राम प्रिय भरत

01-07-2024

राम प्रिय भरत

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 256, जुलाई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

(राम भरत मिलाप) 

 

काव्य नाटिका
काव्यानुवाद: सुशील शर्मा

पात्र: दशरथ, राम, लक्ष्मण, भरत, कैकेयी आदि

 

प्रथम दृश्य

 

 (दशरथ राम के वन जाने के बाद मरणासन्न स्थिति में हैं, उन्हें आशा है सुमंत्र राम को वापस ले आएँगे, सुमंत्र निराश वापस लौटते हैं) 

 

(नेपथ्य)

 

व्याकुल थे दशरथ बहुत
हृदय राम की प्यास। 
सुन सुमंत्र का आगमन
मन में जागी आस।

  

प्रिय सुमंत्र आकर मिले
नैनों में था नीर। 
छलक छलक कर गिर रही
असुंओं के संग पीर। 

 

दशरथ:

 

राम जानकी लक्ष्मण
क्या लौटे हैं संग। 
हे सुमंत्र बतलाइए
हृदय हो रहा भंग।

  

हे मेरे प्रेमी सखा
कहो कुशल हैं राम। 
पुत्रवधू प्रिय अनुज संग
क्या लौटे निज धाम? 

 

राजतिलक होना था जिसका
उसको वन का वास दिया। 
हे राम धन्य तुम सुत मेरे
वन तुमने स्वीकार किया। 

 

ऐसे पुत्र के वन जाने पर
निकले नहीं प्राण मेरे। 
दशरथ कितना पापी है तू
पास बचा अब क्या तेरे। 

 

हे सुमंत्र मुझको ले जाओ
राम लखन सिय जहाँ रहें। 
प्राण निकलना ही अब चाहें
तन मन अतुलित कष्ट सहें। 

 

प्रिय पुत्रों का मधुर संदेशा
हे सुमंत्र तुम मुझे सुनाओ। 
उन तीनों के प्यारे मुखड़े
तुम मेरे समक्ष ले आओ। 

 

सुमंत्र:

 

देव आप अति शूर वीर हैं
ज्ञानी दानी पंडित हैं। 
साधु प्रजा के सेवक स्वामी
श्रेष्ठ बुद्धि से मंडित हैं। 

 

सुख-दुख भोग लाभ अरु हानि
जन्म-मरण सब कर्म अधीन। 
अपनों का मिलना खो जाना
प्रारब्धों का खेल प्रवीण। 

 

आप सभी के हित रक्षक हैं
हृदय धैर्य धारण करिये। 
बुद्धि विवेक धर्म के धारक
पुत्र शोक न मन भरिये। 

 

राम आपके सुत प्यारे ने
चरण नमन कहलाया है। 
पाँव पकड़ कर विनती भेजी
पिता का मन सहलाया है। 

 

कहा राम ने पूज्य आपसे
चिंता उनकी मत करिये। 
वो सकुशल वापस आएँगे
पीड़ा से मन मत भरिये। 

 

कृपा अनुग्रह पुण्य आपके
नित मंगल उनका करते। 
वन में वो सब सुख पाएँगे
पिता वचन मन में धरते। 

 

सब माताओं के चरणों में
राम ने वंदन भेजा है। 
आप कुशल नित रहें अवध में
पग अभिनंदन भेजा है। 

 

गुरु वशिष्ठ के श्री चरणों में
सादर वंदन राम का। 
अवधपति को मार्ग बताएँ
धर्म नीति सुख धाम का। 

 

प्रिय भरत को राम ने भेजा
एक संदेशा प्यारा है। 
नेह नियम से चलना भ्राता
अब ये राज तुम्हारा है। 

 

राजा बन कर भूल न जाना
धर्म वंश की नीति को। 
मात-पिता की सेवा करना
मन रख प्रजा की प्रीति को। 

 

इतना कह कर राम चंद्र ने
विदा क्षमा मुझसे माँगी। 
छाती पर था वज़्र गिरा जब
रघु ने अवध धरा त्यागी। 

 

कर न सका कुछ विकल हृदय में
पीर हृदय में घोर मिली। 
तन मेरा था प्राण रहित जब
राम चंद्र की नाव चली। 

 

 (सुमंत्र के वचन सुनते ही राजा पृथ्वी पर गिर पड़े, उनके हृदय में भयानक जलन होने लगी। वे तड़पने लगे, उनका मन भीषण मोह से व्याकुल हो गया) 

 

(नेपथ्य)

 

चीख-चीख माताएँ रोतीं
प्राण तन में विकल होते। 
दुःख देख कर दुखी हो गया
हृदय पीर का सागर ढोते। 

 

कोहराम अयोध्या में भारी था
हर द्वार खड़ा था शोक भरे। 
रनिवासों में श्मशान खड़ा था
पीड़ा के कोड़े हाथ धरे। 

 

दशरथ के थे प्राण कंठ में
जैसे मणि बिन साँप है। 
विकल इन्द्रियाँ तन बोझिल है
मन में पीड़ा काँप है। 

 

 (कौशल्या ने राजा को बहुत दुःखी देखकर अपने हृदय में जान लिया कि अब सूर्यकुल का सूर्य अस्त होने वाला है, तब माता कौशल्या हृदय में धीरज धरकर समय के अनुकूल वचन बोले) 

 

कौशल्या:

 

राम वियोग सिंधु के जैसा
पुरी अयोध्या नैया है। 
प्रजा समाज नाव में बैठा
इसके आप खिवैया हैं। 

 

हे स्वामी धीरज मन धर कर
इसको पार करेंगे हम। 
यदि आप धीरज खो देंगे
बीच धार डूबेंगे हम। 

 

मेरी विनती सुन लो स्वामी
दीप आस के हृदय जलेंगे। 
वर्ष चतुर्दश की बस देरी
राम लखन सिय आन मिलेंगे।

 

 (कौशल्या के कोमल वचन सुनते हुए राजा ने आँखें खोलकर देखा! मानो तड़पती हुई दीन मछली पर कोई शीतल जल छिड़क रहा हो) 

 

दशरथ:

 

तुम धन्य राम की जननी हो
मैं बस पिता अभागा हूँ। 
यह शोक कहाँ तक मैं रोकूँ
मैं तो बस टूटा धागा हूँ। 

 

कैकेयी काल फांस फँस कर
राम को मैंने खोया है। 
वही फ़सल मैं काट रहा हूँ
बीज जो मैंने बोया है। 

 

हा! श्रवण तुम्हींं हो काल मेरे
तुमको ही मैंने मारा था। 
वो पिता भी ऐसे रोया था
वो भी ऐसा बेचारा था। 

 

वो श्राप आज अभिशाप बना
मैंने भी सुत को खोया है। 
अब मरण मेरा भी निश्चित है
वह सामने है जो बोया है। 

 

हा राम तुम्हींं तो प्राण मेरे
अब तुम बिन न रह पाऊँगा। 
हे सीते क्षमा मुझे करना
क्या तुमको मुँह दिखलाऊँगा। 

 

हे रघुकुल के आनंद मणि
हे राम मुझे तुम मिल जाओ। 
हे लखन सुमित्रानंदन प्रिय
पिता दृष्टि में अब आओ। 

 

हे राम राम हे राम राम
तुम बिन अब कैसे जीऊँ मैं। 
हे राम राम हे राम राम
क्यों जीवन विष यह पीऊँ मैं। 

 

(नेपथ्य)

 

राम राम रटते रटते ही
दशरथ ने प्राण गँवाए थे। 
हँसा सबको छोड़ चला था
सब अपने हुए पराये थे। 

 

शोक व्याप्त था अवधपुरी में
रघु दिनकर अब अस्त हुआ। 
अपने प्रारब्धों के आगे यह
सिंह सा मानव पस्त हुआ। 

 

तेल पात्र नाव में रख कर
राजा शव रखवाया था। 
दूत भेज कर गुरु वशिष्ठ ने
भरत श्रेष्ठ बुलवाया था।

 

द्वितीय दृश्य

 

 (गुरु वशिष्ठ ने आकर सब को सांत्वना दी एवं उन्होंने दूत भेज कर भरत को बुलवाया उन्होंने दूतों से कहा कि राजा की मृत्यु का संदेश किसी को भी न बताएँ सिर्फ़ भरत और शत्रुघ्न से इतना कहें कि उन्हें गुरुदेव ने तुरंत बुलवाया है। जब से अयोध्या में ये कुचक्र चला था तबसे भरत को बहुत बुरे स्वप्न आ रहे थे एवं कई अपशकुन हो रहे थे उनका मन अत्यंत चिंतित रहता था, जैसे ही दूत ने गुरुदेव की आज्ञा सुनाई भरत और शत्रुघ्न वायु के समान वेग वाले घोड़ों पर सवार होकर अयोध्या पहुँचे) 

 

(नेपथ्य)

 

पवन वेग से घोड़े चलते
पर्वत नदी नाकते जाते। 
भरत बहुत उद्विग्न हृदय में
और तेज हाँकते जाते। 

 

निकट अयोध्या के आने पर
हृदय बहुत घबड़ाया था। 
गीदड़ कौवे चिल्लाते थे
अवध मृत्यु का साया था। 

 

सांध्य समय निस्तब्ध पुरी थी
उपवन सूने लगते थे। 
नहीं नागरिक पथ पर कोई
पथ सब ऊने लगते थे। 

 

शोभाहीन नदी वन उपवन
मौन अवध में बहता था। 
नर नारी सब मौन दुखी थे
कोई कुछ न कहता था। 

 

गगन चूमते महल खड़े थे
लम्बी चुप्पी थे ओढ़े। 
नर नारी सब उन्हें घूरते
भरत सहमते थे थोड़े। 

 

सुना भरत का महल में आना
कैकेई मन उल्लास भरा। 
थाल सजा कर गई सामने
मन में सब था हरा हरा। 

 

कैकेयी:

 

भरत कुशल सब प्रिय जन होंगे
प्यारे नैहर में मेरे। 
नाना नानी सब कैसे हैं
कैसे हैं मामा तेरे। 

 

भरत:

 

कुशल सभी हैं मात वहाँ पर
अवध में क्यों सब मौन हैं। 
दुःख में डूबे लोग सभी क्यों
इसका दोषी कौन है। 

 

मेरे पिता कुशल से तो हैं
सब माताएँ गईं कहाँ। 
मेरे प्रभु श्री राम कहाँ हैं
मुझको लेकर चलो वहाँ। 

 

कैकेयी:

 

विधि को था मंज़ूर यही सुत
पिता तुम्हारे स्वर्ग सिधारे। 
राज तुम्हारे नाम कर गए
नृप निज मृत्यु से हैं हारे। 

 

 (यह सुनकर भरत बेहाल होकर ज़मीन पर गिर पड़ते हैं और विलाप करते हैं) 

 

भरत:

 

हे पिता भरत को त्याग आप
क्यों अवध छोड़ कर चले गए। 
हे मात कहाँ हैं राम हमारे
हम विधि से क्यों छले गए। 

 

पिता स्वस्थ तन-मन हर्षित थे
क्या उनकी मृत्यु के कारण हैं। 
क्यों नहीं बताती राम कहाँ हैं
जो इस रघुकुल के तारण हैं। 

 

(कैकेयी ने बड़ी प्रसन्नता के साथ पूरी कहानी भरत को सुना दी, भरत आपद मस्तक काँप रहे थे, शत्रुघ्न का क्रोध साँतवें आसमान पर था) 

 

कैकेयी:

 

मेरे दो वर मैंने माँगे
वचनबद्ध थे पिता तुम्हारे। 
भरत अखंड राज्य था माँगा
तेरे शूल चुने हैं सारे। 

 

चौदह वर्ष राम वन जाएँ
यह दूजा वर मैंने चाहा। 
पुत्र मेरा सम्राट बनेगा
कष्ट हमारे अब सब स्वाहा। 

 

राम राज्य अभिषेक कराने
पिता ने वह षड्यंत्र रचा था। 
यदि राम राजा हो जाता
पास हमारे कुछ न बचा था। 

 

पुण्य प्रतापी पिता तुम्हारे
स्वर्गधाम को चले गए। 
जीवन तो आना जाना है
मृत्यु से वह छले गए। 

 

छोड़ो दुख अब राज सम्हालो
अवध राज्य पर राज करो
प्रजा समाज की सेवा करके
विधि आज्ञा अब शीश धरो। 

 

(रामचन्द्रजी का वन जाना सुनकर भरत पिता की मृत्यु भूल गए और हृदय में इस सारे अनर्थ का कारण अपने को ही जानकर वे मौन होकर स्तम्भित रह गए)

 

भरत:

 

अरे पापनी नागिन तूने
पूरे कुल का नाश किया। 
पेड़ काट कर पत्ते सींचे
तूने राज्य विनाश किया। 

 

क्यों न जन्मते मुझको मारा
क्यों यह दिन दिखलाया है। 
नहीं जानती तू हे दुष्टा
हित को अहित बनाया है।

 

सूर्यवंश सा वंश मिला है 
दशरथ जैसे पिता मिले। 
राम लखन से भाई मेरे
सुमन पुण्य के भाग्य खिले।

 

पर तेरी जैसी माता ने
कोख से मुझको जाया है। 
भाग्यहीन ये भरत दुष्ट है
जिसने तुझको पाया है। 

 

दुष्ट विचार कहाँ से आये
कुमति हृदय ये कैसे आयी। 
जली नहीं क्यों जिह्वा तेरी
ये वर तू कैसे कह पायी। 

 

तनिक भी न ये सोचा तूने
कितने पाप भरे यह वर हैं
अधम अभागन पापन स्त्री
कितने दुष्ट विचार गहर हैं। 

 

पिता ने क्यों सब बातें मानी
भ्रात ने क्यों संकल्प लिया। 
बुद्धि फिरी थी उन दोनों की
पापन पर विश्वास किया। 

 

नहीं विधाता भी समझा है
नारी स्वभाव क्या होता है। 
कपट, अवगुणी त्रिया चरित है
कष्टों को ही बोता है। 

 

थे सुशील निज धर्म परायण
भोले भाले पिता हमारे। 
तेरी कपट कुचालों में ही
प्राण उन्होंने अपने हारे।

 

राम अनूप स्वभाव मनोहर
राम तो हैं सबके ही प्यारे। 
उनको वन का वास दिया है
क्षीण पुण्य तेरे हों सारे। 

 

कितना पापी भरत अभागा
जो तेरा हृदयांश है। 
राम विरोधी भरत हो गया
जो उनका ही अंश है। 

 

दूर चली जा अब दृष्टि से तू
भरत नहीं है अब सुत तेरा
हे कलंकनी दुष्टा पापन
टूटा तुझसे रिश्ता मेरा। 

 

तृतीय दृश्य

 

(कैकेयी की कुटिलता को देख सुन कर शत्रुघ्न हृदय में जल रहे थे किन्तु कुछ कर नहीं पा रहे थे उसी समय मंथरा सज धज कर वहाँ आ गयी उसे देख कर शत्रुघ्न ने क्रोध में उसकी कूबड़ पर एक लात मारी और उसे बालों से पकड़ करघसीटते हुए बाहर ले जाने लगे तब भरत ने उसे छुड़ाया, दोनों भाई कौशल्या से मिलने पहुँचे, कौशल्याजी मैले वस्त्र पहने हैं, चेहरे का रंग बदला हुआ है, व्याकुल हो रही हैं, दुःख के बोझ से शरीर सूख गया है) 

 

भरत:

 

कहाँ पिता हैं माता मेरे
भरत को उनसे मिलवा दो। 
राम लखन दो भ्राता मेरे
उनके मुखड़े दिखला दो। 

 

मरी नहीं क्यों मेरी माता
पापन क्यों न बाँझ बनी। 
कुल कलंकनी पति द्रोही बन
सूर्य वंश की साँझ बनी। 

 

मेरे ही कारण हे माता
पिता स्वर्ग के वासी हैं। 
अधम अभागी मेरे कारण
भैया वन के वासी हैं। 

 

दशा आपकी मेरे कारण
प्रियजनो का मैं द्रोही हूँ। 
मैं हूँ अधम अभागा पापी
दुःख का विषम विरोही हूँ। 

 

कौशल्या:

 

राम सरीखा तू सुत मेरा
भरत मेरा निष्पाप है। 
सरल हृदय संत के जैसा
रघुकुल प्रबल प्रताप है। 

 

धीरज धरो शोक को त्यागो
बुरा समय यह तुम जानो। 
काल भाग्य की गति अमिट है
स्वयं दोष मत तुम मानो। 

 

दोष किसी का नहीं भरत यह
प्रारब्धों का लेखा है। 
इतने दुःख में भी जीवित मैं, 
यही भाग्य की रेखा है।

 

पिता वचन का पालन करने
पुत्र राम वनवास गया। 
भूषण वस्त्र राज सब त्यागे
लेकर के संन्यास गया। 

 

हर्ष विषाद नहीं मुख पर था
न आसक्ति द्वेष था। 
मन संतोष लखन सिय संग थे
तन वनवासी भेष था। 

 

भरत:

 

यदि भरत का इसमें हो मत
तो मेरा संसार जले। 
पुत्र, पिता-माता की हत्या
करने का नित पाप मिले। 

 

वेद त्याग कर वाम मार्ग पर
जो पापी जन चलते हैं। 
वेश बना कर जो ठगते हैं
जगत को जो नित छलते हैं। 

 

जो लोभी लम्पट लालच में
ग़लत आचरण करते हैं। 
परस्त्री पर बुरी दृष्टि रख
पापों से मन भरते हैं। 

 

ऐसी ही गति मुझको देना
यदि इसमें मेरा हाथ हो। 
अति निकृष्ट गति मिले भरत को
यदि कैकेयी का साथ हो। 

 

कितना पापी भरत आपका
सबका कष्ट निमित्त बना। 
क्यों मैं अब तक जीवित माता
क्यों न मृत्यु का द्वार चुना। 

 

कौशल्या:

 

नहीं भरत तुम अति निर्मल हो
राम के प्यारे भ्राता हो। 
हृदय तुम्हारा पाप रहित है
तुम वेदों के ज्ञाता हो। 

 

चंद्र भले ही विष को घोले
पाला अग्नि बरसाए। 
जलचर सारे नीर रहित हों
ज्ञान मोह से भर जाए। 

 

भरत हृदय निर्मल जल जैसा
नहीं राम प्रतिकूल है। 
भरत हृदय श्री राम रमे हैं
भरत प्रेम का मूल है। 

 

चतुर्थ दृश्य

 

 (कौशल्या जी ने भरत को हृदय से लगाया, अनेक प्रकार से सांत्वना दी, सुबह प्रभात होने पर वशिष्ठ जी ने राजा दशरथ का दाह संस्कार किया, वेदोक्त अनुसार दशगात्र संस्कार कराया, कुछ समय बीत जाने पर भरतजी को वशिष्ठजी ने अपने पास बैठा लिया और नीति तथा धर्म से भरे हुए वचन कहे) 

 

वशिष्ठ:

 

हानि लाभ अपयश सब होता
विधि के ही अनुसार भरत। 
जीवन मरण कष्ट सुख-दुख सब
होनहार होनी अविरत। 

 

किसे दोष हम इसका देवें
सभी भाग्य का खेल है। 
नहीं किसी पर क्रोध करो तुम
प्रारब्धों का मेल है। 

 

चिंता शोक उसी को होते
जिसके मन में ज्ञान नहीं। 
धर्म कर्म के पथ को त्यागे
मन में गुरु सम्मान नहीं। 

 

भरत तुम्हारे पिता इंद्र सम
वैभवशाली रघुवंशी। 
हुआ न कोई आगे होगा
ऐसा राजा रवि वंशी। 

 

राम भरत लक्ष्मण शत्रु से
जिनके पावन पुत्र हैं। 
देव सभी उनके गुण गाते
दशरथ उच्च चरित्र हैं। 

 

बड़भागी दशरथ के जैसा
कहो जगत में कौन है। 
व्यर्थ शोक सुत क्यों करते हो
बुद्धि ज्ञान क्यों मौन है। 

 

राजा ने पद तुम्हें दिया है
उनका वचन निभाओ तुम। 
वचन निभाने तन को त्यागा
वह पद निश्चित पाओ तुम। 

 

परशुराम ने पिता वचन पर
माता का सिर काटा था। 
नृप यताति के सुत ने अपना
यौवन उनसे बाँटा था। 

 

पिता वचन का पालन करना
हर सुत का कर्त्तव्य है। 
पिता वचन को पूर्ण करो तुम
हम सब का मंतव्य है। 

 

नहीं बात कोई अनुचित है
राज्य के तुम अधिकारी हो। 
जब तक राम रहेंगे वन में
तुम ही राज्य प्रभारी हो। 

 

यदि राम वापस आते हैं
सौंप राज्य उनका देना। 
इसमें नहीं विसंगति कोई
यह निर्णय तुमको लेना। 

 

भरत:

 

आप सभी मेरे अपने हैं
मेरे हित की बात करें। 
मन में पर संतोष नहीं है
उत्तर मेरा हृदय धरें। 

 

पिता स्वर्ग में भ्रात कष्ट में
कैसे मैं यह राज करूँ
जिस पर है अधिकार प्रभु का
मुकुट माथ कैसे धर लूँ। 

 

मैं तो चाकर श्री रघुवर का
धर्म मेरा उनकी सेवा। 
कैकेयी की इस कुटिल चाल ने 
छीना मुझसे यह मेवा। 

 

बिना राम सीता चरणों के
नहीं राज्य का अर्थ है। 
बिना लक्ष्मण भ्राता के यह
सिंहासन भी यह व्यर्थ है। 

 

राम सिया के श्री चरणों में
ही मेरा कल्याण है। 
बिना राम चरणों की सेवा
कहाँ भरत निर्वाण है। 

 

अधम पातकी कैकेयी सुत यह
नहीं राज्य का अधिकारी। 
रहूँगा मैं भी जाकर वन में
मैं पापी मिथ्याचारी। 

 

सभी अनर्थों के मैं कारण
बिना राम के जीवित हूँ। 
मैं कलंक हूँ अवधपुरी का
मैं पापी परिसीमित हूँ। 

 

कैकेयी के मैं अंश से उपजा
कितना कुधर कुभागी हूँ। 
प्रियजन परजन सबका दोषी
राम द्रोह का भागी हूँ। 

 

माँ कौशल्या सरल हृदय हैं
बात तभी ऐसी करती हैं। 
जिसने सुत वनवास दिया है
उसके सुत का मन भरतीं हैं।

 

गुरुवर ज्ञान के सागर जैसे
राजतिलक मेरा करते। 
है विपरीत विधाता मुझसे
दुःख से सब मुझको भरते। 

 

माथा सबको आज झुका कर
भरत हृदय की बात कहे। 
बिना राम चरणों का वंदन
कैसे जीवित भरत रहे। 

 

राम हृदय बस मेरा जानें
किससे अपनी बात कहूँ। 
बिना राम के जीवन सूना
कैसे उनके बिना रहूँ। 

 

शपथ पूर्वक मैं कहता हूँ
सुबह राम पथ जाऊँगा। 
मैं भी उनके साथ रहूँगा
लौट के अब न आऊँगा। 

 

यद्यपि अपराधी मैं उनका
पर कृपालु श्री राम हैं। 
सब अपराध बिसारेंगे वह
वह करुणा के धाम हैं। 

 

सरल स्वभाव कृपा के घर वह
वो कृपालु अधिराज हैं
मैं सेवक वो मेरे स्वामी
शील शगुन सुख साज हैं। 

 

अतः कृपा कर आज्ञा दीजे
भरत राम लौटा कर लाए। 
राज्य अवध का उन्हें समर्पित
कर सेवा का वह सुख पाए। 

 

पंचम दृश्य

 

(सभी लोग भरत जी की प्रशंसा कर रहे थे एवं राम के प्रति उनके अगाध प्रेम को देख कर आनंदित थे, सभी अवध वासियों एवं परिवारजन, प्रजाजन राम से मिलने की तैयारी करने लगे) 

 

(नेपथ्य)

 

अवध की रक्षा प्रथम धर्म है
भरत ने सब रक्षक बुलवाये। 
सीमा पर चौकस सेना थी
शत्रु भीतर न घुस पाए। 

 

चली महायात्रा फिर वन को
चारों ओर ध्वजा लहराए। 
सघन दुन्दुभि बजे अवध में
हर मुखड़ा मन में मुस्काए। 

 

अश्व गजों के साथ सुसज्जित
स्वजन प्रजा सब आतुर थे। 
राम मिलन की उत्कंठा में
सबके मन प्रिय चातुर थे। 

 

माता सभी पालकी बैठीं
पंडित द्विज सब थे तैयार। 
तिलक राम का वहीं करेंगे
भरत सोचते मन आभार। 

 

तन मन पुलकित हृदय भरा था
गद्‌गद्‌ भाव हृदय में थे
राम लखन सिय हमें मिलेंगे
आँखों में प्रेमाश्रु थे। 

 

अग्निहोत्र की ले सामग्री
मुनि वशिष्ठ बैठे थे रथ पर। 
पंडित द्विज उनके पीछे थे
सब फिर पीछे थे पथ पर। 

 

छटवाँ दृश्य

 

(सई नदी के किनारे सबने प्रथम रात्रि का विश्राम लिया एवं प्रातः वहाँ से चल दिए और सब श्रृंगवेरपुर के समीप जा पहुँचे। निषादराज ने सब समाचार सुने, तो वह दुःखी होकर हृदय में विचार करने लगा) 

 

निषाद: 
(मन में सोचते हुए) 

 

भरत आज क्यों वन को जाते
मन में निश्चित कपट भरा। 
साथ लिए सारी सेना क्यों
कुटिल भाव क्या हृदय धरा। 

 

भरत सोचता होगा मन में
लखन सहित राम वध हो
पथ का कंटक हट जाने पर
निष्कंटक फिर राज अवध हो। 

 

राजनीति का भान नहीं है
भरत मृत्यु का विष पीते। 
नहीं विश्व की कोई शक्ति
राम को जो रण में जीते। 

 

कुल को किया कलंकित पहले
कैकेयी है विष की बेला। 
उसी का पत्ता मूर्ख भरत है
खेल रहा मृत्यु खेला। 

 

चलो वीर सज्जित हो जाओ
सब नौकाओं पर चढ़ कर। 
आज भरत से लोहा लेंगे
हम सब रण में चढ़-बढ़ कर। 

 

साज़ सजा लो सब मृत्यु के
भरत से रण लोहा लेंगे। 
जब तक प्राण रहेंगे तन में
पार उतरने न देंगे। 

 

यह क्षणभंगुर नश्वर शरीर है
राम काज में आएगा। 
मृत्यु मिली यदि भरत बाण से
आत्म स्वर्ग को जाएगा। 

 

स्वामी हित मैं लड़ूँ समर में
उज्ज्वल यश कर जाऊँगा। 
जीता तो प्रभु राम मिलेंगे
मृत्यु में स्वर्ग समाऊँगा। 

 

(उसी समय एक वृद्ध निषाद ने कहा कि भरत शीलवान हैं वो राम को मनाने जा रहें हैं पहले उनसे मिल लो उसके बाद उनका मत जानकार फिर युद्ध के लिए तैयारी करना बिना जाने युद्ध करने में हित की बहुत बड़ी हानि है। निषादराज बहुत सारे उपहार लेकर भरत के पास गए, मुनि वशिष्ठ को साष्टांग दंडवत की, मुनि ने भरत से कहा ये राम के मित्र हैं, यह सुनकर भरत दौड़ कर निषाद राज के पास पहुँचे और उन्हें गले लगाया) 

 

निषाद:

 

कुशल मूल श्री चरण आपके
मैं श्री वंदन करता हूँ। 
मुदमंगलमय दर्शन पाकर
सब विधि अर्चन करता हूँ। 

 

श्री चरणों के दर्शन पाकर
सात पीढ़ियाँ मुक्त हुईं
तीनों काल तिरोहित कुल के
इन्द्रिय सत संयुक्त हुईं। 

 

मैं कायर कुबुद्धि कपटी हूँ
हीन जाति में जन्म मिला। 
राम प्रभु की कृपा मिली तो
जग में उज्जवल नाम खिला। 

 

भरत:

 

हे निषाद तुम धन्य भाग हो
राम हृदय स्पर्श मिला। 
लक्ष्मण से तुम मेरे भाई
मिल कर तुमसे हृदय खिला। 

 

प्रभु पद की रज तुमने पाई
तुम कितने बड़ भागी हो। 
मैं प्रणाम तुमको करता हूँ
रघुवर पद अनुरागी हो। 

 

जीवन लाभ तुम्हीं ने पाया
प्रभु की बाँह समाये हो। 
ऋषि मुनि देव प्राप्ति को तरसें
वह प्रभु पद रज पाए हो। 

 

कामधेनु माँ गंगे की रज
करूँ आपका मैं श्री वंदन। 
राम चरण सेवक की प्रीती
महके मन में जैसे चंदन। 

 

मित्र मुझे वह स्थान दिखाओ
जिसका माँ ने चयन किया। 
उस माटी का वंदन कर लूँ
प्रभु ने जिस पर शयन किया। 

 

मेरी प्यारी भाभी माता
श्रेष्ठ सुकोमल नार हैं। 
इस कठोर धरती पर सोईं
भरत तुझे धिक्कार है। 

 

सबका प्यारा लखन हमारा
मेरे मन में बसता है। 
पग में कंटक कितने चुभते
प्रभु सेवा कर हँसता है। 

 

लखन धन्य है भाग तुम्हारे
प्रभु की सेवा नित पाई। 
मिला बड़े दुर्भाग्य से तुमको
पापी अधम भरत भाई। 

 

जगत प्रकाशित राम जन्म से
शील कृपा गुणधाम हैं। 
सबको सुख प्रभु देने वाले
दीनदयालु राम हैं। 

 

सुख स्वरूप रघुवंश शिरोमणि
मंगल के भंडार हैं। 
कुशा बिछा कर नीचे सोते
भरत तुझे धिक्कार हैं। 

 

कंद मूल फल भोजन करते
कुशा बिछा कर सोते हैं। 
कैकेयी मूल अमंगल कारण
मेरे नैना रोते हैं। 

 

कुल कलंक मैं वंश बना हूँ
अवध का मैं अवरोही हूँ। 
बनी कुमाता मेरी जननी
मैं स्वामी का द्रोही हूँ। 

 

निषाद:

 

व्यर्थ विषाद हृदय मत कीजे
आप राम के प्यारे हैं। 
जैसे लक्ष्मण हृदय राम के
आप भी रामदुलारे हैं। 

 

विधि बना प्रतिकूल आपका
माता का मन फेरा है। 
प्रारब्धों के प्रतिचालन में
पीड़ाओं ने घेरा है। 

 

उस दिन भी प्रभु ने बोला था
मेरा भरत महान है। 
अवध सदा उससे रक्षित है
शील सत्य गुणवान है। 

 

सब कुछ मंगलमय ही होगा
मन का धैर्य नहीं छोड़ें। 
अतिशय प्रिय हो आप राम के
मन को मंगलमय मोड़ें।

 

सातवाँ दृश्य

 

 (दूसरे दिन प्रातः भरत गंगा नदी को पार कर सभी सेवकों एवं प्रजा जनों के साथ चित्रकूट के लिए प्रस्थान करते हैं वो पैदल ही चलने का निश्चय करते हुए अपनी यात्रा करते हैं भरत जी अपने प्रियजनों के साथ प्रयागराज में भरद्वाज ऋषि से आशीर्वाद लेते हैं) 

 

भरत:

(मन ही मन सोचते हैं) 

 

यदि ऋषिवर मुझसे पूछेंगे
क्या उनको उत्तर दूँगा। 
करूँ सामना कैसे उनका
मौन हृदय में भर लूँगा। 

 

भरद्वाज:

 

सुनो भरत नहीं दोष तुम्हारा
विधि का सारा खेल है। 
भरत निमित्त बने बस तुम हो
प्रारब्धों का मेल है। 

 

माता की करतूत समझ कर
ग्लानि हृदय में मत भरना। 
शारद ने मति उसकी फेरी
तभी झरा विष का झरना। 

 

जिसे पिता राजा पद देते
वही वेद से मान्य है। 
नहीं दोष तुमको जाता है
भरत राज्य अधिमान्य है। 

 

राम गमन की पीड़ा सबक़ो
पर यह विधि अनुसार है। 
कैकेयी ने भावी वश होकर
किया अधम व्यवहार है। 

 

जो ये समझे भाव तुम्हारा
वह असाधु अज्ञानी है। 
तुम तो निर्मल गंगाजल हो
भरत साधु सन्मानी है। 

 

यदि राज्य तुम करते तो भी
दोष तुम्हारा न होता। 
हृदय राम के भी सुख होता
जीवन व्यथित नहीं होता। 

 

पर यह तुमने उचित किया है
शरण राम की आये हो। 
प्रेम राम से मंगल मूलक
रामचरण रति पाए हो। 

 

भरत बहुत बड़भागी हो तुम
दशरथ सुत तुम न्यारे हो। 
साधु शील भक्ति के परिचय
रामचंद्र के प्यारे हो। 

 

हृदय राम के तुम बसते हो
तुम उनके प्रिय अंश हो। 
राम बड़ाई करें भरत की
श्रेष्ठ रघु के वंश हो। 

 

(यह जानकार कि राम हमेशा मेरी बड़ाई करते हैं भारत भावविव्हल होकर रोने लगते हैं भरतजी का शरीर पुलकित है) 

 

भरत:

 

आप परम सर्वज्ञ ज्ञान के
राम तत्त्व के ज्ञाता हो। 
नहीं सत्य है कोई जगत में 
आप से जो छुप जाता हो। 

 

अपनी माता की करनी का
सोच नहीं मन है रहता। 
नहीं सोचता हूँ यह मन में
जगत मुझे नीचा कहता। 

 

नहीं पिता के मरने का दुःख
न भय है परलोक का। 
व्यथित हृदय में दुःख भरा है
राम गमन के शोक का। 

 

कैकेयी का कुविचार बढ़ई है
भरत राज्य बसूला है
वन का गमन कुयंत्र मंत्र है
चौदह बरस का शूला है। 

 

बारह बाट किया कैकेयी ने
छिन्न भिन्न व्यक्तित्व है। 
बिना राम की अवधपुरी में
भरत का क्या अस्तित्व है। 

 

भरद्वाज:

 

राम के दर्शन भरत करो तुम
सारे दुःख मिट जायेंगे। 
शीतल हृदय तुम्हारा होगा
राम ही कष्ट मिटाएँगे। 

 

अष्टम दृश्य

 

 (भारद्वाज जी से विदा लेकर भरत चित्रकूट की ओर प्रस्थान करते हैं, रामचंद्र जी प्रातःकाल स्नान ध्यान कर कुशा आसनी बिछा कर कामदगिरि पर्वत पर ऋषि मुनियों के साथ सत्संग कर रहे थे उत्तर दिशा की ओर से आकाश में धूल छा रही थी, रामचंद्र जी को आश्चर्य हुआ कि ऐसा क्यों हो रहा है तभी भील और किरातों ने आकर सूचना दी कि भरत आ रहें हैं, श्री रामचंद्रजी के मन में बड़ा आनंद हुआ। शरीर में पुलकावली छा गई और शरद् ऋतु के कमल के समान नेत्र प्रेमाश्रुओं से भर गए, लक्ष्मण के मन में शंका हुई कि भरत सेना के साथ क्यों आ रहे हैं) 

 

लक्ष्मण:

 

बिना आपकी आज्ञा लेकर
बात आपसे कहता हूँ। 
भले ढिठाई मेरी समझो
प्रभु चरणों में रहता हूँ। 

 

आप हृदय के बहुत सरल हैं
शील नेह के सागर हैं। 
अबको अपने जैसा समझें
आप निपुण गुण नागर हैं। 

 

मूढ़ जीव प्रभुता मद पाकर
असल स्वभाव प्रकट करते हैं। 
नीति परायण भरत आपके
हृदय कपट निज भरते हैं। 

 

राज्य आपका पाकर देखो
कुल की मर्यादा छोड़ी। 
वन में राम अकेले पाकर
रिश्तों की डोरी तोड़ी। 

 

मन में कपट विचार सँजोये
सेना लेकर दोनों आये। 
निष्कंटक हो राज्य अवध का
राम लौट ना आ पाए। 

 

यदि हृदय में कपट न होता
रथ घोड़े हाथी क्यों लाते। 
नहीं भरत दोषी हैं इसमें
मद आया है राज को पाते। 

 

किया भरत ने उचित ही
ऋण शत्रु नहीं शेष। 
निष्कंटक फिर राज्य है
भरत की बुद्धि विशेष। 

 

किया निरादर आपका
जान राम असहाय। 
आज मिलेगा फल उसे
पायेगा वह न्याय। 

 

स्वामी अब मत मानिये
अनुचित मेरी बात। 
बहुत प्रताड़ित हो चुके
ये अंतिम आघात। 

 

सहने की सीमा होती है
सहा नहीं अब जाता है। 
स्वामी तुम सेवक लक्ष्मण है
हाथ धनुष अब आता है। 

 

मैं सेवक का यश पाऊँगा
भरत को सबक़ सिखाऊँगा। 
भरत:शत्रुघ्न रण में मारूँ
सेवक धर्म निबाहूँगा। 

 

क्रोध भरा है पिछला मन में
उसे प्रकट मैं आज करूँगा। 
बाज़ लवे को ज्यों लपेटता
कौशल रण में आज भरूँगा। 

 

भरत:

 

शत्रुघ्न रण में जीतूँ
सौंगंध राम की मैं धारूँ। 
शंकर क्यों न बनें सहायक
तब भी उनको मैं मारूँ। 

 

राम:

 

शांत अनुज मन अपना कर लो
पहले सत्य भरत का जानो। 
जल्दी में अनुचित मत करना
युद्ध हृदय में मत ठानो 

 

नहीं सुना है ना ही देखा
भरत सरीखा पुरुष कभी। 
दान शील करुणा की मूरत
उसे मानते देव सभी। 

 

राज्य अयोध्या को तो छोड़ो
स्वर्ग राज्य भी यदि मिले। 
भरत आत्म अभिमान न आये
हृदय भरत में शील खिले। 

 

तमस सूर्य को चाहे निगले
गगन निगल ले या बादल। 
गो-खुर में अगस्त्यजी डूबें
जगत को खाये टिड्डीदल। 

 

ले सुमेरु मच्छर उड़ जाए
सिंधु भले नाली में बहता। 
भरत हृदय अभिमान न आये
शपथ अनुज पितु की ले कहता। 

 

दूध गुरु अवगुण जल मिल कर
विधि ने सारा जगत दिया। 
सूर्यवंश के हँस भरत ने
क्षीर नीर को दूर किया। 

 

भरत धर्म की ध्वजा पताका
अगम भरत के गुण की गाथा। 
भरत सत्य पथ का है गामी
सूर्यवंश का ऊँचा माथा। 

 

नवम दृश्य

 

भरतजी ने सारे समाज के साथ पवित्र मंदाकिनी में स्नान किया, माता, गुरु और मंत्री की आज्ञा माँगकर निषादराज और शत्रुघ्न को साथ लेकर भरतजी वहाँ चले जहाँ श्री सीताजी और श्री रघुनाथजी थे) 

 

भरत:

(मन में सोचते हुए)

 

देख मुझे रघुनाथ लखन सिय
कैसे हित व्यवहार करेंगे। 
माता कैकेयी करनी का
आज भरत परिणाम भरेंगे। 

 

देख मुझे अन्यंत्र गए वो
क्या मुझसे मुख बोलेंगे। 
कैकेयी के साथ समझ कर
अवगुण से वो तौलेंगे। 

 

राम शील गुण कृपा निकेतन
क्षमा मुझे वो कर देंगे। 
मेरी आशाओं की झोली
नेह दया से भर देंगें। 

 

अब त्यागें या क्षमा करें वो
वो तो मेरे स्वामी हैं। 
उनकी चरण पादुका सिर पर
वो मन अंतर्यामी हैं। 

 

(एक सुंदर विशाल बड़ का वृक्ष सुशोभित है, नदी के समीप श्री राम की पर्णकुटी है, तुलसीजी के बहुत से सुंदर पौधे सुशोभित हैं, लक्ष्मणजी प्रभु के आगे खड़े हैं और पूछे हुए वचन प्रेमपूर्वक कह रहे हैं, सिर पर जटा है, कमर में मुनियों का (वल्कल) वस्त्र बाँधे हैं और उसी में तरकश कसे हैं। हाथ में बाण तथा कंधे पर धनुष है, वेदी पर मुनि तथा साधुओं का समुदाय बैठा है और सीताजी सहित श्री रघुनाथजी विराजमान हैं, भरत की तरफ़ पीठ किये बैठे थे सामने लक्ष्मण थे, भरत राम चंद्र जी को देख कर प्रणाम करना चाहते थे किन्तु प्रेम में बेसुध होकर साष्टांग गिर पड़ते हैं।) 

 

लक्ष्मण:

 

प्रिय भ्राता आये प्रभु देखो
नमन आपको करते हैं। 
भाव विव्हल आँखों में आँसू
चरण दंडवत भरते हैं। 

 

(राम ने जैसे ही भरत का नाम सुना वह तुरंत पीछे मुड़े एवं प्रेम में अधीर होकर धनुष बाण वहीं छोड़ कर ज़मीन में साष्टाँग पड़े भरत को उठा कर गले से लगाते हैं)

 

(नेपथ्य)

 

साधु मिलन यह अनुपम देखो
सुध बुध सब अपनी भूले हैं। 
राम भरत के इस मिलाप पर
मन आनंद कुसुम फूले हैं। 

 

अगम अव्यक्त प्रेम दोनों का
बुद्धि चित्त मन प्रेम भरा था। 
भाव विव्हल आँखों में आँसू
भ्रात प्रेम सम स्वर्ण खरा था। 

 

 चरण राम के पकड़ भरत फिर
हिलक-हिलक कर ऐसे रोते। 
नहीं नीर की आवश्यकता थी
असुँअन से ही प्रभु पग धोते। 

 

लखन शत्रुघ्न दोनों भाई
आपस में फिर गले मिले। 
एक डाल के सुमन हैं दोनों
साथ एक फिर आज खिले। 

 

सीता जी के श्री चरणों में
भरत ने शीश नवाया था। 
चरण कमल रज सिरपर धर कर
धन्य स्वयं को पाया था। 

 

राम ने गुरु का वंदन करके
कैकेयी चरण पखारे थे। 
फिर कौशल्या मातु सुमित्रा
भेटें राम दुलारे थे। 

 

देख दशा अपनी साँसों की
सीता सजल नयन भर आये। 
विधि का ये विधान है कैसा
सोच सिया मन में दुःख पाए। 

 

वशिष्ठ:

 

माया मय संसार ये सारा
सुख-दुख मन के पाले हैं। 
जीवन तो जीना ही पड़ता
विधि के खेल निराले हैं। 

 

पिता तुम्हारे राम स्वर्ग में
छोड़ तुम्हें वो चले गए। 
विरह तुम्हारा न सह पाए
मृत्यु से नृप छले गए। 

 

राम:

 

पिता आप क्यों मुझसे रूठे
कितना राम अभागा है। 
मुझसे कुछ अपराध हुआ है
तभी आपने त्यागा है। 

 

(चारों भाई, रानियाँ, सीता सभी बिलख बिलख कर दशरथ जी को याद करने लगे तब वशिष्ठ जी ने ज्ञान का उपदेश दिया, दो दिन बाद रामचंद्र जी ने वशिष्ठ से अयोध्या लौटने का कहा तो सभी व्याकुल हो गए, सभी राम के पास रहना चाहते थे) 

 

राम:

 

नाथ सभी अत्यंत व्यथित हैं
कंद मूल फल खाते हैं। 
इस वन में सब मेरे कारण
प्रिय जन पीड़ा पाते हैं। 

 

गुरुजन प्रियजन आप यहाँ पर 
पिताजी स्वर्ग सिधारे हैं। 
अवध का सिंहासन सूना है
दुख से हम सब हारे हैं। 

 

आप सभी को गुरुवर लेकर
अवधपुरी वापस जाएँ। 
क्षमा मुझे प्रभु गुरुवर करना
आप सभी को समझाएँ। 

 

 (राम की बात सुनकर वशिष्ठ उनसे कहते हैं कि अभी सब प्रियजन दुखी हैं इन्हें कुछ दिन और आपके दर्शन करने दो, दूसरे दिन मुनि वशिष्ठ भरत एवं सभासदों को बुला कर अपने निर्णय से उनको अवगत कराते हैं) 

 

वशिष्ठ:

 

राम धर्म के प्रतिरूपण हैं
राम दिव्य के अंश है। 
सबके हृदय आप में रत हैं
राम परम रघुवंश हैं। 

 

अवधपुरी के वासी सुनलो
सुनो सभासद भरत सुजान। 
राम धर्म हैं राम कर्म हैं
राम इष्ट सबके भगवान। 

 

सत्य प्रतिज्ञ धर्म के रक्षक
कल्याणक अवतार हैं। 
मात पिता गुरु के चरणों में
श्रद्धा राम अपार है। 

 

नीति, प्रेम, परमार्थ स्वार्थ हित
राम तत्त्व से सब जानें
ब्रह्मा विष्णु महेश काल सब
इनकी आज्ञा को मानें। 

 

सूर्य, शास्त्र वेद, प्रभुता नित
इनकी वाणी कहते हैं। 
माया जीव कर्म सब सिद्धि
राम चरण में रहते हैं। 

 

उनका मत ही सर्वोपरि है
आप सभी क्या कहते हैं। 
राजतिलक श्री राम करें हम
शरण राम की गहते हैं। 

 

राम लखन सिय चलें अयोध्या
भरत शत्रुघ्न वन को जाएँ। 
पिता वचन भी पूरा होगा
स्वर्ग में नृप दशरथ सुख पाएँ। 

 

भरत:

 

मात-पिता शिशु के कारक हैं
कर्मों का फल विधि देता है। 
गुरु सबसे ऊपर होता है
सारे अवगुण हर लेता है। 

 

विधि का लेख मिटाने वाले
कोई न मन संशय पाले। 
गुरुवर का निर्णय उत्तम है
कोई नहीं इसको टाले। 

 

तत्त्व ज्ञान विज्ञान विशारद
ज्ञानी आप सुजान हैं। 
उत्तम निर्णय कल्याणक है
गुरुवर आप महान हैं। 

 

आज्ञा दें प्रभु आप सभी को
शीघ्र व्यवस्था हो जाए। 
राम अवध के राजा होगें
वास भरत वन का पाए। 

 

(इसी के मध्य राम अपनी माताओं से मिलने जाते हैं कैकेयी राम को देख कर विकल हो जाती है, कैकेयी विकल होकर राम से कहती है) 

 

कैकेयी:

 

वत्स तुम्हें वनवास दिया है
माता वही तुम्हारी हूँ। 
क्षमा यदि तुम मुझको कर दो
मन से मैं आभारी हूँ। 

 

बुद्धि मेरी पलट गयी थी
अपयश ने मुझको घेरा। 
जिह्वा पर दुर्बुद्धि बैठी
मन में कपट का था डेरा। 

 

कैसे कहूँ भरत सुत मेरा
वो तो तेरा प्यारा है। 
मैं दुर्बुद्धि अधम पापनी
दोष कैकेयी सारा है। 

 

आधी रात को तू उठ उठ कर
मँझली माँ चिल्लाता था। 
जीजी तुझको लेकर आती
अंक मेरे सो जाता था। 

 

आज वही मैं तेरी माता
हाथ जोड़ विनती करती हूँ। 
अवधपुरी को लौट चलो तुम
आज वचन तुमसे भरती हूँ। 

 

बात नहीं तुम कभी टालते
अपनी मँझली माता की। 
सिया संग अब लौट चलो तुम
लाज रखो निज भ्राता की। 

 

राम:

 

माता हृदय ग्लानि मत भरना
तुम्हीं राम की माता हो। 
है राम तुम्हारा पुत्र सदा से
तुम ही जीवन दाता हो। 

 

जननी ने तो बस जना मुझे है
राम को तुमने पाला है। 
राम की तुम सबसे प्रिय माता
मुँह का दिया निवाला है। 

 

आया हूँ वनवास सिया संग
वचन तुम्हारा मान कर। 
पिता वचन को मत तुड़वाओ
रघुवंशी तुम जान कर। 

 

वचन पिता श्री से हैं बंधित
राम कहाँ से मुक्त हुआ। 
यदि पिता का वचन भंग हो
राम पाप अनुरक्त हुआ। 

 

सुख से मैं वनवास करूँगा
तुम सब चिंतित मत होना। 
चौदह बरस शीघ्र ही बीतें
तुम सब धीरज मत खोना। 

 

(कैकेयी समझ गयी कि राम पिता का वचन नहीं तोड़ सकते अतः दुःख मना कर चुपचाप बैठ गई) 

 

दशम दृश्य

 

(वशिष्ठ के निर्णय को सभी सही मानते हैं और यह निर्णय लेकर रामचंद्र जी के पास जाते हैं) 

 

वशिष्ठ:

 

राम धर्म तुम राम नीति तुम
तुम सर्वज्ञ सुजान हो। 
सबके मन में बसने वाले
आप गुणों की खान हो। 

 

अवध, भरत, माताओं के हित
का उपाय बतलाइये। 
वचन पिता का भी न टूटे
हल ऐसा समझाइये। 

 

राम:

 

रघुकुल के गुरु आप मुनि हैं
वचन आपके सुनना है
जो भी आज्ञा मिले आपकी
बस उसको ही चुनना है। 

 

भक्ति भरत की बड़ी प्रबल है
मेरी बुद्धि भरमाई। 
भरत हितार्थ करूँगा पूरा
आज्ञा जो मैंने पाई। 

 

वशिष्ठ:

 

पहले विनती सुनें भरत की
सब विचार उस पर करलें। 
लोक, साधु, नीति के मत में
हृदय उपाय सभी धर लें। 

 

राम:

 

धर्म धुरंधर मेरा सेवक
भक्ति भरत ने वह पाई। 
नाथ पिता सौंगंध हृदय में
नहीं भरत सम है भाई। 

 

मुँह पर उसकी करूँ बड़ाई
मेरा हृदय सकुचता है। 
भरत कहे जो करूँ मैं पूरा
भरत हृदय में बसता है। 

 

वशिष्ठ:

(भरत से)

 

त्याग सभी संकोच हृदय से
भरत हृदय की बात कहो। 
राम तुम्हारे अंतस बसते
मन की पीड़ा अब न सहो। 

 

भरत:

 

मेरे मन की सारी बातें
गुरु श्री मुख ने बोली हैं। 
और कहूँ अब क्या रघुवर से
मुनि ने गाँठें खोली हैं। 

 

अपराधी पर दया करें वो
क्रोध नहीं तिल भर मन में। 
मैं विशेष ही कृपा पात्र हूँ
भरत शीश श्री चरनन में। 

 

कभी नहीं तोड़ा मेरा मन
बचपन से ही नेह निभाया। 
खेल-खेल में जब भी हारा
स्वयं हार कर मुझे जिताया। 

 

नहीं कभी भी मैंने टाले
उनके श्री मुख के आदेश। 
उनके श्री दर्शन से मिलते
हृदय भरत के शुभ सन्देश। 

 

था स्वीकार नहीं यह विधि को
स्वामी सेवक का यह प्रेम। 
मेरी माँ के नीच कर्म से
नष्ट हुआ सारा सुख क्षेम। 

 

साधु मुझको सब जग कहता
कोई मुझको यह समझाए। 
जिसकी माता कुटिल कुठाहर
कैसे वह साधु कहलाये। 

 

मेरे पापों के ही कारण
ऐसी माता मुझे मिली। 
उसका ही तो बीज बना हूँ
कैसे भरत हुआ असली। 

 

चारों ओर पाप हैं मेरे
नहीं भलाई का साधन। 
राम:सिया स्वामी हैं मेरे
बस इतना ही मेरा धन। 

 

गुरु स्वामी के समीप में
सत्य भाव से कहता हूँ। 
तीर्थ भूमि पर सत्य कहूँगा
प्रभु चरणों में रहता हूँ। 

 

यह प्रपंच या नेह हमारा
श्री रघुनायक जानते। 
मेरा हृदय राम में रत है
मुझे दास वह मानते। 

 

राम:

 

व्यर्थ ग्लानि मन में तुम भरते
जीव ईश अधीन है। 
भरत धर्म की ध्वजा केतु है
भरत ब्रह्म में लीन है। 

 

नहीं तीन कालों में कोई
भरत सदिश पुण्यात्मा है। 
भरत भक्ति की अंतिम सीमा
भरत राम सर्वात्मा है। 

 

भरत नाम के सेवन से ही
पुण्य उदय हो जाते हैं। 
कष्ट प्रपंच अमंगल मिटते
पाप क्षरित हो जाते हैं। 

 

हृदय तुम्हारे प्रेम है मेरा
सत्य बात यह मैं जानूँ। 
ज्ञान शील गुण धर्म केतु तुम
भरत राम प्रिय मैं मानूँ। 

 

एक ओर गुरुवर की आज्ञा
एक ओर संकोच तुम्हारा। 
एक ओर है वचन पिता का
दुविधा मैं बैठा मन सारा। 

 

पिता ने मुझको वन में भेजा
अपने तन को त्यागा है। 
लोग कहेंगे राजा बनने
राम वचन से भागा है। 

 

भरत हृदय सुख जिसमें होगा
वही वरण हम सभी करेंगे। 
आज भरत जो भी निर्णय ले
वही अनुसरण सभी करेंगे। 

 

भरत:

 

हे रघुवीर कृपा के सागर
आप सार इस जीवन का। 
गुरु स्वामी दोनों प्रसन्न हैं
कल्पित कष्ट मिटा मन का। 

 

मिथ्या भय मेरे मन बैठा
है दुर्भाग्य काल मेरा। 
कृपा आके चरणों ने की
मिटा हृदय तम का डेरा। 

 

कल्पवृक्ष हैं रघुवर मेरे
जैसा मन वैसा देते। 
सदा रहें अनुकूल हमारे
बदले में कुछ न लेते। 

 

स्वामी मन संकोच बिठा कर
स्वार्थ सिद्धि सेवक मन हो
कोटि-कोटि पापों को भोगे
कष्ट भरा यह जीवन हो। 

 

अवधपुरी राम यदि लौटें
यही हमारा स्वार्थ है। 
रामाज्ञा का पालन करना
हम सब का परमार्थ है। 

 

सारे पुण्य राम चरणों में
राम प्राण आधार हैं। 
सारी गतियाँ प्रभु पद रहतीं
आप हृदय शृंगार हैं। 

 

राजतिलक की यह श्रुत सामग्री
का उपयोग प्रभुजी करिये। 
हम सब की यह अंतिम विनती
अवध मुकुट आप शीश पर धरिये। 

 

आप अयोध्या लौट चलें प्रभु
मैं शत्रुघ्न साथ वन पांऊ। 
लखन सिया को आप साथ लें
मैं प्रसन्न होकर वन जाऊँ। 

 

श्री सीता के साथ अवध को 
रघुवर लौट के जाएँगे। 
हम तीनों भ्राता इस वन में
पिता का वचन निभाएँगे। 

 

सदा आपने मेरी मानी
अंतिम विनती यही हमारी
स्वार्थ हमारा सबका इसमें
राजतिलक की है तैयारी। 

 

सेवक ने मन की सब बातें
प्रभु चरणों में विनत पुकारी। 
अब प्रभु की जो भी हो आज्ञा
शिरोधार्य सेवक को सारी। 

 

एकादश दृश्य

 

 (उसी समय दूतों ने आकर बताया कि मिथला नरेश राजा जनक सपत्नीक अपने प्रिय जनों के साथ भी चित्रकूट आ गए हैं, सभी का मन प्रसन्न हो गया विशेषरूप से सीता जी का हृदय अत्यंत प्रफुल्लित था कुछ दिनों के पश्चात राम वशिष्ठ जी के पास जाकर कहते हैं कि सभी लोग यहाँ पर व्याकुल हैं आप कैसे भी इन सबको अवधपुरी ले जाईये) 

 

राम:

 

गुरुवर सभी दुखी हैं मन में 
कष्ट निवारण गुरु करिये। 
शीघ्र उपाए सोचिये गुरुवर
घाव हृदय के प्रभु भरिये। 

 

वशिष्ठ:

 

बिना राम रघुनंदन रघुवर
मिथला अवध नरक के जैसे। 
हृदय तुम्हारे पास सभी का
उनको मैं समझाऊँ कैसे। 

 

प्राणों के भी प्राण राम तुम
आत्मा के भी ईश हो। 
सारे सुख श्री राम निहित हैं
तुम सबके आधीश हो। 

 

बिना तुम्हारे सभी दुखी हैं
तुमसे ही सारा सुख है। 
बिना तुम्हारे प्राण नहीं अब
बिना तुम्हारे ही दुख है। 

 

वशिष्ठ:

(राजा जनक से)

 

हे राजन तुम ज्ञानवान हो
धर्म नीति मर्मज्ञ हो। 
इस दुविधा को दूर करो नृप
राजऋषि धर्मज्ञ हो। 

 

जनक:

 

मुनिवर मुझसे यह न होगा
पक्ष में किसके मैं बोलूँ। 
दोनों तरफ़ हानि है मेरी
मैं अपनी बुद्धि तौलूँ। 

 

भरत श्रेष्ठ ही इस दुविधा का
कंटक आज निकालेंगे। 
धर्म नीति में निपुण भरत ही
अपनी बात सम्हालेंगे। 

 

भरत:

 

आप पिता के जैसे मेरे
गुरुवर मेरे भगवन हैं। 
मैं निमित्त हूँ इस दुविधा का
निर्णय कठिन कहावन है। 

 

मौन यदि इस पर रहता हूँ
समझें लोग मलिन मन है। 
यदि मैं बोलूँ अपनी बातें
वो मेरा पागलपन है। 

 

जो भी आज्ञा रघुवर देंगे
मैं बस उसको पालूँगा। 
वो स्वामी में सेवक उनका
आज्ञा कैसे टालूँगा? 

 

वशिष्ठ:

(श्री राम से के पास जाते हैं) 
 
सबका मत है राम तुम्हीं को
अंतिम निर्णय लेना है। 
निर्णय में सब सहमत हैं
ऐसा सबका कहना है। 

 

राम:

 

आप श्रेष्ठ सब यहाँ विराजे
उचित नहीं मैं निर्णय लूँ। 
मिथलेश्वर हैं पिता हमारे
सम्मुख कैसे मैं मत दूँ। 

 

जो भी आज्ञा आप करेंगे
शिरोधार्य उसको कर लूँगा। 
शपथ उठा कर मैं कहता हूँ
कोई प्रतिवाद नहीं दूँगा। 

 

(रामचन्द्रजी की शपथ सुनकर सभा समेत मुनि और जनकजी स्तम्भित रह गए)। किसी से उत्तर देते नहीं बनता, सब लोग भरतजी का मुँह ताक रहे थे, भरत ने सरस्वती जी का स्मरण करके अपनी बात रखी) 

 

भरत:

 

क्षमा चाहता हूँ मैं सबसे
छोटे मुँह यह बात कहूँ
है अनुचित व्यवहार ये मेरा
पर कैसे मैं मौन रहूँ। 

 

मात-पिता स्वामी गुरु दाता
परम हितैषी अंतर्यामी। 
शरणागत के प्रभु रक्षक हैं
सरल हृदय सर्वज्ञ प्रणामी। 

 

प्रभु वचनों का किया उल्लंघन
सबको यहाँ बटोरा है। 
सब प्रकार की करी ढिठाई
मलिन हृदय प्रभु मोरा है। 

 

कृपा आपने मुझपर करके
यशोगान का मान दिया। 
मेरे दोष बने सब भूषण
मुझको अपना मान लिया। 

 

बिगड़ी बात बना कर प्रभु ने
सेवक को सम्मान दिया। 
साधु शिरोमणि मुझे बना कर
मुझ पर यह उपकार किया। 
 
सांगोपांग कृपा मुझ पर की
मुझ से अमित दुलार किया। 
जिसका नहीं भरत अधिकारी
उतना प्रेम उदार दिया। 

 

राम:

 

भरत तात तुम धर्म धुरंधर
सत्य शील सुख सागर हो
नीति, लोकमत के तुम ज्ञाता
वेदज्ञान के आगर हो। 

 

वचन कर्म मन से तुम निर्मल
नहीं दूसरा कोई यहाँ। 
सत्य धीर दृढ़नेम समर्पित
धर्म वही है भरत जहाँ। 

 

सत्य प्रतिज्ञ पिता का यश तुम
रघुवंशी कुल रीति हो। 
कर्त्तव्यों पर सदा समर्पित
मेरे मन की प्रीति हो। 

 

गुरु की कृपा हुई है हम पर
मन बुद्धि सब शिक्षित है
मिथलेश्वर का मिला सहारा
अवध अभी तक रक्षित है। 

 

मात-पिता गुरु स्वामी आज्ञा
सब धर्मों में श्रेष्ठ है। 
गुरु प्रसाद ही रक्षक होता
राज-धर्म अति नेष्ठ है। 

 

वही भरत तुम करो आज भी
मुझसे भी वह करवाओ। 
सूर्यवंश के रक्षक बन कर
साधक मणि तुम कहलाओ। 

 

मेरी विपत बाँट ली सबने
पर तेरा है कष्ट बड़ा। 
चौदह वर्ष तपस्या का दुःख
भरत सामने देख खड़ा। 

 

तुम कोमल मन के स्वामी हो
मैं कठोर यह बात कहूँ। 
संग भरत का मिल जाए तो
वज्र कष्ट मैं हँस के सहूँ। 

 

भरत:

 

संग आपका पाकर रघुवर
हृदय प्रेम से पुलकित है
जन्म भरत का सफल हो गया
प्रभु आज्ञा अब अनुमित है। 

 

अब जैसी हो प्रभु की आज्ञा
मैं पालूँगा अन्तर्यामी। 
चौदह वर्ष अवधि मैं काटूँ
वो अबलम्बन दे दो स्वामी। 

 

द्वादश दृश्य

 

भरत जी रामचंद्र जी से आज्ञा लेकर चित्रकूट के उन स्थानों का भ्रमण करते हैं जहाँ-जहाँ श्री राम चंद्र जी के पग पड़े थे, छटवें दिन सुबह सब लोग एकत्रित हो गए, आज अयोध्या जाने का दिन था, राम चंद्र जी सबको विदा करने में सकुचा रहे थे। भरत ने बड़े विनम्र भाव से राम जी से कहा। 

 

भरत:

 

प्रभु ने पूरित की सब रुचियाँ
सब मेरे संताप सहे। 
नाथ मुझे अब आज्ञा दीजे
सब मैंने अनुताप कहे। 

 

चौदह वर्ष अवधि मैं काटूँ
नाथ मुझे वह शिक्षा दीजे। 
सुखी रहें अवधपुर वासी
ऐसा कुछ उपाय प्रभु कीजे। 

 

राम:

 

गुरुवशिष्ठ मिथलेश्वर रक्षक हैं
यही हमारे तुम्हारे शिक्षक हैं
नहीं क्लेश या कष्ट भरत को
यही कर्म के वीक्षक हैं। 

 

वचन पिता का पालन करना
यही हमारा धर्म है। 
सुयश परम पुरुषार्थ इसी में
यही पिता हित कर्म है। 

 

मुख समान ही मुखिया होता
बुद्धि विवेक रखे चतुराई। 
एक सरिस व्यवहार सभी से। 
दूजा हो या अपना भाई। 

 

इतना ही बस राजधर्म है
इसका पालन करना है। 
कर्त्तव्यों का पालन करते
कष्ट प्रजा के हरना है। 

 

(भरत निरंतर श्री राम के चरणों को निहार रहे थे, श्री राम ने उनका भाव समझते हुए रामचन्द्रजी ने कृपा कर खड़ाऊँ दे दीं और भरतजी ने उन्हें आदरपूर्वक सिर पर धारण कर लिया।)

 

भरत:

 

धन्य धन्य हैं भाग हमारे
भ्राता जो पाया है तुमको। 
अवधपुरी अवलंबन हेतु
चरण पाँवरी दे दो हमको। 

 

सिंहासन पर चरण पादुका 
हृदय राम प्रतिमान रहेंगे
कर्त्तव्यों के कंटक पथ पर
सारी पीड़ा भरत सहेंगे। 

 

(भरतजी ने प्रणाम करके विदा माँगी, श्री रामचंद्रजी ने उन्हें हृदय से लगा लिया) 

 

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