स्त्रियों का मन एक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड
डॉ. सुशील कुमार शर्मा
स्त्रियाँ जब मिलती हैं
तो जैसे बंद कमरे की खिड़कियाँ
अचानक खुल जाती हैं
धूप भीतर उतरती है,
हवा सरसराती है,
मन की जमी धूल उड़ती है।
वे बातें करती हैं
जैसे वर्षों से बंद संदूक खुला हो
जैसे स्मृतियों की गठरी
अब बिखर कर
अपने असली रंगों में लौट आई हो।
वे हँसती हैं
तो जैसे सूखी डाल पर
अचानक पत्ते फूट आए हों।
वे रोती हैं
तो बस पल भर की नमी से
आकाश भी थम जाता है।
उनकी बातों में
दुनिया भर की उलझनें हैं,
दुनिया भर के सपने,
आशंकाएँ, इच्छाएँ, ज़िदें।
कभी साड़ी की बात,
कभी झुमकी की चमक,
कभी मेहँदी की रंगत।
कभी बच्चों की बीमारी,
कभी ज़माने की शिकायत।
कभी घर की चारदीवारी में
गूँजती अनकही बातें।
पर क्या यही सब है?
नहीं।
इनके भीतर तो पूरा ब्रह्मांड छिपा है
आशाओं की नदियाँ,
संघर्षों के पहाड़,
अधूरे सपनों की राख में दबी चिंगारियाँ।
वे सजती हैं
तो अपने लिए,
अपने आत्मविश्वास के लिए।
वे शिकायत करती हैं
तो इसलिए नहीं कि उन्हें दया चाहिए,
बल्कि इसलिए कि
उन्हें सुना जाए।
वे बोलती हैं
तो इसलिए नहीं कि समय काटना है,
बल्कि इसलिए कि
उनके भीतर जो शब्द हैं
उन्हें बहना है।
वे चुप भी रहती हैं
तो इसलिए नहीं कि वे निर्बल हैं,
बल्कि इसलिए कि
कभी मौन ही उनका प्रतिरोध होता है।
स्त्रियाँ कम हैं
बिना बातों के,
जैसे नदी बिना जल के,
जैसे बीज बिना मिट्टी के।
और अधूरी हैं
बिना स्त्रियों के ही
क्योंकि जीवन की हर कहानी में
उनकी साँस शामिल है।
पर क्या कोई जानता है
कि वे सिर्फ़ बातें नहीं हैं
वे संवेदना हैं,
वे विचार हैं,
वे संघर्ष हैं,
वे निर्माण हैं,
वे धैर्य हैं,
वे हिम्मत हैं,
वे अपने अस्तित्व की उद्घोषणा हैं।
वे अपने लिए जीती हैं
जैसे कोई पौधा
पत्थरों के बीच भी
अपनी जड़ों को फैलाता है।
वे अपने निर्णय ख़ुद चुनती हैं,
भले दुनिया उन्हें रोकती रहे।
वे सपने बुनती हैं
तो उसमें बच्चों की मुस्कान है,
अपने करियर की राह है,
आत्मसम्मान की लौ है।
वे रिश्तों में बँधती हैं
तो इसलिए नहीं कि किसी की छाया चाहिए,
बल्कि इसलिए कि साझा यात्रा सुंदर हो।
वे गिरती हैं,
फिर उठती हैं,
फिर चलती हैं
अपनी लय में, अपने समय में।
वे अपने भीतर
आज़ादी की एक चिंगारी
जलाए रखती हैं
जिसे कोई आँधी बुझा नहीं सकती।
उनकी हँसी में
संघर्ष की जीत है,
उनकी आँखों की नमी में
अनगिनत कहानियों का इतिहास है।
उनके हाथों में
घर की रसोई भी है,
कर्मभूमि का संघर्ष भी,
सपनों की तक़दीर भी।
और जब वे साथ बैठती हैं
तो वे सिर्फ़ बातें नहीं करतीं
वे एक-दूसरे की ताक़त बनती हैं।
उनकी साझी मुस्कान
एक प्रतिरोध है उस दुनिया के ख़िलाफ़
जो उन्हें कमतर समझती है।
वे सोचती हैं
क्या पुरुष भी ऐसे खुल कर बोलते हैं?
शायद नहीं।
क्योंकि उन्हें ऐसा करने की ज़रूरत ही नहीं बताई गई।
लेकिन स्त्रियाँ जानती हैं
बोलना ही जीना है।
मिलना ही टिके रहना है।
साझा करना ही आत्मा की साँस है।
वे अपनी राह ख़ुद बनाती हैं,
अपने दुख ख़ुद समझती हैं,
अपने सपनों को ख़ुद आकार देती हैं।
उनकी स्वतंत्रता
किसी उपहार की मोहताज नहीं
वह उनका जन्मसिद्ध अधिकार है।
स्त्री का मन
समुद्र की तरह गहरा है,
आसमान की तरह विस्तृत।
उसकी करुणा
धरती की तरह धीरज भरी।
उसकी शक्ति
पर्वत की तरह अडिग।
जब वह बोलती हैं
तो शब्द नहीं,
जीवन बोलता है।
जब वह चुप होती हैं
तो मौन नहीं,
संकेत बोलता है।
यही है उसका व्यक्तित्व
संपूर्ण, मौलिक, स्वतंत्र।
वह किसी के सहारे नहीं,
स्वयं अपनी राह की रोशनी हैं।
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