विस्मृत होती बेटियाँ

15-08-2025

विस्मृत होती बेटियाँ

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 282, अगस्त प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

वो जो कभी
आँगन की चहल-पहल थी, 
हँसी की गूँज, 
कजरी-झूले की तान, 
तुलसी चौरे पर दीप धरने वाली, 
आज उसी घर की
छत की दरार से
उग आई है
एक चुप, छाया-भरी, अनचाही आकृति 
पीपल। 
 
न वो आमंत्रण है, 
न उत्सव, 
बस मौन में
उगती जाती है उसकी स्मृति। 
 
एक समय था
जब उसे बुलाने
चिट्ठियाँ जाती थीं, 
अब उसका नाम
रसोई के किनारे
भूले हुए डिब्बे की तरह
कभी-कभी खुलता है
और तुरंत बंद कर दिया जाता है। 
 
उसने नैहर को
छोड़ा था
सपनों से सजा
ससुराल पाने के लिए, 
पर वर्षों बाद
वो दोनों ही
उसकी ज़मीन नहीं रहे। 
 
वो अब
न तुलसी की तरह पूज्य है, 
न पीपल की तरह अचल, 
वो बस है 
दहलीज़ के पार
एक परछाईं की तरह। 
 
कभी-कभी
किसी भतीजे के विवाह में
या किसी भाई की अर्थी पर
वो लौटती है
जैसे
सूखी ज़मीन पर
बरसों बाद कोई बूँद। 
 
उसकी उपस्थिति
अस्थायी होती है, 
स्नेह के आलिंगन
संकोच के वस्त्र ओढ़े होते हैं। 
उसके लिए
न कोई कमरा आरक्षित होता है
न कोई स्थायी स्थान। 
 
बुआ, मामी, ताई, बहन 
नामों की शृंखला में
हर स्त्री एक दिन
पीपल बन जाती है। 
जिसे न कोई रोपता है, 
न काटता है, 
बस उग आने पर
देख भर लेता है 
दूर से। 
 
उसके हिस्से का अधिकार
कभी बहस नहीं बनता, 
कभी दावा नहीं होता, 
वह चुपचाप
अभावों को आशीर्वाद में
बदलना सीख लेती है। 
 
छप्पन भोग नहीं, 
अब उसे चाहिए बस
एक गिलास ठंडा पानी
जिसे पीकर
वो अपने होने को
ख़ुद ही प्रमाणित कर सके। 
 
वो जो पहले
राखी में रक्षाबंधन का प्रतीक थी, 
अब परंपरा निभाने वाली
मौन रस्म बन गई है। 
 
भतीजों की आँखों में
उसकी जगह
स्मार्टफोन की स्क्रीन है, 
भाभियों की हँसी में
उसके लिए कोई कोना नहीं। 
 
वो चुप है 
क्योंकि चुप्पी
अब उसका शृंगार है। 
न वह शंखध्वनि चाहती है, 
न आरती की घंटी, 
बस इतनी सी चाह 
कि कोई
उसे ‘घर की’ कह दे। 
 
जिस आँगन में
कभी किलकारी थी उसकी, 
अब वही आँगन
उसके क़दमों की आहट से
संकोचता है। 
 
पीपल बनती बेटियाँ
अब
नीम की तरह कड़वी नहीं होतीं, 
वे मीठी भी नहीं होतीं 
वे बस समय के हवाले
खड़ी रहती हैं 
एक लंबी प्रतीक्षा में, 
जैसे सावन की बारिश के बाद
कभी कोई
उनकी जड़ों तक आकर
कह दे 
“तू अब भी मेरी है।”
 
हाँ, 
पीपल होना
तुलसी होने से
कहीं ज़्यादा भारी है। 
लेकिन बेटियाँ
यह भार भी
मुस्कान में ढालना जानती हैं 
और यही उनकी
अनकही, अदृश्य शक्ति है। 

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