानो
मात-पिता के ही चरणों में
स्वर्ग धाम अपना जानो। 
 
अगर साथ तुमको ले जाऊँ
राज्य अयोध्या बने अनाथ। 
मात-पिता गुरु प्रजा सभी का
मान धरो तुम अपने माथ। 
 
सबके मन संतोष रहेगा
लक्ष्मण होगा उनके पास। 
जिसकी प्रजा रहे दुखियारी
नृप को मिले नरक का वास। 
 
लक्ष्मण:
 
नाथ दास है अनुज आपका
मैं सेवक तुम स्वामी हो
क्या कह सकता हूँ प्रभु तुमसे
तुम मन अन्तर्यामी हो। 
 
नेह मिला बचपन से प्रभु का
अनुज आपका बालक हूँ
बिना आपके व्यर्थ है जीवन
प्रभु आज्ञा का पालक हूँ। 
 
मात-पिता गुरु सभी आप हो
बस इतना मैंने जाना। 
आदि अंत रघुवर चरणों में
लक्ष्मण ने अपना माना। 
 
नेह प्रेम विश्वास सभी प्रभु
शुरू आप से होते हैं। 
सारे रिश्ते नाते जाकर
प्रभु चरणों में खोते हैं। 
 
दीनबंधु रघुनायक स्वामी
जिसे वेद ने गाया है। 
मेरे सबकुछ मेरे भैया
सब कुछ तुमसे पाया है। 
 
शिक्षा उसको दी जाती है
जिसके मन अभिलाष रहे। 
मैं प्रभु चरणों का सेवक हूँ
बस सेवा की आस रहे। 
 
नहीं त्यागने योग्य प्रभु मैं
साथ मुझे वनवास मिले। 
नहीं चाहता महलों के सुख
लखन प्रभु के साथ खिले। 

 

 (राम समझ गए कि लक्ष्मण उनके बिना अयोध्या में नहीं रह सकते अतः उन्होंने लक्ष्मण को अपने साथ चलने की आज्ञा दे दी, राम, लक्ष्मण और सीता माता पिता से आज्ञा लेकर वन को प्रस्थान करते हैं, सभी लोग शोकाकुल होकर राम के साथ वन जाने के लिए उनके पीछे-पीछे चलते हैं) 

 

(नेपथ्य)
(कोरस में) 
  
अवधपुरी को सूनी करके
मत जाओ रघु मत जाओ। 
हमें अकेला नाथ छोड़ कर
मत जाओ प्रभु मत जाओ
 
तुम ही जीवन प्राण हमारे
तुम ही तो रखवारे हो। 
रघुकुल के तुम मुकुट शिरोमणि
हम सबके तुम प्यारे हो। 
 
तुम बिन कैसे दिन निकलेगा
कैसे संझा रात ढलेगी। 
तुम बिन जीवन बुझती बाती
तुम बिन कैसे साँस चलेगी। 
 
हम सबके तुम राज दुलारे
मत जाओ रघु मत जाओ। 
 
उस कैकेयी की मति है मारी
जिसने यह वनवास दिया। 
उस सुकुमारी प्रिय सीता को
काँटों का आवास दिया। 
 
जंगल में कैसे भटकेंगे
कंदमूल फल खाएँगे। 
ये सुकुमार हिरण से छौने
वन कैसे रह पाएँगे। 
 
लगे अयोध्या मरुथल जैसी
मत जाओ रघु मत जाओ। 
 
बिन ज्योति का सूरज जैसे
बिन जल जैसी मछली है 
बिना राम के लगे अयोध्या
जैसे कारी कजली है
 
सूनी गलियाँ अवधपुरी की
सूने महल मुहारे हैं
चौदह साल कष्ट में बीतें
हमअपना सब हारे हैं। 
 
सब वन को साथ चलेंगे
ले जाओ प्रभु ले जाओ। 
 
अवधपुरी को सूनी करके
मत जाओ रघु मत जाओ। 
हमें अकेला नाथ छोड़ कर
मत जाओ प्रभु मत जाओ। 
 
 (पटाक्षेप) 

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