डिजिटल युग में कविता की प्रासंगिकता और पाठक की भूमिका

01-06-2025

डिजिटल युग में कविता की प्रासंगिकता और पाठक की भूमिका

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 278, जून प्रथम, 2025 में प्रकाशित)


–एक समसामयिक विमर्श
 

वर्तमान समय को यदि हम “सूचना विस्फोट का युग” कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। तकनीकी क्रांति, इंटरनेट और सोशल मीडिया ने मानव जीवन के हर पहलू को प्रभावित किया है—संवाद, व्यवहार, संवेदना, विचार और अभिव्यक्ति के पारंपरिक रूपों को भी। ऐसे युग में, जहाँ सूचना का प्रवाह तीव्र है और सतहीपन का बोलबाला बढ़ रहा है, वहाँ यह सवाल गहराई से उठता है: क्या कविता जैसे गहन और आत्मीय साहित्यिक विधा की कोई प्रासंगिकता बची है? 

इस आलेख में हम कविता की बदलती भूमिका, उसकी वर्तमान स्थिति और सबसे महत्त्वपूर्ण—उस पाठक की भूमिका पर चर्चा करेंगे जो आज के डिजिटल युग में कविता के अस्तित्व को बनाए रखने का एक मौन लेकिन प्रभावशाली स्तंभ बन सकता है। 

कविता: केवल साहित्य नहीं, आत्मा की प्रतिध्वनि

कविता मानव मन की सबसे पुरानी और सबसे सघन अभिव्यक्ति है। जब भाषा भी पूर्णरूपेण विकसित नहीं हुई थी, तब भी मनुष्य लय, ध्वनि और प्रतीकों के माध्यम से अपनी अनुभूतियों को प्रकट करता था। ऋग्वेद से लेकर कबीर, तुलसी और निराला तक, कविता ने समय-समय पर समाज को दिशा दी है, प्रेम, विद्रोह, करुणा और संघर्ष की भावनाओं को उकेरा है। 

कविता केवल शब्दों का खेल नहीं, वह विचारों की दृष्टि, अनुभूति की तीव्रता और आत्मा की पुकार है। वह जीवन के गूढ़ प्रश्नों से संवाद करती है, मौन को मुखर बनाती है और स्थूल के भीतर सूक्ष्म को उद्घाटित करती है। 

पर प्रश्न यह है: क्या आज का तेज़ रफ़्तार डिजिटल युग कविता को आत्मसात कर पा रहा है? 

डिजिटल माध्यम और कविता की नई उड़ान

डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स—जैसे फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम, ब्लॉग्स, यूट्यूब, पॉडकास्ट, और ऑनलाइन पत्रिकाएँ—ने कविता को नये पाठक, नया मंच और नई पहचान दी है। पहले जहाँ कविता केवल सीमित पाठकों, पत्र-पत्रिकाओं या मंचों तक सीमित थी, वहीं अब एक युवा कवि की दो पंक्तियाँ भी लाखों लोगों तक पहुँचती हैं। 

यह लोकतंत्रीकरण है साहित्य का। 

अब कविता न केवल किताबों में, बल्कि स्क्रीन पर जीवित है। ऑडियो-विज़ुअल के माध्यम से कविता को और भी प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है—वृत्तचित्रों, वीडियो कविताओं और लाइव पाठों के रूप में। यह परिवर्तन कविता को ‘जन’ से जोड़ रहा है। 

लेकिन साथ ही, इस प्रवाह में एक नई चुनौती भी है साहित्यिक गुणवत्ता की गिरावट, गंभीरता का ह्रास और ‘वायरल होने’ की होड़। 

इस चुनौती से जूझने के लिए ज़रूरी है कि हम कविता की मूल आत्मा को समझें और उसे संरक्षित रखें। 

अब सवाल यह उठता है क्या कविता अप्रासंगिक हो रही है? 

कई साहित्यकारों की यह चिंता रही है कि आज की पीढ़ी गहराई में नहीं जाती। इंस्टेंट मेसेजिंग, रील्स, मीम्स, और 10-सेकंड की स्टोरीज़ की दुनिया में कौन कविता के सौंदर्य, प्रतीकों और लयात्मकता को समझेगा? यह आंशिक रूप से सत्य भी है। 

कविता पढ़ने के लिए ‘थोड़ा रुकना’ पड़ता है, ‘सोचना’ पड़ता है और ‘महसूस करना’ पड़ता है। और डिजिटल युग की यही कमी है—यह हमें सोचने का समय नहीं देता। 

लेकिन यहाँ ही पाठक की भूमिका उभरती है। यदि पाठक स्वयं ठहरना सीखें, समझने की चाह रखें और गहराई को खोजें, तो कविता उनके लिए दरवाज़ा खोलती है—एक गूँजता हुआ, जीवंत, भीतर की ओर लौटने वाला द्वार। 

पाठक की भूमिका: कविता का सच्चा सहचर

यदि कवि ‘रचनाकार’ है, तो पाठक ‘प्राणवायु’ है। कवि लिखता है, पर कविता तभी जीवित होती है जब पाठक उसे पढ़ता है, उसे भीतर उतारता है, उससे संवाद करता है। डिजिटल युग में पाठक केवल पाठक नहीं सह-निर्माता’ है। वह कविता को साझा करता है, टिप्पणी करता है, उस पर बहस करता है और कई बार कविता की यात्रा को आगे बढ़ाता है। 

इस युग में पाठक को दो भूमिकाएँ निभानी होंगी:

1. सजग चयनकर्ता—उसे यह समझना होगा कि वह किस प्रकार की कविता को महत्त्व देता है। क्या वह केवल तात्कालिक भावुकता और लोकप्रियता की कविता चुनता है या ऐसी रचनाओं को तरजीह देता है जो भावनाओं के पार जाकर चिंतन का द्वार खोलती हैं? 

2. सक्रिय सहभागी—उसे प्रतिक्रिया देने वाला, प्रश्न पूछने वाला और संवाद स्थापित करने वाला पाठक बनना होगा। एक विवेकी पाठक ही साहित्य को गहराई में ले जा सकता है। 

कविता की सामाजिक भूमिका और पाठक का उत्तरदायित्व

आज जब समाज में संवेदनशीलता का ह्रास, सामाजिक असमानता, पर्यावरणीय संकट, और राजनीतिक भ्रम की स्थिति है—तब कविता मात्र मनोरंजन नहीं, एक नैतिक हस्तक्षेप बन सकती है। 

परिवर्तन का बीज कविता में छिपा होता है। 

और उस बीज को अंकुरित करने वाला पाठक होता है। 

एक संवेदनशील पाठक कविता के माध्यम से समाज की विसंगतियों को देखता है, प्रश्न उठाता है और परिवर्तन की चेतना से जुड़ता है। कविता अगर केवल सुन्दरता तक सीमित रहेगी, तो उसका उद्देश्य अधूरा रह जाएगा। जब वह सवाल पूछती है, जब वह झकझोरती है, तब ही उसका सच्चा मूल्य सामने आता है। 

कविता और नई पीढ़ी

नयी पीढ़ी की ऊर्जा, उत्सुकता और तकनीकी निपुणता इस युग की विशेषता है। यदि इन्हें कविता की ओर प्रेरित किया जाए, तो न केवल साहित्य समृद्ध होगा, बल्कि समाज भी अधिक मानवीय बनेगा। 

शिक्षण संस्थानों, पुस्तक मेलों, डिजिटल वाचनालयों और सोशल मीडिया अभियानों के माध्यम से यदि युवाओं को कविता पढ़ने और समझने के लिए प्रेरित किया जाए, तो वे न केवल अच्छे पाठक, बल्कि बेहतर नागरिक भी बन सकते हैं। 

यह कार्य शिक्षकों, अभिभावकों और समाज के बुद्धिजीवियों का हैएक संवेदनशील पाठक को गढ़ने का कार्य। 

कविता जीवित है, जब पाठक सजग है

डिजिटल युग में कविता की प्रासंगिकता केवल इस बात पर निर्भर नहीं करती कि कवि क्या लिख रहा है, बल्कि इस पर भी निर्भर करती है कि पाठक क्या पढ़ना चाहता है और कैसे पढ़ता है। कविता आज भी भावों को स्पर्श करती है, वह आज भी मौन को वाणी देती है, वह आज भी परिवर्तन की दस्तक देती है—बस ज़रूरत है उसे सही दृष्टि से देखने की। 

पाठक यदि संवेदनशील, विवेकी और जिज्ञासु बना रहे, तो कविता न केवल प्रासंगिक रहेगी, बल्कि और भी अधिक प्रभावशाली, जीवंत और जन-मन को स्पर्श करने वाली बनेगी। 

अंततः, कविता का भविष्य डिजिटल उपकरणों में नहीं, पाठक के हृदय में सुरक्षित है। 

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