स्पर्श से परे

01-10-2025

स्पर्श से परे

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 285, अक्टूबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

देह भाषा नहीं है, 
वह शब्दों को नहीं पहचानती, 
उसकी अपनी व्याकरण है
रक्त की लय, 
त्वचा की गर्मी, 
साँसों की गति। 
 
तुमने मुझे छुआ
और देह तो चुप रही, 
उसने कोई प्रतिवाद नहीं किया, 
उसके लिए वह
बस एक क्षणिक कम्पन था। 
पर मन ने
उस स्पर्श को पत्थर की लकीर बना लिया। 
वह दाग़ अब भी
मिटता नहीं है। 
 
स्पर्श की एक लिपि है
उसकी ध्वनि नहीं, 
उसके अक्षर नहीं, 
केवल कम्पन है। 
मैंने जब उसे
किसी दूसरी लिपि में अनुवाद करना चाहा, 
तो अर्थ खो गया। 
जैसे किसी ने
पानी पर शब्द लिख दिए हों। 
 
छुई गई देह भर थी, 
पर घायल हुआ मन। 
देह की स्मृति तो
थोड़ी देर में विलीन हो जाती है, 
किन्तु आत्मा की स्मृति
न मिटती है, 
न क्षीण होती है। 
 
कितना अजीब है
हमने एक-दूसरे को छुआ, 
फिर भी हम
कभी एक-दूसरे को नहीं छू सके। 
क्योंकि छूना
सिर्फ़ त्वचा तक सीमित नहीं, 
वह आत्मा तक उतरने का नाम है। 
 
जिसे विकलता थी
स्पर्श के लिए, 
वह देह नहीं थी
वह मन था, 
वह हृदय था, 
वह आत्मा थी, 
जो किसी सच्चे आलिंगन की प्रतीक्षा में थी। 
 
देह के भूगोल में
सिर्फ़ सीमाएँ हैं, 
पर आत्मा का भूगोल
असीम है। 
देह का स्पर्श
क्षणिक है, 
मन का स्पर्श
अनन्त है। 
 
इसलिए
किसी ने यदि सच में छुआ, 
तो वह त्वचा को नहीं
अंतरतम को छूता है। 
और वही छुअन
अर्थपूर्ण है। 
 
बाक़ी सब
बस आकृति का खेल है, 
भाषा का भ्रम है, 
एक शून्य की नक़ल है। 
 
मैं प्रतीक्षा करता हूँ
उस स्पर्श की
जो देह की दीवार पार कर
आत्मा की चौखट तक पहुँचे। 
उस स्पर्श की
जो कोई दाग़ न छोड़े, 
बल्कि घाव धोकर
मन को निर्मल बना दे। 
 
स्पर्श जब प्रेम से जन्म ले
तो वह वाणी बन जाता है। 
स्पर्श जब वासना से उपजे
तो वह मौन का बोझ है। 
स्पर्श जब करुणा से छलके
तो वह अनन्त आलोक है। 
 
मैं वही स्पर्श चाहता हूँ
जो मुझे समेट ले, 
मुझे खोल दे, 
मुझे मिटा दे, 
और फिर
मुझे मेरे ही भीतर
संपूर्ण कर दे। 

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