मैं अब भी वही हूँ . . . 

01-06-2025

मैं अब भी वही हूँ . . . 

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 278, जून प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

(अतुकान्त प्रेम कविता) 


तुमने
धीरे-धीरे कम कर दिया
अपने शब्दों में मेरा नाम लेना, 
तुम्हारी आँखों ने
कई बार मेरी उपस्थिति को अनदेखा किया
जैसे मैं
सिर्फ़ एक आदत था
जिसे समय के साथ छोड़ देना था। 
 
मैं
हर बार
तुम्हारे मौन में
अपने नाम की आहट ढूँढ़ता रहा, 
तुम्हारे बेरुख़े संदेशों में
कोई छुपा हुआ अपनापन तलाशता रहा। 
 
तुम्हारी ख़ामोशी
अब मेरी आदत बन गई है। 
तुम्हारी बेरुख़ी
जैसे मेरी सुबह की पहली चाय 
कड़वी, पर छोड़ नहीं सकता। 
  
तुम्हारे शब्द
अब नहीं गिरते मेरी पलकों पर ओस की तरह, 
बस सूखी हवाओं की तरह
गुज़र जाते हैं
छूए बिना। 
 
तुम रूठी नहीं 
बस धीरे-धीरे दूर हो गई, 
बिना किसी शिकायत के
बिना विदाई के, 
जैसे मेरी जगह
कभी थी ही नहीं
तुम्हारे दिनचर्या में। 
 
मैं अब भी
तुम्हारे संदेश पढ़ता हूँ
जैसे कोई भूला हुआ धर्मग्रंथ 
जिसमें ईश्वर नहीं, 
केवल मेरी आस्था बची है। 
 
तुम्हारी तस्वीरें
अब पुरानी नहीं होतीं, 
हर बार
मैं तुम्हें वैसा ही देखता हूँ
जैसे पहली बार देखा था 
एक कविता की तरह
जिसे कभी पूरा नहीं कर सका। 
 
तुम्हारे दूर चले जाने के बाद
मैंने समय से कहना छोड़ दिया
कि वह बदल जाए। 
अब हर दिन
एक इंतज़ार बनकर रहता है
हर रात
तुम्हारी परछाईं से बात करती है। 
 
मैं जानता हूँ, 
तुम अब किसी और खिड़की से
किसी और को देखती हो, 
पर मेरी खिड़की पर
अब भी तुम्हारी आवाज़ की आदत है। 
 
फिर भी
मैं वही हूँ 
जो तुम्हारे दुखों के साए में
अब भी खड़ा हूँ
एक पेड़ की तरह
जिसके नीचे तुम कभी सिसकती थी, 
अब भी चाहता हूँ
तुम्हारे आँसुओं को
अपनी हथेली से समेट लेना, 
चाहता हूँ
तुम्हारी थकी साँसों में
अपनी साँस घोल देना। 
 
तुम कहो या न कहो, 
तुम्हारा दुःख
अब भी मेरे बग़ल में बैठा रहता है, 
तुम्हारी थकावट
मेरे कंधे पर सिर रखकर
अब भी सो जाना चाहती है। 
 
तुम्हें याद हो या न हो, 
कभी तुमने कहा था 
“तुम मुझे समझते हो।” 
आज भी
मैं वही समझ
अपने भीतर उठाए फिरता हूँ
जैसे एक जादुई मंत्र
जो अब निष्क्रिय हो चुका है। 
 
तुमने भले ही
मुझे भुला दिया हो
मैं तुम्हें छोड़ नहीं सका, 
तुम्हारे ग़ुस्से, चुप्पी, बेपरवाही
सब मुझे चुभते हैं
पर मैं बरदाश्त करता हूँ
क्योंकि . . . 
मैं प्रेम करता हूँ। 
 
तुम चुप हो, 
शायद नफ़रत भी नहीं
सिर्फ़ विरक्ति है
या जीवन की कोई और सच्चाई। 
मैं उसे भी स्वीकार कर चुका हूँ
जैसे कोई प्रेमी
प्रेमिका की शादी की चिट्ठी पढ़कर
मुस्कुराना सीख लेता है। 
 
मैं अब भी वही हूँ
जो तुम्हारे लौट आने की उम्मीद नहीं करता
बस चाहता है
कि तुम जहाँ भी रहो
दुखों में अकेली न रहो। 
अगर कभी
जीवन तुम्हें थकाए
तो याद रखो 
किसी कोने में
एक प्रेम
अब भी तुम्हारे लिए रोशनी लेकर बैठा है। 
 
और प्रेम
माँगता नहीं 
बस देता है, 
तुम्हें, हर बार, 
बिना शर्त, 
बिना जवाब के। 
 
वह प्रेम
जो प्रश्न नहीं करता, 
जो उत्तर नहीं माँगता, 
जो बस . . . 
तुम्हारे होने से जीता है। 

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