हरितालिका तीज: आस्था, शृंगार और भारतीय संस्कृति का पर्व

01-09-2025

हरितालिका तीज: आस्था, शृंगार और भारतीय संस्कृति का पर्व

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

भारत पर्व-त्योहारों की भूमि है। यहाँ के जीवन में ऋतु परिवर्तन हो या मानव जीवन के संस्कार, सब किसी-न-किसी पर्व से जुड़े होते हैं। भारतीय संस्कृति में व्रत और त्योहारों का महत्त्व सदियों से चला आ रहा है। ये केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि हमारे सामाजिक ताने-बाने को मज़बूत करने वाले सूत्र हैं। भारत एक ऐसा देश है जहाँ हर दिन कोई न कोई त्योहार मनाया जाता है। ये त्योहार केवल उल्लास का माध्यम नहीं होते, बल्कि सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक एकता, आध्यात्मिक साधना और जीवन मूल्यों के संवाहक भी होते हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में व्रत और त्योहार न केवल धार्मिक श्रद्धा का प्रतीक हैं, बल्कि वे मानव जीवन को संयम, संतुलन और शुद्धि की दिशा में अग्रसर करते हैं। व्रत को हमारे धर्मग्रंथों में ‘देवता और मनुष्य के बीच का सेतु’ माना गया है। ये त्योहार समाज को एक सूत्र में पिरोते हैं। ये हमें अपनी परंपराओं, मूल्यों और इतिहास से जोड़ते हैं। त्योहारों के माध्यम से हम प्रकृति, देवी-देवताओं और अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान प्रकट करते हैं। व्रतों का भी भारतीय संस्कृति में गहरा महत्त्व है। व्रत सिर्फ़ उपवास का नाम नहीं है, बल्कि यह आत्म-नियंत्रण, अनुशासन और ईश्वर के प्रति अटूट आस्था का प्रतीक है। व्रत के माध्यम से व्यक्ति अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण करना सीखता है और आत्म-शुद्धि का अनुभव करता है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो शरीर और मन दोनों को शुद्ध करती है। महिलाओं के लिए ये व्रत विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये उन्हें अपने वैवाहिक जीवन की सुख-समृद्धि के लिए प्रार्थना करने का अवसर देते हैं। ये पर्व हमें हमारी जड़ों से जोड़ते हैं, परिवार को एक साथ लाते हैं और जीवन में उत्साह और उल्लास भरते हैं। भारतीय समाज में महिलाओं के लिए इन व्रतों का विशेष स्थान है। वे इन्हें केवल एक धार्मिक क्रिया के रूप में नहीं, बल्कि अपने जीवन और परिवार की ख़ुशहाली के लिए एक तपस्या के रूप में देखती हैं। 

व्रत और त्योहारों का भारतीय परिप्रेक्ष्य में महत्त्व

भारतीय संस्कृति में व्रत और त्योहार केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सामाजिक और मनोवैज्ञानिक आवश्यकता भी हैं। व्रत मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण सिखाते हैं। उपवास से शरीर की शुद्धि होती है और आत्मा को संयम का अनुभव मिलता है। त्योहार समाज में एकता का सूत्रपात करते हैं। सामूहिक पूजा, मेल-जोल, लोकगीत और उत्सव लोगों में सांस्कृतिक चेतना जगाते हैं। व्रत स्त्री और पुरुष दोनों के लिए हैं, किन्तु अनेक व्रत ऐसे हैं जिनका सम्बन्ध स्त्रियों के सौभाग्य, परिवार की समृद्धि और समाज में उनके स्थान से जुड़ा है। 

इन्हीं महत्त्वपूर्ण व्रतों में से एक है भाद्रपद तीज, जिसे हरितालिका तीज के नाम से भी जाना जाता है। यह व्रत हिंदू महिलाओं के लिए सुहाग, सौभाग्य और त्याग का प्रतीक है। हरितालिका तीज, जिसे भाद्र तीज भी कहते हैं, नारी की अटूट आस्था, पतिव्रता धर्म और शिव-पार्वती की पावन कथा का प्रतीक है। 

भाद्रपद तीज का प्रादुर्भाव: एक संक्षिप्त कथा

हरितालिका तीज का प्रादुर्भाव भगवान शिव और माता पार्वती की पौराणिक कथा से जुड़ा है। कथा के अनुसार, माता पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए कठोर तपस्या की थी। उनके पिता, हिमालय, उनका विवाह भगवान विष्णु से कराना चाहते थे, लेकिन माता पार्वती ने मन ही मन शिव को अपना पति मान लिया था। 

जब माता पार्वती को अपने पिता की योजना का पता चला, तो उनकी सखियाँ उन्हें हरकर (हरिता) एक घने जंगल में ले गईं (आलिका), ताकि वे अपनी तपस्या जारी रख सकें। इसी वजह से इस व्रत का नाम हरितालिका तीज पड़ा। माता पार्वती ने जंगल में जाकर कठोर तपस्या की। उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया और पत्तों पर रहकर जीवन व्यतीत किया। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए और उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया। मान्यता है कि यह व्रत भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को किया गया था, इसलिए इसे भाद्रपद तीज भी कहते हैं। अतः तभी से इसे हरितालिका तीज कहा जाने लगा—‘हरित’ अर्थात् सखियों द्वारा हर कर ले जाना और ‘आलिका’ अर्थात् सखी। इस दिन का व्रत पार्वती के अटूट तप और स्त्री के संकल्प की स्मृति के रूप में मनाया जाता है। इस कथा से यह सीख मिलती है कि सच्ची निष्ठा और प्रेम से कठिन से कठिन लक्ष्य को भी प्राप्त किया जा सकता है। 

व्रत की प्रासंगिकता और लोकप्रियता का कारण

आधुनिक युग में भी हरितालिका तीज की प्रासंगिकता कम नहीं हुई है। यह व्रत आज भी महिलाओं के बीच बहुत लोकप्रिय है। इसकी लोकप्रियता के कई कारण हैं:

भाद्रपद तीज केवल पति की दीर्घायु की कामना तक सीमित नहीं है, इसका गहरा सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्त्व है। यह व्रत अटूट आस्था और प्रेम का प्रतीक है साथ ही यह व्रत पति-पत्नी के रिश्ते की गहराई और अटूट प्रेम को दर्शाता है। महिलाएँ इसे अपने पति की लंबी आयु और सुख-समृद्धि के लिए करती हैं, जो भारतीय संस्कृति में वैवाहिक संबंधों के महत्त्व को दर्शाता है। 

यह व्रत स्त्री की आत्मशक्ति और धैर्य का प्रतीक है। कठोर उपवास, रात्रि-जागरण और पूजा स्त्री को तपस्विनी रूप प्रदान करते हैं। यह व्रत त्याग और तपस्या का महत्त्व निरूपित करता है साथ ही यह व्रत महिलाओं को माता पार्वती के त्याग और तपस्या की याद दिलाता है। यह उन्हें सिखाता है कि जीवन में कुछ भी पाने के लिए समर्पण और मेहनत आवश्यक है। माता पार्वती का तप बताता है कि इच्छित लक्ष्य कठिन साधना से ही मिलता है। 

सांस्कृतिक और सामाजिक मिलन: 

तीज का त्योहार महिलाओं को एक साथ आने, गीत गाने, झूला झूलने और मेहँदी लगाने का मौक़ा देता है। यह सामाजिक मेल-जोल को बढ़ावा देता है और महिलाओं के बीच आपसी प्रेम और सौहार्द को बढ़ाता है। यह पर्व नारी को सामाजिक मान्यता देता है कि उसके व्रत और संकल्प से परिवार की रक्षा और सुख-संपन्नता सम्भव है। तीज का पर्व शृंगार से जुड़ा हुआ है। महिलाएँ सोलह शृंगार करके सजती हैं, जो न केवल उनकी सुंदरता को बढ़ाता है, बल्कि उन्हें ख़ुशी और आत्मविश्वास भी देता है। ह व्रत नारी की धार्मिक आस्था और सांस्कृतिक जुड़ाव का माध्यम है। 

भारत के इन राज्यों में विशेष रूप से हरितालिका तीज व्रत मनाया जाता है, ख़ासकर उत्तर भारत में इसका विशेष महत्त्व है। 

उत्तर प्रदेश और बिहार: इन राज्यों में यह व्रत सुहागिन महिलाओं के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण व्रतों में से एक माना जाता है। महिलाएँ निर्जला व्रत रखती हैं और भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा करती हैं। 

मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़: मध्य प्रदेश के कई हिस्सों में भी इस व्रत का प्रचलन है। यहाँ की महिलाएँ भी इसे पूरी श्रद्धा से मनाती हैं। यहाँ तीज का पर्व अत्यधिक धूमधाम से मनाया जाता है। झूले, मेले और शृंगार इसका विशेष आकर्षण होते हैं। ग्रामीण अंचलों में स्त्रियाँ उपवास रख सामूहिक पूजा करती हैं। 

राजस्थान: राजस्थान में भी तीज का त्योहार बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। यहाँ महिलाएँ पारंपरिक वेशभूषा में लोकगीत गाती हैं और झूला झूलती हैं। 

उत्तराखंड: यहाँ भी इस व्रत का प्रचलन है। यहाँ महिलाएँ अपनी सखियों के साथ मिलकर तीज के गीत गाती हैं। 

झारखंड और छत्तीसगढ़: इन राज्यों में भी यह व्रत किया जाता है, जहाँ महिलाएँ अपने पति की लंबी आयु के लिए प्रार्थना करती हैं। यहाँ की स्त्रियाँ सामूहिक रूप से शिव-पार्वती का पूजन करती हैं और लोकगीत गाती हैं। 

व्रत की संक्षिप्त विधि एवं पारायण

हरितालिका तीज का व्रत बेहद कठिन होता है, क्योंकि यह निर्जला होता है। इसमें नारियाँ सुबह जल्दी उठकर स्नान करने के बाद करती हैं। वे मन में व्रत का संकल्प लेती हैं कि वे बिना अन्न-जल ग्रहण किए इस व्रत को पूर्ण करेंगी। व्रत के दौरान मिट्टी से भगवान शिव, माता पार्वती और गणेश जी की प्रतिमा बनाई जाती है। इन प्रतिमाओं को सजाकर पूजा स्थल पर स्थापित किया जाता है। महिलाएँ शृंगार की सभी सामग्री, जैसे—चूड़ी, बिंदी, सिंदूर, मेहँदी, आदि माता पार्वती को अर्पित करती हैं। शाम के समय सभी महिलाएँ एक साथ इकट्ठा होकर हरितालिका तीज की व्रत कथा सुनती हैं व्रत के दौरान महिलाएँ रात भर जागरण करती हैं और भजन-कीर्तन करती हैं। व्रत का पारायण अगले दिन सूर्योदय के बाद किया जाता है। महिलाएँ भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा के बाद ही जल ग्रहण करती हैं और प्रसाद खाकर व्रत खोलती हैं। 

भाद्रपद तीज केवल एक व्रत नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति का एक जीवंत हिस्सा है। यह हमें सिखाता है कि प्रेम, आस्था, त्याग और समर्पण से ही जीवन में सफलता और सुख प्राप्त किया जा सकता है। यह व्रत महिलाओं को अपनी संस्कृति और परंपराओं से जोड़े रखता है। भाद्रपद तीज केवल एक व्रत नहीं, बल्कि भारतीय नारी की आस्था और तप का उत्सव है। यह पर्व हमें यह स्मरण कराता है कि जीवन में कठिन साधनाएँ ही शुभ फल देती हैं। पार्वती का संकल्प, उनकी अटूट श्रद्धा और शिव का वरदान स्त्री के संकल्प-शक्ति का शाश्वत उदाहरण है। 

आज के युग में जब जीवन भागदौड़ और भौतिकता से भर गया है, ऐसे व्रत और त्योहार हमें अपनी जड़ों से जोड़ते हैं। ये केवल धार्मिक रीति नहीं, बल्कि परिवार और समाज की एकता, प्रेम और स्थिरता का प्रतीक हैं। भाद्रपद तीज भारतीय संस्कृति का वह अद्भुत पर्व है, जहाँ स्त्री तपस्विनी भी है, श्रद्धा की मूर्ति भी और परिवार की रक्षा करने वाली शक्ति भी। आधुनिक युग में जहाँ रिश्ते कमज़ोर हो रहे हैं, तीज जैसे पर्व पति-पत्नी के रिश्ते को और भी मज़बूत बनाते हैं। यह महिलाओं के लिए एक ऐसा अवसर है, जहाँ वे अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण मूल्यों को याद करती हैं और अपनी आस्था को और मज़बूत करती हैं। यह पर्व हमें यह भी याद दिलाता है कि भले ही समय बदल जाए, लेकिन हमारी सांस्कृतिक जड़ें हमेशा गहरी और मज़बूत रहनी चाहिए। 

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