पाँच लघु कथाएँ
डॉ. सुशील कुमार शर्मा
(पर्यावरणीय नैतिकता और आपदाओं पर आधारित)
1. अंतिम बीज
एक था गाँव जहाँ कभी हरियाली अपने चरम पर थी। नदियाँ कलकल करती बहती थीं, पेड़ फलों से लदे रहते थे। पर धीरे-धीरे लालच हावी होता गया। मनुष्यों ने अधिक फ़सल, अधिक धन के लिए जंगलों को काटना शुरू किया, नदियों को प्रदूषित किया। विकास की अंधी दौड़ में, पर्यावरणीय नैतिकता को ताक पर रख दिया गया।
एक दिन, प्रकृति ने अपना रौद्र रूप दिखाया। लगातार सूखा पड़ा, धरती फटने लगी, और जो फ़सलें बची थीं, वे भी ज़हरीली हो गईं। लोग भुखमरी और बीमारी से मरने लगे। हर कोई बस एक ही चीज़ ढूँढ़ रहा था पानी, और शुद्ध भोजन।
गाँव के एक कोने में, एक वृद्ध महिला, बूढ़ी ‘माई’ थी, ने अपने घर के पिछवाड़े में एक छोटा सा बग़ीचा सँजो रखा था। उसने वर्षों से विभिन्न प्रकार के बीजों को सहेज कर रखा था, यह जानते हुए कि एक दिन उनकी आवश्यकता पड़ सकती है। जब सब कुछ नष्ट हो गया, बूढ़ी माई ने अपने पोते को बुलाया।
“देखो, बेटा,” उसने कहा, “ये हमारे अंतिम बीज हैं। इन्हें ऐसी जगह बोना जहाँ कोई इन्हें छू न सके, और जब वर्षा हो, तो इन्हें जीवन देना।”
बूढ़ी माई ने उसे समझाया कि कैसे प्रकृति से लेना ही नहीं, उसे देना भी पड़ता है। कैसे हर पेड़, हर नदी का सम्मान करना चाहिए।
जब पहली बूँद गिरी, तो बच्चे ने माई की बात याद की। उसने सबसे ऊँची पहाड़ी पर जाकर वे बीज बो दिए। अगली सुबह, जब सूरज निकला, तो उस पहाड़ी पर एक छोटा सा हरा अंकुर फूट रहा था। वह गाँव के लिए आशा की एक नई किरण थी। लोगों ने समझा कि प्रकृति का सम्मान ही उनके अस्तित्व का एकमात्र रास्ता है। धीरे-धीरे, उस एक अंकुर से प्रेरणा लेकर, लोगों ने फिर से धरती को हरा-भरा करना शुरू किया, और इस बार, वे प्रकृति के प्रति अधिक सचेत और नैतिक थे।
2. मौन पहाड़ का बदला
ऊँचे-ऊँचे हिमखंडों से घिरा एक छोटा शहर था। पहाड़ों की गोद में बसे इस शहर में पर्यटन फल-फूल रहा था। लेकिन पर्यटकों और स्थानीय लोगों की बढ़ती संख्या के कारण, पहाड़ पर कचरा और प्रदूषण बढ़ने लगा। होटल और रिसॉर्ट्स के लिए पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हुई, जिससे मिट्टी का कटाव बढ़ गया। पर्यावरणीय नियमों को लगातार अनदेखा किया जा रहा था।
शहर के लोग अक्सर मौन पहाड़ की प्रशंसा करते थे, लेकिन उसके दर्द को कभी नहीं समझते थे। एक दिन, लगातार बारिश हुई, और पहाड़, जो अब कमज़ोर हो चुका था, काँप उठा। एक विशाल भूस्खलन हुआ, जिसने पूरे शहर को अपनी चपेट में ले लिया। मकान ढह गए, सड़कें टूट गईं, और कई जानें चली गईं।
जो लोग बच गए, उन्होंने देखा कि यह आपदा मानव निर्मित थी। उन्होंने पहाड़ की चेतावनी को नज़रअंदाज़ किया था। मलबे के बीच से, एक बुज़ुर्ग साधु निकले, जिन्होंने हमेशा प्रकृति के संरक्षण की वकालत की थी। उन्होंने कहा, “पहाड़ मौन रहता है, पर उसका धैर्य असीमित नहीं। जब उसका धैर्य टूटता है, तो वह अपने क्रोध का प्रदर्शन करता है।”
यह आपदा उनके लिए एक कड़वा सबक़ थी। शहर के लोगों ने सामूहिक रूप से निर्णय लिया कि वे अब प्रकृति का सम्मान करेंगे। उन्होंने पुनर्निर्माण के साथ-साथ वृक्षारोपण अभियान शुरू किया, कचरा प्रबंधन पर ध्यान दिया और स्थायी पर्यटन को बढ़ावा दिया। उन्होंने जाना कि पहाड़ का बदला वास्तव में उनकी अपनी अनदेखी का परिणाम था।
3. अंतिम साँस का शहर
एक औद्योगिक शहर था, जहाँ हवा हमेशा धुएँ और रसायनों से भरी रहती थी। फ़ैक्ट्रियाँ चौबीसों घंटे चलती थीं, और उनके चिमनियों से निकलने वाला ज़हर पूरे शहर पर एक काली चादर की तरह छाया रहता था। यहाँ के लोग अक्सर खाँसते रहते थे और फेफड़ों की बीमारियों से पीड़ित थे। पर्यावरणीय मानकों को हमेशा लाभ के लिए दरकिनार किया जाता था।
एक दिन, एक भयानक रासायनिक रिसाव हुआ। हवा में इतना ज़हर घुल गया कि साँस लेना असंभव हो गया। लोग सड़कों पर गिरते गए, उनकी साँसें थमने लगीं। यह एक ऐसी आपदा थी जिसकी कल्पना भी नहीं की गई थी, लेकिन जिसकी सम्भावना हमेशा मौजूद थी।
बचे हुए कुछ लोग शहर से भाग गए, लेकिन उनके मन में एक गहरी टीस थी। उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने अपने लालच में अपने ही घर को ज़हर से भर दिया था। कुछ साल बाद, वह शहर एक भूतिया शहर बन गया। जहाँ कभी फ़ैक्ट्रियों का शोर था, वहाँ अब बस सन्नाटा पसरा था, और हवा में अब भी रसायन की गंध तैर रही थी।
एक युवा वैज्ञानिक, जिसकी दादी त्रासदी में मर गई थी, ने इस शहर को फिर से जीवन देने का संकल्प लिया। उसने अपने शोध से यह साबित किया कि कैसे औद्योगिक नैतिकता का अभाव पूरे समुदाय को नष्ट कर सकता है। उसने उस शहर को एक ‘पर्यावरण शिक्षा केंद्र’ में बदलने का प्रयास किया, जहाँ लोग उन ग़लतियों से सीख सकें जो उस गाँव ने की थीं। यह शहर अब एक जीवित स्मारक था-उस पर्यावरणीय नैतिकता का, जिसे कभी भुला दिया गया था।
4. जल देवता का क्रोध
एक गाँव एक बड़ी और पवित्र नदी के किनारे बसा था। गाँव के लोग नदी को ‘जल देवता’ मानते थे और उसका सम्मान करते थे। लेकिन जैसे-जैसे गाँव बड़ा होता गया, लोगों ने नदी में कूड़ा फेंकना शुरू कर दिया, उद्योगों ने अपने रसायन इसमें बहा दिए। नदी का पानी काला और दुर्गंधयुक्त हो गया। पुरोहितों ने चेतावनी दी कि जल देवता क्रोधित हो रहे हैं, पर किसी ने उनकी बात नहीं मानी।
एक रात, आसमान में काले बादल छा गए और मूसलाधार बारिश हुई। नदी, जो अब प्रदूषित मलबे से भरी थी, उफन पड़ी। बाढ़ आ गई, जिसने पूरे गाँव को जलमग्न कर दिया। घर बह गए, खेत नष्ट हो गए, और कई जानें चली गईं। यह एक ऐसी आपदा थी जो सीधे तौर पर पर्यावरणीय अनाचार का परिणाम थी।
बाढ़ के बाद, गाँव के बचे हुए लोग नदी के किनारे एकत्र हुए। उन्होंने देखा कि उनकी नदी, जो कभी जीवनदायिनी थी, अब एक विनाशकारी शक्ति बन गई थी। एक बुज़ुर्ग महिला, जिसने अपने पूरे परिवार को खो दिया था, ने कहा, “हमने जल देवता का अपमान किया। हमने उसे प्रदूषित किया, और अब उसने हमें शुद्ध करने के लिए अपनी शक्ति दिखाई है।”
इस त्रासदी ने गाँव वालों को एक बड़ा सबक़ सिखाया। उन्होंने शपथ ली कि वे नदी को फिर से शुद्ध करेंगे। उन्होंने स्वच्छता अभियान चलाए, उद्योगों को प्रदूषित पानी छोड़ने से रोका, और नदी के किनारे पेड़ लगाए। धीरे-धीरे, नदी का पानी फिर से साफ़ होने लगा, और गाँव वालों ने फिर से जल देवता का सम्मान करना शुरू किया। वे समझ गए कि प्रकृति का सम्मान ही उनके सुख और सुरक्षा का आधार है।
5. प्लास्टिक का जंगल
एक तटीय क़स्बा था, जहाँ के लोग मछली पकड़कर और पर्यटन से अपना जीवनयापन करते थे। समुद्र उनके लिए सब कुछ था। लेकिन समय के साथ, प्लास्टिक का उपयोग बेतहाशा बढ़ गया, और लोग प्लास्टिक कचरा सीधे समुद्र में फेंकने लगे। मछुआरे भी अपने पुराने जाल और प्लास्टिक की बोतलें समुद्र में छोड़ देते थे। उन्हें लगता था कि समुद्र इतना विशाल है कि सब कुछ समा जाएगा। पर्यावरणीय चेतना की कमी ने उन्हें लापरवाह बना दिया था।
कुछ सालों में, समुद्र में प्लास्टिक के बड़े-बड़े द्वीप बनने लगे। मछलियाँ और समुद्री जीव प्लास्टिक खाने लगे, जिससे उनकी मौत होने लगी। एक दिन, एक भयंकर तूफ़ान आया। लेकिन इस बार, तूफ़ान ने केवल पानी ही नहीं, बल्कि प्लास्टिक के ढेर भी शहर में फेंक दिए। समुद्र तट एक प्लास्टिक के जंगल में बदल गया। शहर की सुंदरता नष्ट हो गई, और पर्यटक आने बंद हो गए। मछुआरों को अब कोई मछली नहीं मिलती थी।
शहर के मेयर ने एक आपात बैठक बुलाई। उन्होंने कहा, “यह आपदा तूफ़ान से नहीं आई है, बल्कि हमारी अपनी लापरवाही से आई है। हमने समुद्र को कचरे का डिब्बा समझा, और अब समुद्र ने हमें वही वापस कर दिया है।”
शहर के लोगों ने मिलकर एक विशाल सफ़ाई अभियान शुरू किया। उन्होंने समुद्र से प्लास्टिक निकालने का संकल्प लिया और प्लास्टिक के उपयोग को कम करने के लिए सख़्त नियम बनाए। उन्होंने बच्चों को पर्यावरण शिक्षा देना शुरू किया, ताकि भविष्य में ऐसी ग़लती न हो। धीरे-धीरे, वह क़स्बा फिर से साफ़ होने लगा, और लोगों ने सीखा कि समुद्र का सम्मान करना ही उनकी समृद्धि का आधार है। उन्होंने समझा कि प्रकृति को जो दिया जाता है, वही लौटकर आता है।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- सामाजिक आलेख
-
- अध्यात्म और विज्ञान के अंतरंग सम्बन्ध
- अबला निर्मला सबला
- आप अभिमानी हैं या स्वाभिमानी ख़ुद को परखिये
- करवा चौथ बनाम सुखी गृहस्थी
- गाँधी के सपनों से कितना दूर कितना पास भारत
- गाय की दुर्दशा: एक सामूहिक अपराध की चुप्पी
- गौरैया तुम लौट आओ
- जीवन संघर्षों में खिलता अंतर्मन
- नकारात्मक विचारों को अस्वीकृत करें
- नब्बे प्रतिशत बनाम पचास प्रतिशत
- नव वर्ष की चुनौतियाँ एवम् साहित्य के दायित्व
- पर्यावरणीय चिंतन
- बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर: समता, न्याय और नवजागरण के प्रतीक
- भारतीय जीवन मूल्य
- भारतीय संस्कृति में मूल्यों का ह्रास क्यों
- माँ नर्मदा की करुण पुकार
- मानव मन का सर्वश्रेष्ठ उल्लास है होली
- मानवीय संवेदनाएँ वर्तमान सन्दर्भ में
- वाह रे पर्यावरण दिवस!
- विश्व पर्यावरण दिवस – वर्तमान स्थितियाँ और हम
- वेदों में नारी की भूमिका
- वेलेंटाइन-डे और भारतीय संदर्भ
- व्यक्तित्व व आत्मविश्वास
- शिक्षक पेशा नहीं मिशन है
- संकट की घड़ी में हमारे कर्तव्य
- सम्बन्धों का क्षरण: एक सामाजिक विमर्श
- हैलो मैं कोरोना बोल रहा हूँ
- कविता
-
- अधूरा सा
- अधूरी लिपि में लिखा प्रेम
- अनुत्तरित प्रश्न
- आकाशगंगा
- आस-किरण
- उड़ गयी गौरैया
- एक पेड़ का अंतिम वचन
- एक स्कूल
- एक स्त्री का नग्न होना
- ओ पारिजात
- ओमीक्रान
- ओशो ने कहा
- और बकस्वाहा बिक गया
- कबीर छंद – 001
- कभी तो मिलोगे
- कविता तुम कहाँ हो
- कविताएँ संस्कृतियों के आईने हैं
- कहने को अपने
- काल डमरू
- काश तुम समझ सको
- क्रिकेट बस क्रिकेट है जीवन नहीं
- गाँधी धीरे धीरे मर रहे हैं
- गाँधी मरा नहीं करते हैं
- गाँधीजी और लाल बहादुर
- गाडरवारा गौरव गान
- गोवर्धन
- चरित्रहीन
- चलो उठो बढ़ो
- चिर-प्रणय
- चुप क्यों हो
- छूट गए सब
- जब प्रेम उपजता है
- जय राम वीर
- जहाँ रहना हमें अनमोल
- जैसे
- ठण्ड
- तुम और मैं
- तुम जो हो
- तुमसे मिलकर
- तुम्हारी रूह में बसा हूँ मैं
- तुम्हारे जाने के बाद
- तुम—मेरी सबसे अनकही कविता
- तेरा घर या मेरा घर
- देखो होली आई
- नए वर्ष में
- नारी का प्यार
- पत्ते से बिछे लोग
- पीले अमलतास के नीचे— तुम्हारे लिए
- पुण्य सलिला माँ नर्मदे
- पुरुष का रोना निषिद्ध है
- पृथ्वी की अस्मिता
- प्रणम्य काशी
- प्रभु प्रार्थना
- प्रिय तुम आना हम खेलेंगे होली
- प्रेम का प्रतिदान कर दो
- प्रेम में पूर्णिमा नहीं होती
- फागुन अब मुझे नहीं रिझाता है
- बस तू ही तू
- बसंत बहार
- बहुत कुछ सीखना है
- बोलती कविता
- बोलती कविता
- ब्राह्मण कौन है
- ब्राह्मणत्व की ज्योति
- बड़ा कठिन है आशुतोष सा हो जाना
- भीम शिला
- मत टूटना तुम
- मन का पौधा
- मिट्टी का घड़ा
- मुझे कुछ कहना है
- मुझे लिखना ही होगा
- मृगतृष्णा
- मेरा मध्यप्रदेश
- मेरी चाहत
- मेरी बिटिया
- मेरी भूमिका
- मेरे भैया
- मेरे लिए एक कविता
- मैं अब भी प्रतीक्षा में हूँ
- मैं अब भी वही हूँ . . .
- मैं तुम ही तो हूँ
- मैं तुम्हें प्यार करता हूँ
- मैं पर्यावरण बोल रहा हूँ . . .
- मैं मिलूँगा तुम्हें
- मैं लड़ूँगा
- मैं वो नहीं
- मौन तुम्हारा
- यज्ञ
- ये चाँद
- रक्तदान
- रक्षा बंधन
- रिश्ते
- वर्षा ऋतु
- वर्षा
- वसंत के हस्ताक्षर
- वो तेरी गली
- शक्कर के दाने
- शब्दों को कुछ कहने दो
- शिव आपको प्रणाम है
- शिव संकल्प
- शुभ्र चाँदनी सी लगती हो
- संघर्ष का सूर्योदय
- सखि बसंत में तो आ जाते
- सत्य के नज़दीक
- सिंदूर का प्रतिशोध
- सीता का संत्रास
- सुनलो ओ रामा
- सुनो प्रह्लाद
- स्वप्न से तुम
- हर बार लिखूँगा
- हे केदारनाथ
- हे छट मैया
- हे क़लमकार
- लघुकथा
-
- अंतर
- अनैतिक प्रेम
- अपनी जरें
- आँखों का तारा
- आओ तुम्हें चाँद से मिलाएँ
- उजाले की तलाश
- उसका प्यार
- एक बूँद प्यास
- काहे को भेजी परदेश बाबुल
- कोई हमारी भी सुनेगा
- गाय की रोटी
- गाय ‘पालन की परिभाषा’!
- डर और आत्म विश्वास
- तहस-नहस
- दूसरी माँ
- नारी ‘तुम मत रुको’!
- पति का बटुआ
- पत्नी
- पाँच लघु कथाएँ
- पौधरोपण
- बेटी की गुल्लक
- माँ का ब्लैकबोर्ड
- माँ ‘छाया की तरह’!
- मातृभाषा
- माया
- मुझे छोड़ कर मत जाओ
- मुझे ‘बहने दो’!
- म्यूज़िक कंसर्ट
- रिश्ते (डॉ. सुशील कुमार शर्मा)
- रौब
- शर्बत
- शिक्षक सम्मान
- शुद्धि की प्रतीक्षा
- शेष शुभ
- हर चीज़ फ़्री
- हिन्दी इज़ द मोस्ट वैलुएबल लैंग्वेज
- ग़ुलाम
- ज़िन्दगी और बंदगी
- फ़र्ज़
- कविता-मुक्तक
-
- अक्षय तृतीया
- कबीर पर कुंडलियाँ
- कुण्डलिया - अटल बिहारी बाजपेयी को सादर शब्दांजलि
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - अपना जीवन
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - आशा, संकल्प
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - इतराना, देशप्रेम
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - काशी
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - गंगा
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - गणपति वंदना
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - गीता
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - गुरु
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - गुरु
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - जय गणेश
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - जय गोवर्धन
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - जलेबी
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - झंडा वंदन, नमन शहीदी आन, जय भारत
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - नया संसद भवन
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - नर्स दिवस पर
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - नवसंवत्सर
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - पर्यावरण
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - पहली फुहार
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - पेंशन
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - बचपन
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - बम बम भोले
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - बुझ गया रंग
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - भटकाव
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - मकर संक्रांति
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - मतदान
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - मन
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - मानस
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - विद्या, शिक्षक
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - शुभ धनतेरस
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - संवेदन
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - सावन
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - स्तनपान
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - हिन्दी दिवस विशेष
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - होली
- कुण्डलिया - सीखना
- कुण्डलिया – कोशिश
- कुण्डलिया – डॉ. सुशील कुमार शर्मा – यूक्रेन युद्ध
- कुण्डलिया – परशुराम
- कुण्डलिया – संयम
- कुण्डलियाँ स्वतंत्रता दिवस पर
- गणतंत्र दिवस
- दुर्मिल सवैया – डॉ. सुशील कुमार शर्मा – 001
- प्रदूषण और पर्यावरण चेतना
- शिव वंदना
- सायली छंद - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - चाँद
- सोशल मीडिया और युवावर्ग
- होली पर कुण्डलिया
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
- दोहे
-
- अटल बिहारी पर दोहे
- आदिवासी दिवस पर दोहे
- कबीर पर दोहे
- क्षण भंगुर जीवन
- गणपति
- गुरु पर दोहे – 01
- गुरु पर दोहे – 02
- गोविन्द गीत— 001 प्रथमो अध्याय
- गोविन्द गीत— 002 द्वितीय अध्याय
- गोविन्द गीत— 003 तृतीय अध्याय
- गोविन्द गीत— 004 चतुर्थ अध्याय
- गोविन्द गीत— 005 पंचम अध्याय
- गोविन्द गीत— 006 षष्टम अध्याय
- गोविन्द गीत— 007 सप्तम अध्याय–भाग 1
- गोविन्द गीत— 007 सप्तम अध्याय–भाग 2
- चंद्रशेखर आज़ाद
- जल है तो कल है
- जीवन
- टेसू
- नम्रता पर दोहे
- नरसिंह अवतरण दिवस पर दोहे
- नववर्ष
- नूतन वर्ष
- प्रभु परशुराम पर दोहे
- प्रेम
- प्रेमचंद पर दोहे
- फगुनिया दोहे
- बचपन पर दोहे
- बस्ता
- बाबा साहब अम्बेडकर जयंती पर कुछ दोहे
- बुद्ध
- बेटी पर दोहे
- मित्रता पर दोहे
- मैं और स्व में अंतर
- रक्षाबंधन पर दोहे
- राम और रावण
- वट सावित्री व्रत पर दोहे
- विवेक
- शिक्षक पर दोहे
- शिक्षक पर दोहे - 2022
- श्रम की रोटी पर दोहे
- संग्राम
- सूरज को आना होगा
- स्वतंत्रता दिवस पर दोहे
- हमारे कृष्ण
- होली
- सांस्कृतिक आलेख
- ऐतिहासिक
- बाल साहित्य कविता
-
- अरे गिलहरी
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - ठंड
- गर्मी की छुट्टी
- चिड़िया का दुःख
- चिड़िया की हिम्मत
- पतंग
- पानी बचाओ
- बादल भैया
- बाल कविताएँ – 001 : डॉ. सुशील कुमार शर्मा
- बेचारा गोलू
- मुनमुन गिलहरी
- मैं कुछ ख़ास बनूँगा
- मैं ही तो हूँ— तुम्हारे भीतर
- लोरी
- लौकी और कद्दू की लड़ाई
- हम हैं छोटे बच्चे
- होली चलो मनायें
- नाटक
- साहित्यिक आलेख
-
- आज की हिन्दी कहानियों में सामाजिक चित्रण
- गीत सृष्टि शाश्वत है
- डिजिटल युग में कविता की प्रासंगिकता और पाठक की भूमिका
- पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री विमर्श
- प्रवासी हिंदी साहित्य लेखन
- प्रेमचंद का साहित्य – जीवन का अध्यात्म
- बुन्देल खंड में विवाह के गारी गीत
- भारत में लोक साहित्य का उद्भव और विकास
- मध्यकालीन एवं आधुनिक काव्य
- रामायण में स्त्री पात्र
- वर्तमान में साहित्यकारों के समक्ष चुनौतियाँ
- समाज और मीडिया में साहित्य का स्थान
- समावेशी भाषा के रूप में हिन्दी
- साहित्य में प्रेम के विविध स्वरूप
- साहित्य में विज्ञान लेखन
- हिंदी भाषा की उत्पत्ति एवं विकास एवं अन्य भाषाओं का प्रभाव
- हिंदी भाषा की उत्पत्ति एवं विकास एवं अन्य भाषाओं का प्रभाव
- हिंदी साहित्य में प्रेम की अभिव्यंजना
- रेखाचित्र
- चिन्तन
- काम की बात
- गीत-नवगीत
-
- अखिल विश्व के स्वामी राम
- अच्युत माधव
- अनुभूति
- अब कहाँ प्यारे परिंदे
- अब का सावन
- अब नया संवाद लिखना
- अब वसंत भी जाने क्यों
- अबके बरस मैं कैसे आऊँ
- आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
- आज से विस्मृत किया सब
- इस बार की होली में
- उठो उठो तुम हे रणचंडी
- उर में जो है
- कि बस तुम मेरी हो
- कृष्ण मुझे अपना लो
- कृष्ण सुमंगल गान हैं
- गमलों में है हरियाली
- गर इंसान नहीं माना तो
- गुलशन उजड़ गया
- गोपी गीत
- घर घर फहरे आज तिरंगा
- चला गया दिसंबर
- चलो होली मनाएँ
- चढ़ा प्रेम का रंग सभी पर
- ज्योति शिखा सी
- झरता सावन
- टेसू की फाग
- तुम तुम रहे
- तुम मुक्ति का श्वास हो
- दिन भर बोई धूप को
- धरती बोल रही है
- नया कलेंडर
- नया वर्ष
- नव अनुबंध
- नववर्ष
- फागुन ने कहा
- फूला हरसिंगार
- बहिन काश मेरी भी होती
- बेटी घर की बगिया
- बोन्साई वट हुए अब
- भरे हैं श्मशान
- मतदाता जागरूकता पर गीत
- मन का नाप
- मन को छलते
- मन गीत
- मन बातें
- मन वसंत
- मन संकल्पों से भर लें
- महावीर पथ
- मैं दिनकर का वंशज हूँ – 001
- मैं दिनकर का वंशज हूँ – 002
- मौन गीत फागुन के
- मज़दूर दिवस पर गीत
- यूक्रेन युद्ध
- वयं राष्ट्र
- वसंत पर गीत
- वासंती दिन आए
- विधि क्यों तुम इतनी हो क्रूर
- शस्य श्यामला भारत भूमि
- शस्य श्यामली भारत माता
- शिव
- सत्य का संदर्भ
- सुख-दुख सब आने जाने हैं
- सुख–दुख
- सूना पल
- सूरज की दुश्वारियाँ
- सूरज को आना होगा
- स्वागत है नववर्ष तुम्हारा
- हर हर गंगे
- हिल गया है मन
- ख़ुद से मुलाक़ात
- ख़ुशियों की दीवाली हो
- कहानी
- काव्य नाटक
- कविता - हाइकु
- यात्रा वृत्तांत
- हाइबुन
- पुस्तक समीक्षा
- कविता - क्षणिका
- हास्य-व्यंग्य कविता
- गीतिका
- अनूदित कविता
- किशोर साहित्य कविता
- एकांकी
- स्मृति लेख
- ग़ज़ल
- बाल साहित्य लघुकथा
- व्यक्ति चित्र
- सिनेमा और साहित्य
- किशोर साहित्य नाटक
- ललित निबन्ध
- विडियो
- ऑडियो
-