भारत के 79वें स्वतन्त्रता दिवस की पूर्व संध्या पर

 

प्रिय मित्रो, 

सर्वप्रथम आपको सबको प्रिय भारत के 79वें स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक बधाई! आइए सब मिलकर कामना करें कि आने वाला वर्ष भारत की उन्नति के नए आयामों के द्वार खोले और संपूर्ण भारत इस द्वार में पदार्पण करते हुए सवर्णिम भविष्य की ओर अग्रसर हो! 

वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए सवर्णिम भविष्य की कामना करते हुए अंतर्मन के किसी कोने में भय भी स्वर उठा रहा है। क्या भारत इतना शक्तिशाली है कि अकेला विश्व की पुरानी औपनिवेशिक शक्तियों के प्रभाव से स्वतन्त्र रह सकेगा? क्या इन वैश्विक शक्तियों के हाथों भारत के नागरिकों का एक अंश बिक चुका है? कुछ राजनीतिज्ञ अपने विदेशी संबंधों को छिपाने का प्रयास तक नहीं कर रहे और वह उन्हीं की भाषा बोल रहे हैं। 

मुझे याद आ रहा है एक बार प्रधान मंत्री मोदी जी ने स्वतन्त्रता दिवस के अपने संबोधन में भारतवासियों को आगाह किया था कि जैसे-जैसे भारत समृद्ध होगा वैसे-वैसे विपक्षी शक्तियाँ, भारत का अहित चाहने वाली शक्तियाँ भारत की उन्नति में बाधा डालने का प्रयास करेंगी। यह शक्तियाँ बाहरी और आन्तरिक दोनों ही हो सकती हैं। ऐसा हो भी रहा है। 

जब से भारत पाँचवीं आर्थिक शक्ति बना है तब से कई देशों की राजधानियों में चिंता की सिलवटें बढ़ने लगीं थीं। इन्हीं शक्तियों ने भारत के दृढ़ संकल्प को परखने के लिए पहलगाम की आतंकी घटना द्वारा चुनौती दी। जिसकी प्रतिक्रिया में भारत ने ऑपरेशन सिंदूर किया। विश्व ने इस ऑपरेशन के वे परिणाम देखे जिनकी उन्हें आशा नहीं थी। वह भारत की सौम्यता को भारत की दुर्बलता समझने की भूल कर रहे थे। इन देशों में यू.एस.ए. का प्रशासन या यूँ कहें राष्ट्रपति ट्रंप भी एक थे। उन्होंने कुछ ऐसे वक्तव्य दिए जिनका भारत ने दृढ़ता से खंडन किया और भारत अचानक मित्र देशों की सूची में निकाल दिया गया। 

फिर चला “टैरिफ़्स” का दौर। राष्ट्रपति की दिशाहीन नीति से पूरा विश्व परेशान हो गया है। यह भी सत्य है कि यू.एस.ए. की अपनी आर्थिक स्थित भी ठीक नहीं है। पिछले तीस वर्षों में अमेरिकी उत्पादन उद्योग पूरी तरह स्थानांतरित होकर चीन पहुँच चुका है। 80के दशक में उत्तरी अमेरिका में एक थ्योरी ख़ूब चली थी कि अमेरिका जैसे विकसित देश को उत्पादन उद्योगों से निकल कर सर्विसिज़ सेक्टर में चले जाना चाहिए। कारख़ानों की नौकरियों को ब्लू कॉलर और दफ़्तरी नौकरियों को व्हाइट कॉलर कहा जाता है। आम तौर पर सुनाई देता था कि हमें ब्लू कॉलर नहीं व्हाइट कॉलर की अर्थ व्यवस्था बनना है। कहीं असहमति का स्वर उठता कि हम लोग बिना किसी उत्पाद के अपनी सेवाएँ (सर्विसिज़) कब तक बेचते रहेंगे तो इस स्वर को दबा दिया जाता। परिणाम स्वरूप उत्पादन उद्योग समाप्तप्राय हो गया। कारख़ानों को गोदामों में परिवर्तित कर दिया गया और वह चीन के उत्पादन के वितरण केन्द्र बन गए। बड़ा व्यवसायिक वर्ग ज़मीनी वास्तविकता से कट गया। वह केवल स्टॉक मार्केट के आँकड़े देख कर प्रसन्न होता रहा और लाभ उठाता रहा। दूसरी ओर ब्लू कॉलर कर्मचारी बेकार हो गया। उनके परिवार बिखर गए। इसका प्रभाव शिक्षा के क्षेत्र पर भी पड़ा। क्योंकि अब इंडस्ट्री में नौकरी नहीं थी इसलिए यहाँ के कॉलेजों (पॉलिटैक्निक्स) ने टूल एंड डाई मेकर, मशीनिस्ट इत्यादि के कोर्स पढ़ाने बंद कर दिए। 

लगभग आठ वर्ष पहले जब ट्रंप पहली बार जीता था वह इसी वायदे के साथ जीता था कि वह उत्पादन की नौकरियाँ विदेशों से वापस अमेरिका ले आएगा। उस समय उसके निशाने पर केवल चीन, मैक्सिको और कैनेडा इत्यादि देश थे। भारत उसके निशाने पर नहीं था क्योंकि उस समय भारत अभी विकसित होने की राह पर चलने की तैयारी ही कर रहा था। अभी चलना आरम्भ नहीं हुआ था। ट्रंप ने अपने पहले राष्ट्रपति काल में भी चीन पर दबाव डाला था और उस समय पुतिन ट्रंप का ‘बेस्ट फ़्रेंड’ था। 

इस बार की स्थिति अलग है। भारत विश्व की दसवीं सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था से बढ़ कर पाँचवीं बन चुका है। अब बस जापान और जर्मनी बचे हैं और भारत उसके बाद विश्व की तीसरी अर्थ व्यवस्था बन जाएगा। यह उन्नति यूरोपियन यूनियन के गले नीचे नहीं उतरती है। इंग्लैंड को भारत पहले ही पीछे छोड़ चुका है। 

ऑपरेशन सिंदूर से पहले तक यू.एस.ए. भारत को चीन की काट की तरह मानता था। यू.एस.ए. भली-भाँति जानता है कि एक न एक दिन चीन अमेरिका को सीधी चुनौती देगा और यह उसकी सोच थी कि उस समय भारत यू.एस.ए. के लिए चीन के विरोध में युद्ध के मैदान में उतरेगा। मोदी सरकार ने यह स्पष्ट घोषणा कर दी कि भारत किसी और की लड़ाई नहीं लड़ेगा। अमेरिका ने तभी से भारत पर विभिन्न प्रकार के दबाव बनाने आरम्भ कर दिए थे। 

जहाँ तक रूस से कच्चा तेल ख़रीदने का मामला है—यह केवल भारत की उन्नति के राह में रोड़े अटकाने के सिवा कुछ नहीं है। यू.एस.ए. जानता है कि ’ब्रिक्स’ देश एक न एक दिन वैश्विक वाणिज्य में डॉलर के वर्चस्व को नष्ट कर देंगे। अगर ऐसा होता है तो यू.एस.ए. की सैंक्शन नीतियाँ विफल हो जाएँगी यानी उसकी अंतरराष्ट्रीय आर्थिक दादागिरी नहीं रहेगी। यू.एस.ए. की सेनाएँ जब से अफ़गानिस्तान से बाहर निकली हैं, तब से यू.एस.ए. के नागरिक किसी भी देश के साथ युद्ध करने के लिए राज़ी नहीं हैं। इसलिए यू.एस.ए. दूर से तो युद्ध कर सकता है परन्तु किसी विदेशी धरती पर अपने सैनिक भेजना नहीं चाहता। ऐसे में उसकी सैन्य शक्ति भी इतनी प्रभावशाली नहीं रहती। इन परिस्थितियों ने ही अमेरिका में बौखलाहट पैदा कर दी है। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात यह पहली बार है कि यू.एस.ए. भयभीत है और उसकी प्रतिक्रिया एक डरे हुए गुंडे की है। चीन का अँगूठा यू.एस.ए. की गर्दन पर है। युरोपीयन यूनियन के घुटने ज़मीन पर हैं। ब्रिक्स को आरम्भ करने वाले देशों में से चार देश—भारत, ब्राज़ील, रूस और चीन इस समय यू.एस.ए. के सामने तन कर खड़े हैं। यह ट्रंप की बौखलाहट का मूलभूत कारण है। 

ट्रंप को बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी है कि वह पूरी दुनिया को अपने इशारों पर नचा सकते हैं। समस्या यह है कि भारत न तो नाचने को तैयार और न ही ट्रंप की धमकियों से भयभीत हो रहा है। भारत अपनी सौम्यता से, बिना आक्रामक हुए, अपने हितों और दीर्घकालीन लक्ष्यों और उद्देश्यों की रक्षा कर रहा है। अब स्थिति ऐसी हो रही है कि भारत, प्रेसिडेंट ट्रंप के लिए ऐसी पहेली बन गया है जिसका समाधान उनके पास नहीं है। नित टैरिफ़ बढ़ रहे हैं या बढ़ाने की धमकियाँ मिल रही हैं, परन्तु भारत टस से मस नहीं हो रहा। इसका कारण भारत की संस्कृति और संस्कारों में निहित है। भारतीय तंगी में जीना जानते हैं। भारतीय संस्कार ऐसे हैं कि जीने के लिए भौतिक विलास के संसाधनों का होना अनिवार्य नहीं होता। जब तक भारत अपने लिए पर्याप्त भोजन पैदा कर सकता है और सीमाओं की सुरक्षा कर सकता है तब तक विश्व की कोई शक्ति नहीं है जो भारत को भयभीत कर सके या नष्ट कर सके। भारत अपने प्रगति पथ पर निरन्तर चलता रहेगा। 

जय हिन्द! 

—सुमन कुमार घई

5 टिप्पणियाँ

  • 17 Aug, 2025 07:29 PM

    बढ़िया और यथार्थ विश्लेषण। अमेरिका भारत का कभी विश्वसनीय मित्र नहीं रहा। 1965,1971,1998 आदि इसके उदाहरण हैं। वह एक ओर प्रजातंत्र की वकालत करता है और दूसरी ओर सैनिक शासकों का समर्थन करता है।

  • आदरणीय गई साहब, सादर अभिवादन। आपका इस अंक का संपादकीय आपकी अद्भुत विश्लेषण क्षमता को प्रकट करने वाला है।भारत की उपलब्धियों और चुनौतियों का संतुलित विश्लेषण आपने किया है। हार्दिक साधुवाद।

  • आदरणीय संपादक महोदय, आपके जैसे विचारवान राष्ट्रवादी शुभचिंतक भारत के गौरव को कभी क्षीण न होने देंगे। एक समय था जब भारत अपनी समृद्धि के कारण आतताइयों के पैरों के नीचे कुचला गया लूट गया , लुटा और क्षत- विक्षत हुआ। सदियों बाद जब वह अपने गत स्वाभिमान के प्रति सावधान हुआ,प्राचीन गौरव को पानेक्षके लिए प्रयासरत हुआ तब एक बार फिर जयचंदों ने सिर उठाना शुरू कर दिया है। ईश्वर से प्रार्थना है कि हर भारतवासी को ऐसी सद्बुद्धि दें कि वह अपने बीच पनप रहे इन संपोलों को पहचान सकें जो कभी भी भारत माता को दंश दे सकते हैं। तथ्य परक संपादकीय

  • 15 Aug, 2025 07:44 PM

    प्रिय सुमन जी इस विचारवान सम्पादकीय के लिये बहुत बहुत धन्यवाद। भारत की अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में की जाने वाली गहरी समझ के साथ बडी बेबाक टिप्पणी की है। आप का यह कहना सौ प्रतिशत सही है जब तक भारत में खाद्यान्न का उत्पादन होता रहेगा तब तक वह सिर उठा कर खडा रहेगा। मैं आजकल बनारस में हूँ। यहां बडी तेजी से जो अग्रेजीयत का असर पहनावे और खानपान पर हो रहा है उसे देख कर मैं गहरे सदमें में हूँ, फिर भी यहाँ आम जन का थोडे में गुजारा करने का संस्कार अभी बाकी है। परंतु माननीय प्रेमचंद जी ने किसानों की , अंग्रेज़ी राज्य में हुई दुर्दशा के वर्णन का ऐसा प्रभाव है कि खेती हर खेत बेच कर नौकरी करने में सुकुन महसूस कर रहे हैं।उसे इतना सत्य मान लिया है कि हम आँख उठा कर यह देखना ही व समझना ही नहीं चाहते कि कभी भारत इसी खेती और व्यापार के बल पर सोने की चिडिया बना था । कितने द्वीपों में सभ्यता संस्कृति का प्रचार किया , उनको उन्नत किया। अंग्रेजों के २०० साल के शासन ने पूरी भारतीय सभ्यता व संस्कृति को कटघरे में खडा कर दिया ? हमारे ड्राइवर वगैरा खेतिहर हैं बडी बडी उपजाऊ जमीन के मालिक पर शहरी जीवन से इतने प्रभावित हैं कि देहली , बम्बई ,बनारस कलकत्ता आद स्थानों पर नौकरी कर रहे हैं। उनका कहना है गांव में न अच्छे अंग्रेजों स्कूल है न अस्पताल , वह अपने परिवार व बच्चों का भविष्य बनाने के लिए नौकरी कर रहें हैं। मेहनत वहां भी करते थे यहां भी कर रहे हैं। फिर भी संस्कार तंथा संस्कृति पर गहरी आस्था है वह भारतीयों के रग रग में या यूं कहिए जीन्स में अभी है। हम सब अपने देश को बुलंदियाँ छूते देखना चाहते हैं । १००० से १९५७ तक भारत किसी न किसी का गुलाम था। इतनी लम्बी दासता को ७९ वर्षों में बदलना टेढी खीर है जबकी पाश्चात्य और अमेरिकी प्रचार तंत्र बुरी तरह जनता जनार्दन को गुमराह कर रहा हो। हावी हो रहा हो। ! फिर भी हम अपने लिए व अपने बच्चों के सुखद सुरक्षित भविष्य की दुआ करते हैं। सुमन जी इतने अच्छे विश्लेषण के लिए आपका बहुत बहुत सम्मान।

  • आपका संपादकीय लेख भारत की उपलब्धियों और चुनौतियों का संतुलित विश्लेषण प्रस्तुत करता है। आपने ऐतिहासिक, आर्थिक और भू-राजनीतिक संदर्भों के माध्यम से यह स्पष्ट किया कि भारत अब वैश्विक मंच पर दृढ़ता से खड़ा है और बाहरी दबावों से भयभीत नहीं होता। अमेरिका और अन्य शक्तियों की नीतियों का वस्तुपरक आकलन करते हुए आपने भारतीय संस्कृति और आत्मनिर्भरता को देश की सबसे बड़ी ताकत बताया। यह संदेश प्रेरक है कि जब तक भारत अपने संसाधनों से सीमाओं और भोजन की सुरक्षा कर सकता है, तब तक कोई शक्ति उसकी प्रगति नहीं रोक सकती। यह दृष्टिकोण राष्ट्रीय आत्मविश्वास को और मजबूत करता है।

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