गोविन्द गीत— 006 षष्टम अध्याय

15-04-2022

गोविन्द गीत— 006 षष्टम अध्याय

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 203, अप्रैल द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

श्री भगवानुवाच
 
संन्यासी योगी करें, कर्म सदा निष्काम
अग्नि क्रियाएँ त्यागना, नहीं योग का काम।1
  
मन इंद्रिय तन एक हों, यहीं योग संन्यास। 
संकल्पों का त्यागना, सही सहयोग विन्यास।2
  
मननशील नर कर्म से, होता योगरूढ़। 
कर्म करें निष्काम वह, मिले ज्ञान अति गूढ़। 3
  
 
भोग विषय से दूर जो, नहीं कर्म आसक्त। 
संकल्पों को त्याग कर, योगी बने विरक्त।4
  
स्वयं मित्र शत्रु स्वयं, स्वयं करें उद्धार। 
अधोगति से दूर वह, पार करे संसार।5
  
मन शरीर इंद्रिय विजित, वही स्वयं का मित्र। 
विषय भोग में रत रहे, बैरी बने चरित्र।6
  
सुख दुःख शीत गरम सब, सहे मान अपमान। 
शांत शुद्ध अंतःकरण, ब्रह्म ज्ञान आधान।7
  
मिट्टी पत्थर स्वर्ण सम, जिसके दूर विकार। 
विज्ञ ज्ञान विज्ञान में, परम ब्रह्म आधार।8
  
पाप पुण्य बैरी स्वजन, सबसे हो समभाव। 
पुरुष वही है श्रेष्ठ जो, रखता नहीं दुराव।9
  
तन मन इंद्रिय जीतकर, तज संग्रह का लोभ। 
आत्मज्ञान परमात्म में, तजे सभी विक्षोभ।10
  
शुद्ध भूमि का चयन कर, बिछा कुशा मृग छाल। 
फिर आसन जो साधता, उठकर प्रातः काल।11
  
फिर आसन पर बैठकर, चित्त इंद्रियाँ न्यास। 
अंतःकरण शुद्धि लिए, करे योग अभ्यास।12
  
तन मस्तक ग्रीवा अचल, थिर हो सारे अंग। 
दृष्टिगता हो नासिका, ध्यान रहे न भंग।13
 
 
ब्रह्मचर्य व्रत मन लिए, अंतःकरण विश्रांत। 
चित्त सदा मुझ में रमें, योगी मन हो शांत। 4
 
आत्म सदा मुझ में रमा, मन में रखता धीर। 
परम शान्ति पाता सदा, योगी ब्रह्म प्रवीर।15
  
न्यून अधिक भोजन करे, या जागे दिन रैन। 
योग सिद्ध उसका नहीं, जो सोवे सुख चैन।16
  
यथा योग्य आहार हो, यथा योग्य हों कर्म। 
यथा योग्य आचार हों, सिद्ध योग के धर्म।17
  
चित्त सदा बस में रहे, ब्रह्म सदा हो आत्म। 
आसक्ति से दूर ह्रुदय, योगी हो परमात्म।18
 
वायु रहित व्यवहार में, दीपक अगति अनूप। 
परम योग्य सानिध्य में, चित्त परम का रूप।19
  
नित्य योग अभ्यास से, होता चित्त निरुद्ध। 
परम ब्रह्म सानिध्य में, अपरा होती शुद्ध।20
  
बुद्धि इंद्रियों से परे, देती परमानंद
चित्त नहीं विचलित रहे, मिलता ब्रह्मानंद।21
 
ब्रह्म प्राप्ति का पथ सदा, कठिन गहन गंभीर। 
कितने कंटक शूल हों, योगी धरता धीर।22
 
दुःख रूप संसार से, नहीं रखे संयोग। 
उत्साही मन चित्त से। योगी करता योग। 23
  
कर्म क्रिया संकल्प का, मन से करके त्याग
मन इंद्रिय बुद्धि विरत, करता योग विभाग।24
 
कर क्रम से अभ्यास को, उपरति करता प्राप्त। 
ब्रह्म आत्म एकात्म कर, पाता ब्रह्म अप्राप्त।25
  
चंचल मन भटका करे, विषय भोग के संग। 
कर विरुद्ध मन विषय से, रंगे ब्रह्म के रंग।26
 
पाप रहित मन शांत हो, रज गुण का हो अंत। 
परम ब्रह्म सानिध्य में, योगी बने सुमंत।27
  
पाप रहित योगी सदा, भजता ब्रह्मानंद। 
शांत धैर्य उत्साह से सुख भोगे सानंद।28
 
है अनंत यह चेतना, सर्व व्याप्त परमात्म। 
आत्मा भूतों के सहित, भूत व्याप्त हैं आत्म।29
 
वासुदेव मैं ब्रह्म हूँ, सब भूतों का नाथ। 
जो मुझ में यह देखता, होता नहीं अनाथ।30
 
एकीकृत के भाव से, जो मुझसे सम्बद्ध। 
वह योगी सुख भोगता, बनकर ब्रह्म प्रबुद्ध।31
 
सब भूतों को जो पुरुष, देता है समभाव
वही परम योगी बने रखे, श्रेष्ठ सद्भाव।32
  
अर्जुन उवाच
 
हे मधुसूदन आपने, कहीं योग की बात
मन चंचल कैसे करें, नित्य आत्मा में सात।33
  
प्रमथन दृढ़ बलवान मन चंचल चलित अघोर
बस में यह आता नहीं, वायुवेग घनघोर। 34
  
श्री भगवानुवाच
 
हे अर्जुन यह सत्य है, मन है कठिन कराल। 
भगवत चिंतन मनन से, बस में मन भूपाल।35
 
जिसका मन वश में नहीं, उसे योग्य दुष्प्राप्य। 
जो मन को है साधता, उसे ब्रह्म संप्राप्य।36
  
अर्जुन उवाच
 
करें योग पर अंत में, विचलित संयम धीर
भगवत कृपा न प्राप्त कर, किस गति चले अधीर।37
  
मोहित आश्रय हीन नर, प्रभु के पथ से भ्रष्ट। 
छिन्न-भिन्न बादल सदिश, क्या होता वह नष्ट।38
 
आप बिना दूजा नहीं, संशय मेटन हार। 
संशय का छेदन करो, जग के पालनहार।39
  
श्री भगवानुवाच
 
सुनो पार्थ उस पुरुष का, सधे लोक परलोक
ब्रह्म प्राप्ति के कर्म से, जाता है वह गोलोक।40
  
योग भ्रष्ट यदि हो पुरुष, तो भी पाता स्वर्ग। 
पुण्य जन्म पाता सदा, अधिकारी अपवर्ग।41
  
स्वर्ग यदि नहीं मिल सका, पाता उत्तम धर्म
योगी कुल में जन्म ले, करता है सत्कर्म।42
 
कर्म फलें प्रारब्ध के, उत्तम हों आचार। 
ब्रह्म प्राप्ति पथ वह चले, श्रेष्ठ आचरण धार।43
 
उत्तम कुल में जन्म ले, रहे धर्म अधीन। 
पूर्व जन्म प्रारब्ध से उच्च बुद्धि आसीन।44
  
यत्न पूर्वक योग कर, करे ब्रह्म अभ्यास। 
पूर्व जन्म संस्कार से मिले, ब्रह्म सायास।45
  
शास्त्र ज्ञान से बड़ा है, योगी सबसे श्रेष्ठ। 
पृथा पुत्र योगी बनो, योग ब्रह्म में नेष्ठ।46
  
श्रद्धा से भजता मुझे, चिंतन रखता आत्म। 
परम श्रेष्ठ योगी वही, मुझको प्रिय जीवात्म।47
  
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनित्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे 
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ध्यानयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः॥

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

काव्य नाटक
कविता
गीत-नवगीत
दोहे
लघुकथा
कविता - हाइकु
नाटक
कविता-मुक्तक
वृत्तांत
हाइबुन
पुस्तक समीक्षा
चिन्तन
कविता - क्षणिका
हास्य-व्यंग्य कविता
गीतिका
सामाजिक आलेख
बाल साहित्य कविता
अनूदित कविता
साहित्यिक आलेख
किशोर साहित्य कविता
कहानी
एकांकी
स्मृति लेख
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
ग़ज़ल
बाल साहित्य लघुकथा
व्यक्ति चित्र
सिनेमा और साहित्य
किशोर साहित्य नाटक
ललित निबन्ध
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में