सबके अपने-अपने ‘सोप बॉक्स’

 

प्रिय मित्रो,

इस सम्पादकीय में सबसे पहले मुझे बताना पड़ेगा कि ‘सोप बॉक्स’ क्या होता है? इसका इतिहास बहुत रोचक है। १९वीं सदी के सातवें दशक में इसका प्रचलन इंग्लैड में आरम्भ हुआ। इस प्रक्रिया में वक्ता अपने घर से एक लकड़ी का बक्सा लेकर आता है और किसी सार्वजनिक स्थल पर जहाँ भीड़ इकट्ठी होती हो या उपस्थित हो, उस बक्से के ऊपर खड़ा हो कर एक अस्थायी मंच बनाकर किसी भी विषय पर बोलना आरम्भ कर देता है। लन्दन (इंग्लैंड) के नगर के मध्य में हाइड पार्क में प्रायः आपको ऐसे वक्ता देखने को मिल जाएँगे। लगभग नुक्कड़ नाटक की तरह। इस प्रथा का आरम्भ १८७२ से माना जाता है। कहा जाता है कि सबसे प्रसिद्ध सोप बॉक्स वक्ता जॉन वेबस्टर थे जिसका जन्म निर्धनता में दिसम्बर १९१३ को हुआ। उसके भाषण समाज, राजनीति और धर्म इत्यादि के विवध विषयों पर होते थे। 

आज के सम्पादकीय के विषय के बारे में आप अनुमान लगा रहे होंगे कि यह कहाँ से आरम्भ होकर कहाँ जा रहा है। आप मेरे साथ बने रहिए और धीरे-धीरे संशय का कुहासा छँटता रहेगा। हुआ कुछ यूँ कि आज सुबह मैं वैसे ही यूट्यूब पर समाचार की विभिन्न चैनलों को क्लिक कर रहा था। अचानक एक छोटी-सी “शॉर्ट” दिखाई दी। कोई वक्ता कहना चाह रहा था और श्रोताओं को अपनी विचारधारा से प्रभावित करना चाह रहा था कि बिहार के तेजस्वी यादव नौंवी फ़ेल होते हुए भी निस्संदेह देश के किसी भी प्रवक्ता के साथ अंग्रेज़ी में बहस करने में सक्षम हैं। बात यह नहीं है कि मैं तेजस्वी यादव की राजनीति से परिचित हूँ या नहीं हूँ, मैं उनकी राजनीति से सहमत हूँ या नहीं हूँ, मेरा सम्पादकीय उस वक्ता के वक्तव्य पर केन्द्रित है। वह कह रहा था कि उसने तेजस्वी यादव को अँग्रेज़ी बोलते हुए सुना है। दुसरे शब्दों में वह कहना चाह रहा था कि अगर तेजस्वी यादव नौंवी फ़ेल होने के बाद भी अंग्रेज़ी बोल लेते हैं, तो इससे प्रमाणित हो जाता है कि वह एक कुशल राजनीतिज्ञ हैं। राजनीतिक कौशल अंग्रेज़ी बोल पाने की कुशलता के बराबर है। अंत में उसने तेजस्वी की महानता को ‘बेचने’ के लिए यहाँ तक  कह दिया—हालाँकि तेजस्वी के पिता एक प्रसिद्ध नेता थे और फिर भी तेजस्वी नौंवी में फेल हुआ और वह अँग्रेज़ी बोलना सीख गया। फिर वक्ता अचानक स्वयं अँग्रेज़ी बोलने लगा कि तेजस्वी यादव कहते हैं कि वह किसी के साथ अँग्रेज़ी या हिन्दी में डिबेट करने के लिए तैयार हैं। वक्ता की अँग्रेज़ी सुनकर मैं अपनी हँसी नहीं रोक पा रहा था। सोच रहा था कि अँग्रेज़ी बोलना आवश्यक था क्या? मैं तो पहले से ही तेरी दलीलों से कायल हो चुका था। 

यह होता है ‘सोप बॉक्स’। आपके पास वक्तृत्व कौशल चाहे न हो जब तक आपके पास अपना मोबाइल है, उसपर वीडियो बनानी आती है और उसे यूट्यूब पर अपलोड करना आता है—आप किसी भी विषय के वक्ता बन सकते हैं। यह आधुनिक सोप बॉक्स है। स्व. महाकवि प्रो. हरिशंकर आदेश जी ने एक बार मुझसे कहा था —सुमन जी किसी लेखक की रचना कैसी भी हो, कहीं न कहीं उसका कम से कम एक पाठक तो अवश्य होता है। यह उनका साहित्यिक रचना पर कहा गया कथन, वर्तमान सोशल मीडिया के युग में सटीक बैठता है। किसी भी स्तर की चैनल हो एक ने एक स्बस्क्राइबर अवश्य होता है।

चलिए जो मैं कहना चाह रहा था उसकी भूमिका तो बन गई। अब आते हैं मुख्य विषय पर। यूट्यूब की समाचारों की, राजनीति विश्लेषकों की असंख्य चैनलें हैं यानी ‘सोप बॉक्स’ हैं। परन्तु इनके श्रोताओं की संख्या “हाइड पार्क” के वक्ताओं जैसी सीमित नहीं है। इन सबके स्बस्क्राइबर लाखों में होते हैं। कुछ तथाकथित विश्लेषक देश की राजनीति पर केन्द्रित रहते हैं तो कुछ अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ कहलाते हैं। इन में से बहुत से लोग ऐसे हैं जिनकी औपचारिक शैक्षिक पृष्ठभूमि न तो पत्रकारिता है और न ही राजनीति शास्त्र के यह ज्ञाता हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्दों के बहुत से विश्लेषक ऐसे भी हैं जो ऐसा सोचते हैं कि सभी पश्चिमी देशों के समाज एक से हैं। वहाँ की सरकारों का गठन एक सा होता है। कहीं न कहीं उनकी सोच के अनुसार विदेशों की राजनीति भारतीय राजनीति का ही प्रतिबिम्ब है। ऐसा होता नहीं है। इन दिनों कैनेडा और भारत के सम्बन्ध गर्त में पहुँच चुके हैं। आप में से अधिकतर पाठक जानते हैं कि मैं पिछले इक्यावन वर्षों से कैनेडा में रह रहा हूँ। यह कहा जा सकता है कि मैं यहाँ की और भारत की राजनीति को समझ सकता हूँ। दोनों देशों की प्रशासन व्यवस्था की समझ भी मुझ में है। अगर भारत का कोई राजनीतिक विश्लेषक कैनेडा के प्रधान मंत्री जस्टिन ट्रुडो को प्रेसीडेंट कह दे, निश्चित रूप से मेरे मन में उसके विश्लेषण पर संशय पैदा हो जाएगा। यह एक विषद विषय है। इसे यहीं पर छोड़ कर आगे बढ़ता हूँ।

आजकल भारतीय संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा है। यानी सभी के लिए “सोप बॉक्स” ऋतु चरम पर है। नेता प्रतिपक्ष राहुल गाँधी का पटल तो सबसे बड़ा है। हालाँकि उनका विषय एक ही रहता है—अडाणी। अपने सोप बॉक्स पर खड़े होकर (संसद से बाहर या अन्दर; उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता) वह घूम-फिर कर वहीं पर आ जाते हैं। राहुल के वक्तव्य सुनकर मुझे अपना स्कूल का दोस्त याद आ जाता है। पढ़ाई के मामले में बहुत सुस्त था। पढ़ना ही नहीं चाहता था। आठवीं श्रेणी में अँग्रेज़ी में निबन्ध (Essay) रटाए जाते थे। उसने ‘हाउस ऑन फ़ायर’ का निबन्ध रट रखा थ। हुआ यूँ कि परीक्षा में निबन्ध विषय था ‘फ़ुटबाल मैच’। अब भाई फँस गया। उसने तरकीब लड़ाई और लिख दिया “Last Sunday I went to watch a football match with my father. On my way to the football grounds, there was a house of fire. (कल रविवार मैं अपने पिता के साथ फ़ुटबाल मैच देखने गया। जब हम फ़ुटबाल ग्राउंड की ओर जा रहे थे, तो रास्ते में एक घर को आग लगी हुई थी)। आप तो समझ ही गए होंगे की निबन्ध में आगे क्या लिखा होगा मेरे मित्र ने।

पिछले सप्ताह जब कांग्रेस ने संविधान पर चर्चा करने की माँग की तो मन ही मन यह विचार आया कि यह फ़िल्म तो पहले से ही देखी हुई है। वही हुआ, राहुल और प्रियंका संविधान के नाम पर अडाणी, ईवीएम, जातिगत जन गणना ही कहते रहे। यानी निबन्ध था फ़ुटबाल मैच और वह लिख आए हाउस ऑन फ़ायर।

मैंने अपने सोप बॉक्स पर खड़ा होकर अपनी बात कह दी।

मुझे कोई अधिकार नहीं है कि मैं राहुल और प्रिंयका के सोप बॉक्स की ओर उँगली उठाऊँ। सबके अपने-अपने सोप बॉक्स हैं!
—सुमन कुमार घई

2 टिप्पणियाँ

  • 16 Dec, 2024 02:48 AM

    राजनीति रीत सदा चली आई। सोप बॉक्स जाए गद्दी न जाए॥ वैसे मुझ जैसों को हाइड-पार्क जाने की आवश्यकता ही नहीं, जब आदरणीय सुमन जी महीने में दो बार साहित्य-कुन्ज के माध्यम से सोप-बॉक्स की व्यवस्था कर ही देते हैं। साधुवाद।

  • वाह वाह वाह बहुत ख़ूब लिखा संपादक जी, जब से मैं साहित्य कुंज से जुड़ी हूं सदैव आपके गंभीर ,विचारोत्तेजक,नीति परक संयत विषयों पर ही लिखे गए संपादकीय देखे हैं। इस बार का हास्य बैंक से परिपूर्ण संपादकीय पढ़कर आनंद भी आया और थोड़ा विस्मय भी हुआ। सच्ची तो बात यह है कि पट्टू वही और उतना ही बोलेगा जो उसे सिखाया जाएगा आखिर को वह है तो पट्टू ही (पिंजरे के तोते को हम लोग पट्टू भी कहते हैं)

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