मन का पौधा

01-05-2025

मन का पौधा

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

मैंने रोपा एक पौधा, 
मिट्टी को सहलाया प्यार से। 
देखा उसकी बढ़ती कोंपल, 
हर दिन एक नए आकार से। 
पानी दिया, धूप दिखाई, 
पूरी की उसकी हर ज़रूरत। 
सोचा था
फूलों से लदी हो शाखाएँ, 
मन में पाली थी सुंदर कल्पना। 
 
पर हाय! यह कैसा दुर्भाग्य, 
कैसा रहा मेरा प्रयास। 
मैंने रोपा एक पौधा बाहर, 
पर नहीं रोप पाया, 
किसी के हृदय में, 
प्रेम का एक बीज। 
पत्थर से ठंडे मन देखे, 
भावनाओं से रीते चेहरे। 
 
कैसे बोऊँ अनुराग की वर्षा, 
जहाँ बसती है बेरुख़ी गहरे? 
शायद मेरी ही मिट्टी में
कुछ कमी थी, 
या मेरे हाथों में नहीं थी
वह जादूगरी। 
बाहर तो फला है
एक हरा-भरा संसार, 
भीतर रह गई एक
अनबोई सी क्यारी। 
फिर भी, उम्मीद का धागा है बाक़ी, 
शायद कभी कोई ऋतु आए
शायद कोई बारिश
किसी उदास हृदय की
धरती नम हो, 
और अंकुरित हो जाए
एक प्रेम कहानी। 

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