तुमसे मिलकर

15-05-2025

तुमसे मिलकर

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 277, मई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

(एक प्रेम कविता) 
 
तुम आये
जैसे एक लंबे सूखे के बाद
पहली बार धरती पर
बादल फूट पड़े हों। 
मैं हरा हुआ
अपने ही भीतर। 
 
उस क्षण, 
मैंने समय को रुकते देखा
घड़ियाँ साँसें लेने लगीं, 
पलकों पर ठहर गईं सदियाँ। 
तुम्हारी आँखों में
कोई भूला हुआ जन्म चमक उठा, 
और मैं
तुम्हारे नाम से पहले ही
तुम्हें पहचान गया। 
 
हम नहीं मिले थे, 
हम तो
पुनः प्राप्त हुए थे
जैसे कोई स्वर
अपनी धुन में लौट आता है, 
या कोई राग
फिर से किसी वाद्य में
ख़ुद को सुन ले। 
 
तुम्हारी हथेलियों की गर्माहट
मेरे भविष्य की भविष्यवाणी बन गई, 
और तुम्हारी मुस्कान
मेरे सारे प्रश्नों का उत्तर। 
 
मिलन कोई क्षण नहीं था, 
वह तो एक जन्मांतर की पूर्णता थी, 
जहाँ देह से पहले
मन जुड़ते हैं
और आत्माएँ
एक-दूसरे की भाषा बन जाती हैं। 
 
उस दिन, 
जब तुम मेरे सामने थी
मैं ख़ुद को भूल गया। 
और तभी जाना
मिलन का सार
विस्मरण में है, 
जहाँ ‘मैं’ मिटता है, 
और ‘हम’ जन्म लेता है। 

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