ओशो का अवतरण—अंतरात्मा का पर्व

15-12-2025

ओशो का अवतरण—अंतरात्मा का पर्व

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 290, दिसंबर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

(ओशो के जन्मदिन पर कविता) 

 ग्यारह दिसंबर आता है
और हवा में कोई मौन
फिर से बोलने लगता है, 
जैसे पृथ्वी के भीतर
कोई पुराना घंटा
ध्यान के लिए बज उठा हो। 
 
यह केवल एक जन्मदिन नहीं, 
यह उस चेतना का उत्सव है
जो परंपरा के जंगल में
अकेली खड़ी
एक निर्भय मशाल थी। 
 
रजनीश और ओशो 
दो नहीं, एक ही श्वास के
दो अलग-अलग नाम, 
जब चंद्रोदय जैसा मौन
मनुष्य के भीतर उतर आया। 
 
उन्होंने भीड़ से अलग
चलने का साहस सिखाया, 
और समझाया कि
अनुयायी होना
सबसे बड़ा अंधकार है। 
 
उन्होंने कहा
धर्म किसी ग्रंथ में नहीं, 
धर्म तुम्हारी धड़कन में है, 
जब तुम बिना भय
अपने होने को स्वीकार करते हो। 
 
उनका व्यक्तित्व
किसी आश्रम की दीवारों में नहीं, 
एक खुला आकाश था
जिसमें प्रश्नों के बादल
और उत्तरों की बिजली
एक साथ कौंधते थे। 
 
वे साधु नहीं थे, 
वे विद्रोह की प्रार्थना थे, 
एक ऐसा संत
जो आँखों में आग
और हृदय में करुणा
एक साथ लिए चलता था। 
 
उनकी वाणी में
न शोर था
न प्रचार, 
वह तो
आंतरिक सूखे मैदान में
बरसात की पहली बूँद थी। 
 
उन्होंने आदमी को
ईश्वर से पहले
ख़ुद से मिलने को कहा, 
और आत्मज्ञान को
मंदिर नहीं, 
मौन की गुफा बताया। 
 
उनका कृतित्व
पुस्तकों का ढेर नहीं, 
जीवित अनुभूतियों का जंगल है, 
जहाँ हर पत्ता
एक प्रश्न है
और हर जड़
एक मौन उत्तर। 
 
ध्यान, प्रेम, स्वतंत्रता
उनके शब्द नहीं 
उनकी साँसों के
तीन स्थायी सुर थे। 
 
आज जब संसार
डिजिटल शोर का
बाज़ार बन गया है, 
ओशो की चुप्पी
और भी प्रासंगिक हो उठती है। 
 
आज जब आदमी
भीड़ में खोकर
ख़ुद को भूल बैठा है, 
उनका स्वर
भीतर से
पुकारता है
जागो। 
 
वर्तमान में
वे इसलिए ज़रूरी हैं, 
क्योंकि आदमी
अब भी मशीन
बनता जा रहा है
और मानव होना
सबसे कठिन साधना बन गई है। 
 
और भविष्य
भविष्य में
ओशो और भी अधिक
समय से बड़े होकर उभरेंगे, 
क्योंकि जब-जब
सभ्यता थकती है, 
तभी किसी मौन का
जन्म होता है। 
 
आने वाली पीढ़ियाँ
उनकी तस्वीर नहीं, 
उनकी दृष्टि पढ़ेंगी, 
उनका नाम नहीं, 
उनका अनुभव खोजेंगी। 
 
ग्यारह दिसंबर
कैलेंडर की तारीख़ नहीं, 
अंतरात्मा का पर्व है
जहाँ भीतर
एक मौन जन्म लेता है, 
और आदमी
फिर से आदमी बनता है। 
 
आज उनके जन्मदिन पर
कोई दीप नहीं जलता, 
कोई पुष्प नहीं चढ़ता, 
बस भीतर
एक प्रश्न
शांत होकर बैठ जाता है
 
मैं कौन हूँ? 
 
और यही प्रश्न
ओशो की सबसे
जीवित उपस्थिति है। 

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