मनुस्मृति: आलोचना से समझ तक
डॉ. सुशील कुमार शर्मा
भूमिका:
मनुस्मृति भारत के प्राचीन धर्मशास्त्रों में से एक है, जिसे ‘धर्मसूत्रों’ का एक विकसित रूप माना जाता है। यह ग्रंथ समाज व्यवस्था, आचार-विचार, शासन, विधि और दायित्वों का निर्देश देता है। परन्तु आधुनिक समय में यह अनेक विवादों और ग़लत धारणाओं का विषय बना हुआ है।
अक्सर यह देखा गया है कि मनुस्मृति को बिना उसके ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक संदर्भ के पढ़े ही आलोचना का शिकार बनाया जाता है। यह आलेख इन भ्रांतियों को युक्तिसंगत रूप से स्पष्ट करने का प्रयास है।
1. धारणा: मनुस्मृति जातिवाद को बढ़ावा देती है
तथ्य: मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था कर्म और गुणों के आधार पर है, जन्म के आधार पर नहीं। वर्ण व्यवस्था समाज के संगठन का एक उपकरण था, जो कर्त्तव्यों पर आधारित था।
श्लोक: “जात्या जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते।”
अर्थात् जन्म से सब शूद्र होते हैं, संस्कारों से द्विज (द्वितीय जन्म प्राप्त ब्राह्मण) कहलाते हैं।
तथ्यात्मक उदाहरण:
ऋषि वाल्मीकि, जिनका जन्म निषाद जाति में हुआ था, वे महान महाकाव्य रामायण के रचयिता बने।
महर्षि वेदव्यास, जो मछुआरिन माता के पुत्र थे, ब्रह्मज्ञान के प्रतीक बने।
भगवान कृष्ण ने गीता में कहा: “चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः” अर्थात् वर्णों का विभाजन गुण और कर्म के आधार पर है।
2. धारणा: मनुस्मृति स्त्रियों के अधिकारों का हनन करती है
तथ्य: यह आरोप अधूरी व्याख्याओं और चयनित श्लोकों के आधार पर लगाया जाता है। मनुस्मृति स्त्री को माँ, देवी और गृह की धुरी के रूप में सम्मान देती है।
श्लोक: “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।”
जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता वास करते हैं।
विश्लेषण:
मनुस्मृति स्त्री के प्रति संरक्षण और सम्मान की भावना को महत्त्व देती है।
स्त्री के लिए विवाह, विरासत और माता के रूप में गरिमा की विशेष व्यवस्था दी गई है।
3. धारणा: यह ब्राह्मणों को सर्वोपरि और अन्य जातियों को हीन बताता है
तथ्य: मनुस्मृति में चारों वर्णों के लिए अलग-अलग कर्त्तव्य बताए गए हैं, पर किसी को हीन नहीं कहा गया। प्रत्येक वर्ग की उपयोगिता और कर्त्तव्य समाज की समुचित व्यवस्था हेतु थे।
उदाहरण:
शासक की भूमिका क्षत्रियों की थी। ब्राह्मणों को शिक्षा और यज्ञों की ज़िम्मेदारी दी गई। वैश्यों को व्यापार, शूद्रों को सेवा का कार्य–यह एक समर्पणात्मक कर्त्तव्य संरचना थी, न कि शोषण।
4. धारणा: मनुस्मृति अब अप्रासंगिक है, इसलिए इसे नकार देना चाहिए
तथ्य: मनुस्मृति कोई ‘शाश्वत विधान संहिता’ नहीं, बल्कि एक सामाजिक निर्देश पुस्तिका थी, जिसे समय और समाज के अनुरूप बदला जा सकता था।
महत्त्वपूर्ण बिंदु: यह उस युग की क़ानूनी, नैतिक और सामाजिक व्यवस्था का दर्पण है। इसकी उपयोगिता शाश्वत नहीं, संदर्भ-सापेक्ष है।
5. धारणा: मनुस्मृति केवल ब्राह्मणों द्वारा रची गई सत्ता की चाल है
तथ्य: मनुस्मृति केवल ब्राह्मणों के लिए नहीं, समस्त समाज के दायित्व और धर्मों की व्याख्या करती है। इसमें ब्राह्मणों पर भी कठोर नियंत्रण और तपस्याओं की अपेक्षा की गई है।
श्लोक उदाहरण: यदि ब्राह्मण दायित्वों से च्युत होता है, तो उसे निम्न वर्ण में गिराया जा सकता है। यह विशेषाधिकार नहीं, ज़िम्मेदारी थी।
6. धारणा: इसमें दासप्रथा और ग़ुलामी का समर्थन है
तथ्य: मनुस्मृति में ‘दास’ शब्द का प्रयोग कई बार हुआ है, परन्तु वह आज के ‘गुलाम’ या ‘अमानवीय शोषण’ के अर्थ में नहीं है। उस युग में ‘सेवक’ या ‘कर्मचारी’ के लिए यह शब्द प्रयोग होता था, जिसके साथ कर्त्तव्यों और अधिकारों की भी व्यवस्था थी।
7. धारणा: मनुस्मृति के कारण महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा गया
तथ्य: मनुस्मृति में कहीं भी स्पष्ट रूप से यह निषेध नहीं है कि स्त्रियाँ शिक्षा नहीं पा सकतीं। यह निषेध कुछ मध्यकालीन सामाजिक प्रवृत्तियों का परिणाम था।
उदाहरण:
गार्गी, मैत्रेयी, अपाला, लोपामुद्रा आदि विदुषियों का उल्लेख वेदों और उपनिषदों में मिलता है।
स्त्री शिक्षा की सीमाएँ मनुस्मृति की अपेक्षा बाद की सामाजिक रूढ़ियों की देन हैं।
मनुस्मृति को खंडित उद्धरणों से नहीं, संपूर्णता में, यथार्थ और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखना चाहिए। इसे नकारने के स्थान पर समझने का प्रयास होना चाहिए। यह ग्रंथ तत्कालीन समाज की एक दिशा थी, जो आज संदर्भ और विवेक के साथ प्रेरणा बन सकती है।
हमें चाहिए कि मनुस्मृति जैसे ग्रंथों का मूल्यांकन केवल आधुनिक चश्मे से न करके, ऐतिहासिक दृष्टि से किया जाए–तभी हम सत्य, परंपरा और परिवर्तन के संतुलन को समझ सकेंगे।
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