रिश्तों की गर्माहट

15-08-2025

रिश्तों की गर्माहट

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 282, अगस्त प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

सर्दी की ढलती शाम थी। सूरज डूब चुका था, और नर्मदा के किनारे बसे छोटे से शहर गाडरवारा में ठंडी हवाएँ चल रही थीं. अस्सी बरस की रामकली दादी अपनी पुरानी लकड़ी की कुर्सी पर बैठी थीं, हाथों में वही फटी-पुरानी, पर बेहद नरम शॉल थी, जिसे वो सालों से ओढ़ती आ रही थीं। शॉल में जगह-जगह छेद हो गए थे, रंग भी उतर चुका था, पर दादी उसे छोड़ना नहीं चाहती थीं।

उनकी पोती, अंजलि, जो शहर में पढ़ती थी और अब छुट्टियों में घर आई थी, पास आकर बैठी। 

“दादी, ये शॉल अब कितनी पुरानी हो गई है।कितनी बार कहा, नई खरीद देते हैं आपको।”

दादी मुस्कुराईं, उनकी झुर्रियों भरे चेहरे पर एक अजीब सी चमक थी, "अरी पगली, ये शॉल नहीं, रिश्तों की गर्माहट है मेरी। इसे कैसे छोड़ दूँ?"

अंजलि ने उत्सुकता से पूछा, “रिश्तों की गर्माहट? मतलब?”

दादी ने शॉल को और कसकर लपेट लिया, जैसे वो कोई जीवित प्राणी हो, “ये शॉल तेरे दादाजी ने मुझे शादी के पहले तोहफ़े में दी थी। उन दिनों हमारे पास ज़्यादा कुछ नहीं होता था। उन्होंने अपनी पहली कमाई से इसे ख़रीदा था, ताकि मुझे सर्दी न लगे।” दादी की आवाज़ में हल्की-सी कम्पन थी, ”जब मैं पहली बार इस घर में आई, तो सब कुछ नया था, पर ये शॉल जानी-पहचानी लगी। इसमें उनकी महक थी, उनका प्यार था।”

अंजलि ने देखा, दादी की आँखों में नमी तैर रही थी। 

“फिर जब तेरा बाबू (अंजलि के पिता) छोटा था,“दादी ने कहानी आगे बढ़ाई, “उसे ठंड बहुत लगती थी। रात को वो रोता था, तो मैं उसे इसी शॉल में लपेटकर सुलाती थी। इसकी गर्माहट से उसे नींद आ जाती थी। इसमें उसकी किलकारियाँ क़ैद हैं, अंजलि।”

अंजलि ने शॉल को छुआ। अब उसे वो पुरानी, फटी शॉल नहीं, बल्कि यादों का एक पुलिंदा लग रही थी। 

“और फिर तू आई,” दादी ने अंजलि के सिर पर हाथ फेरा, “छोटी सी गुड़िया। जब तू नन्ही थी, तो तुझे भी इसी शॉल में लपेटकर सुलाया था मैंने। तेरी माँ कहती थी, ‘अम्माजी, नई लोई ले लो,’ पर मैं कहती, ‘इसकी गर्माहट में कुछ और ही बात है।’ इस शॉल ने मुझे माँ बनने का अहसास कराया, दादी होने का सुख दिया।”

दादी की कहानी सुनकर अंजलि की आँखों में भी आँसू आ गए। उसने महसूस किया कि यह शॉल सिर्फ़ ऊन और धागों से नहीं बनी थी, बल्कि उसमें प्यार के धागे बुने थे दादाजी का प्यार, पिता का बचपन, और उसका अपना बचपन। 

“और अब?” अंजलि ने पूछा, “अब ये किसकी याद है?” 

दादी फिर मुस्कुरायी, इस बार थोड़ी शरारत भरी मुस्कान थी। 

“अब ये तेरी याद है, बिटिया। जब तू दूर शहर में पढ़ने गई, तो तेरी याद बहुत आती थी। रात को ठंड लगती, तो इसे ओढ़ लेती। लगता जैसे तूने ही मुझे गले लगा रखा है। इसमें तेरे बड़े होने की ख़ुशी है, तेरे सपनों की गर्माहट है।”

अंजलि ने उठकर दादी को कसकर गले लगा लिया। उस पल उसे समझ आया कि असली रिश्ते कपड़ों की तरह पुराने नहीं होते, वे शॉल की गर्माहट की तरह होते हैं–जितने पुराने, उतने ही आरामदायक और गहरे। उन्होंने वो शॉल कभी नहीं बदली, क्योंकि वो केवल एक कपड़ा नहीं, बल्कि तीन पीढ़ियों के प्यार, त्याग और अनमोल यादों का जीवित प्रमाण थी। 

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