मौन की वह पतली रेखा

01-12-2025

मौन की वह पतली रेखा

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 289, दिसंबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

तुम्हारा मौन
कभी एक धागे-सा लगता है, 
जिसके एक छोर पर
मेरी प्रतीक्षा बँधी है
और दूसरे छोर पर
तुम्हारी अनकही धड़कन। 
 
मैं पूछना चाहता हूँ
क्या यह मौन
स्वीकृति का कोमल स्पर्श है, 
या फिर
मेरी किसी अधूरी बात की छाया? 
 
कभी लगता है
तुम्हारी चुप्पी
मेरी ओर झुककर
धीमे से कहती है
“मैं सुन रही हूँ, 
बस शब्द नहीं चुन पा रही।” 
 
फिर कभी
उसी चुप्पी में
एक अनजाना फ़ासला
झिलमिलाने लगता है
जैसे तुमने
मेरे भीतर कुछ कम पा लिया हो। 
 
मौन कितना अजीब होता है
यह बाँध भी देता है, 
तोड़ भी देता है। 
यह सहमति भी बन जाता है, 
और अस्वीकार भी। 
 
मैं तुम्हें सुनता हूँ
तुम्हारी चुप्पी में
कभी भीतर तक उतरकर, 
कभी लौटकर अधूरा। 
 
कहो न
क्या तुम्हारा मौन
मेरे प्रति झुका हुआ क्षण है, 
या वह दीवार
जो तुमने अनचाहे खड़ी कर दी है? 
 
जब तक तुम नहीं कहती, 
मैं अपनी धड़कनों से पूछता रहूँगा
तुम्हारी चुप्पी
मुझे अपनाती है
या खो देती है। 
 
और इस पूरे अंतराल में
मैं केवल इतना चाहता हूँ
अगर शब्द नहीं मिलते तुम्हें, 
तो एक हल्की मुस्कान ही दे दो, 
ताकि इस मौन को
स्वीकार का उजाला मान सकूँ। 

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