निर्पक्ष और निरपेक्ष को समझने की जिज्ञासा

 

प्रिय मित्रो,

समय-समय पर मेरे समक्ष एक वैचारिक दुविधा खड़ी हो जाती है। जानता हूँ कि एक सम्पादक को अपने राजनैतिक रुझान, धार्मिक आस्था और सामाजिक प्रभावों से विलग होकर रचनाओं को परखना और प्रकाशित करना चाहिए। यह समझना तो सही है परन्तु क्या जिन परिस्थितियों को हम भोग रहे होते हैं, उन्हें नकारा जा सकता है? उस समय हमारे कर्म का वरीयता क्रम क्या होना चाहिए?

संभवतः मुझे निर्पक्ष और निरपेक्ष के अन्तर को समझना होगा। परन्तु . . .

पिछले दिनों भारत और पाकिस्तान युद्ध की स्थिति में थे। भारत के सीमावर्ती प्रांतों के सीमांचल वासियों ने इस युद्ध को भोगा। यद्यपि भारतीय सेना ने उच्च तकनीकी वाले उपकरणों, अस्त्र-शस्त्रों द्वारा अपने देश के नागरिकों को एक सुरक्षा कवच प्रदान किया जिससे वह संभावित हानि से बचे रहे। जैसा कि प्रायः अभी तक भोगे युद्धों में होता आया है वह इस बार भी देखने और पढ़ने को मिला। लेखकों की लेखनी की धार में देशप्रेम का ओज छलकने लगा। लेख लिखे गए, कविताएँ रची गईं, कहानियों में भी सैनिकों के शौर्य की गाथा कही गई। इतिहास के वीर पात्रों को भी याद किया गया। यह मानव की सामान्य प्रतिक्रिया है। विचार करें तो यह केवल मानव तक सीमित नहीं है बल्कि प्रत्येक प्राणी अपने परिवार के लिए, घर के लिए, अपनी भूमि पर अपने अधिकार के लिए लड़ता है—उसे बचाता है और कई बार तो अपने प्राण भी खो देता है। ऐसा युग युगांतर से होता आया है। पौराणिक साहित्य से लेकर वर्तमान साहित्य में ऐसा ही लिखा गया है।

पहले भी कई बार लिख चुका हूँ कि साहित्य समाज के इतिहास का अभिलेख होता है क्योंकि लेखक अपने समय का साक्षी होता है और उसका लेखन साक्ष्य। भारत के पुरातन साहित्य से लेकर मध्यकालीन युग से होता हुआ और औपनिवेशिक युग से पूर्व के साहित्य के बारे में जब विचार करता हूँ तो उसे मैं तीन वर्गों में विभाजित पाता हूँ। साहित्य का एक वर्ग था जिसे राजसी प्रश्रय मिला, दूसरा लोक साहित्य था जो गाँवों की चौपालों से लेकर खेत-खलिहान में रचा गया। परिवार, समाज के सुख-दुःख में गाया गया और लोक-कथाओं द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचता रहा। तीसरा भक्ति साहित्य है जिसने समाज को दिशा दिखाने का प्रयास किया। इस साहित्य ने नैतिकता–अनैतिकता का बोध कराया और सामाजिक मूल्य को सुरक्षित रखा। मानव चेतना को समृद्ध किया। इन सभी प्रकार के साहित्य में देश प्रेम की अंतरधारा सदैव बहती रही है। अर्थात्‌ देशप्रेम प्रकृति प्रदत्त गुण है—इसे सिखाया, पढ़ाया नहीं जा सकता। निश्चित रूप से आदेश द्वारा देशप्रेम की भावना पैदा नहीं की जा सकती।

अपने जीवन काल में मैंने पाकिस्तान और चीन के साथ हुए युद्ध देखे हैं। पाकिस्तान के साथ हुए युद्धों का बहुत समीप से साक्षी भी रहा हूँ। आज यह सम्पादकीय लिखते हुए उन युद्धों और इस चार दिन के युद्ध के दौरान लिखे गए साहित्य में एक बहुत बड़ा अन्तर पा रहा हूँ। इस बार एक लेखकों का एक ऐसा वर्ग है जो कि इस परिस्थिति में अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने या अपनी राजनैतिक विचारधारा का झण्डा लहराने का प्रयास कर रहे हैं। मैं यह नहीं कहना चाहता कि ऐसे लेखक देशप्रेमी नहीं हैं, बल्कि यह कहना चाहता हूँ कि युद्ध की परिस्थिति में राजनीति से अधिक अधिमान्य देशभक्ति है, राजनीति तो बाद में होती ही रहेगी। वह जो कुछ लिख रहे हैं उसे देशद्रोह कदापि न कहें, हाँ उसे भ्रमित अवश्य कहा सकता है।

ऐसा क्यों हो रहा है, यह भी समझ आ रहा है। पहला कारण है भारत की राजनीति विषैली हो रही है। राजनीति सैद्धांतिक न रहकर अब व्यैक्तिक स्तर पर हो रही है। राजनीति में एक पक्ष भारत भूमि की संस्कृति को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहा है तो दूसरा पक्ष विदेशी आक्रांताओं का महिमा मण्डन करते रहना चाहता है। एक पक्ष धार्मिक साहित्य में उद्धृत नगरों को खोज रहा है दो दूसरा विद्धवंसकर्ताओं के नामों को सुरक्षित करना चाहता है। देश के समाज का यह ध्रुवीकरण भारत के लिए शुभ पूर्वसंकेत नहीं हैं।

दूसरा एक बहुत बड़ा कारण है—सोशल मीडिया की निरंकुशता। वर्तमान में जो तर्क-कुतर्क का प्रसारण सोशल मीडिया के माध्यम से हो रहा है वह नवांकुरित लेखकों के लेखन को प्रभावित कर रहा है। उनकी कविताओं में, व्यंग्य कृतियों में सोशल मीडिया का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। साहित्य लेखन के दायित्व-बोध से अपरिचित लेखकों का एक अनुयायी वर्ग भी जुट जाता है। ‘लाइक्स’ को बटोरते हुए यह लेखक न तो पलट कर स्वयं अपने लेखन को आलोचनात्मक दृष्टि से देखते हैं या अन्य द्वारा की गई आलोचना को समझते हैं और स्वीकार करते हैं। चिंता का विषय है कि जब ऐसे सोशल-मीडिया के तथाकथित साहित्यकार वास्तविक जीवन में पदार्पण करेंगे तो क्या यह देशप्रेम और व्यक्तिप्रेम, देशभक्ति और व्यक्तिभक्ति का अंतर समझ पाएँगे? क्या यह वास्तविक साहित्य और सोशल मीडिया साहित्य का अन्तर समझ पाएँगे? 

निर्पक्ष और निरपेक्ष के अन्तर को समझने की जिज्ञासा तो शायद इनमें होगी ही नहीं!

—सुमन कुमार घई

1 टिप्पणियाँ

  • 1 Jun, 2025 06:51 PM

    साहित्य कुंज के इस बार के संपादकीय का विषय-'निर्पक्ष और निरपेक्ष को समझने की जिज्ञासा ' में हाल ही में भारत पाक के बीच चार दिनों तक चले युद्ध ( युद्ध जैसी स्थिति) में सोशल मीडिया, साहित्यकार और भारतीय राजनीति में तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिली है। देश से प्रेम करने वालों के लिए ये प्रतिक्रियाएं अस्वाभाविक लग सकती हैं और लग भी रही हैं। लेकिन आमजन आपरेशन सिंदूर से खुश है। एक धर्म के प्रति ऐसी घृणा रखने वालों को दंडित करना न्यायसंगत था। ज्यादा पढ़े-लिखे लोगों के लिए देशप्रेम महत्वपूर्ण हो या न हो लेकिन साधारण लोगों के लिए देश उसके लिए प्राण होते हैं। इस संदर्भ में मुझे आपकी चिंता वाजिब लग रही है। ज्यादा पढ़े-लिखे ही देश तोड़ते हैं। साधारण आदमी तो अपने खिलौने न तोड़ने दें। कोई उन खिलौनों की तरफ नजर उठाकर भी देख ले तो वे आंखें नोच लेंगे। ज्ञानी, अति ज्ञानी, बुद्धिजीवी, अति बुद्धिजीवी सिर नीचा और पैर ऊपर करके सोचते हैं। इसी से गड़बड़ हो जाता है। आमजन को अपना देश बहुत प्यारा है। इसलिए वे पैर ऊपर करके सोचने वालों के दिमाग ठिकाने लगाने में देरी न करेंगे। रही बात लेखकों की तो आज उन्हें पाठक ही नहीं मिल पा रहे हैं। वे सब अपनी ही सार(शाला) में हो हल्ला मचा रहे हैं। उस हो हल्ला को कोई सुनता ही नहीं है। साहित्य का जहाज़ तो डूबने की कगार पर बैठा है। कोई किसी की नहीं सुन रहा है। मैं लिखूं, मैं छपूं और मैं ही पढूं। बस यहीं तक सिमटकर रह गया है। साहित्यकारों को कोई गंभीरता से लेता भी नहीं है। राजनेता और पत्रकारों को आमजन गंभीरता से ले लेते हैं क्योंकि लाइन से हटकर बोलने वालों की वे कान कुच्ची कर देते हैं। इसका ताजा उदाहरण भारत की राष्ट्रीय पार्टियां अपने अस्तित्व के लिए जद्दोजहद कर रही हैं। सुमन घई सर, आपके इस संपादकीय में आपकी पीड़ा है। और आपकी यह पीड़ा यूं ही नहीं है। अपनी माटी के प्रति लगाव की पीड़ा है। आपका संपादकीय मुझे बढ़िया लगा। आपको बहुत-बहुत बधाई सर।

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