गोपी गीत
डॉ. सुशील कुमार शर्मा
छंद काव्यानुवाद-सुशील शर्मा
गोपी गीत
(कुकुभ /लावणी /ताटंक छंद प्रति चरण 16, 14 मात्राएँ)
(गोपी गीत पाठ श्रीमदभागवत महापुराण के दसवें स्कंध के रासपंचाध्यायी का 31 वाँ अध्याय है। इसमें 19 श्लोक हैं। रास लीला के समय गोपियों को मान हो जाता है। भगवान् उनका मान भंग करने के लिए अंतर्धान हो जाते हैं। उन्हें न पाकर गोपियाँ व्याकुल हो जाती हैं। वे आर्त्त स्वर में श्रीकृष्ण को पुकारती हैं, यही विरहगान गोपी गीत है। इसमें प्रेम के अश्रु, मिलन की प्यास, दर्शन की उत्कंठा और स्मृतियों का रुदन है। भगवद प्रेम सम्बन्ध में गोपियों का प्रेम सबसे निर्मल, सर्वोच्च और अतुलनीय माना गया है।)
हुए अवतरित तुम जब माधव
बैकुंठी ब्रजधाम प्रभो।
शील सुंदरी श्री लक्ष्मी का
निज प्रवास अविराम प्रभो।
किये समर्पित प्राण आपको
भटकें दसों दिशाओं में।
कृपा करो हे माधव हम पर
तुम मन की आशाओं में। 1
हृदय नाथ प्रभु आप हमारे
हम सेवक तुम स्वामी हो।
राजीव लोचन नयन तुम्हारे
प्रभु तुम अन्तर्यामी हो।
नयन कटारी से हर लीने
तुमने प्राण हमारे हैं।
नहीं अस्त्र ही प्राण निकालें
घातक नयन तुम्हारे हैं। 2
पुरष शिरोमणि मुरलीवाले
सब के तारण हार प्रभो।
हने अघा, वृषभा, व्योमासुर
सबके प्राणाधार प्रभो।
गर्व विखंडित किया इन्द्र का
नथा कालिया विष लहरी।
रक्षित किये प्राण हम सबके
आप प्राण के हैं प्रहरी। 3
मात्र यशोदा पुत्र नहीं तुम
अंतरतम जगदीश्वर हो।
सचराचर अन्तर्यामी प्रभु
सबके तुम परमेश्वर हो।
सृष्टि का कल्याण विहित कर
ब्रह्मा जी से प्रार्थित हो।
हेतु जगत कल्याण समर्पित
यदुवंशी कुल के सुत हो। 4
श्री चरणों में शीश झुका कर
जो माँगा वह पाता है।
शरण तुम्हारी जो भी गहता
वह निर्भय हो जाता है।
जन्म-मृत्यु के बंधन कटते
प्रभु तुम जिसे सनाथ करो।
नेहपूर्वक जिसे गहें श्री
वो कर मेरे माथ धरो। 5
हे ब्रज नंदन, दुःख निकंदन
मधु मुस्कानें मंडित हैं।
मंदहास स्मित श्री अधरों से
घन घमंड सब खंडित हैं।
अहो सखे! मत रूठो हमसे
क्यों हमसे यह दूरी है।
हम अबला असहाय नरी प्रभु
श्यामल दर्श ज़रूरी है। 6
मधुरिम सुंदरतम प्रभु पग हैं
पाप नष्ट कर देते हैं।
श्री वन्दित प्रभु चरण आपके
सारे दुख हर लेते हैं।
गौ बछड़ों के पीछे चलते
विषधर के फण पर नचते।
शांत विरह की व्यथा करो प्रभु
क्यों न हृदय पर पग रखते। 7
मधुर अधर वाणी सुमधुर है
शब्द ध्वनि आकर्षक सब।
ज्ञान बुद्धि सब हुए समाहित
मोहक छवि के दर्शक सब।
सुन-सुन प्रभु वाणी का अमृत
मोहित सब प्रभु प्यारी हैं।
वाणी रस उपहार करो प्रभु
जिसकी हम अधिकारी हैं। 8
दिव्य कर्म लीला अमरित सम
विरह पीर में जीवन है।
ऋषि मुनि ज्ञानी सब गुण गाते
पाप-ताप का मर्दन है।
श्रवण मात्र कल्याण सुमंगल
लीला मधुरिम जो गाता।
नहीं धरा पर उसके जैसा,
हृदय उदार परम दाता। 9
हँसत-लसत वो तिरछी चितवन
वो लीला प्यारी-प्यारी।
मग्न हृदय आनंदित मन था
वो अँखियाँ कारी-कारी।
वो अभिसारी मिलन ठिठोली
प्रेम भरी मीठी बातें।
क्षुब्द हृदय अब तुम बिन छलिया
सूनी-सूनी अब रातें। 10
चरण कमल कोमल सुंदर हैं
हे प्रियतम प्यारे स्वामी।
ब्रज चौरासी कोस भ्रमण कर
गऊओं के तुम अनुगामी।
युगल चरण में कंकड़ काँटे
तिनके कुश चुभ जाते हैं
तन-मन सब बैचेन व्यथित हो
दुःख बहुत हम पाते हैं। 11
सांध्यकाल जब तुम घर लौटो
हम सब दर्शन को भटकें।
धूल-धूसरित मुखड़े पर प्रिय
घुँघराली अलकें लटकें।
रूप सलोना मधुर मनोहर
देख हृदय ललचाता है।
मिलने की उत्कट इच्छा में
हुआ बावरा जाता है। 12
एकमेव हो नाथ आप ही
पीड़ा को हरने वाले।
शरणागत की हर इच्छा को
सदा पूर्ण करने वाले।
श्री सेवित पृथ्वी के भूषण
भव बाधा प्रभु आप हरो।
कुंजबिहारी चरण आपके
वक्ष हमारे आप धरो। 13
अधरामृत सुख कर प्रिय माधव
विरह जन्य सब शोक हरे।
आत्म हृदय मन आनंदित हो
सुन वंशी सुर भाव भरे।
पी कर यह अधरामृत केशव
मिटें वासनाएँ गहरी।
मंत्रमुग्ध मादल मन सुनकर
दिव्य मधुर वह स्वर लहरी। 14
युग सम बीते पल छिन दिन सब
वन विहार जब आप गए।
सांध्य समय केशव जब लौटे
मुख निहार आनंद भए।
मधुर मनोहर सुंदर मुख पर
शोभित घुँघराली अलकें।
क्रूर विधाता ने क्यों रच दीं
नयन बंद करती पलकें। 15
हे केशव तुमसे मिलने को
पति पुत्र बंधु कुल छोड़े।
करी अवज्ञा उनकी हमने
तुमसे मन नाता जोड़े।
मधुर गान सुनकर हम भागे
रात अँधेरे तुम न मिले।
हम असहाय नारियाँ छलिया
क्यों तुम हमको छोड़ चले। 16
करते थे तुम नित्य ठिठोली
और प्रेम की मृदु बातें।
प्रेम भरी चितवन कान्हा की
थीं अमूल्य वो सौग़ातें।
है विशाल वक्षस्थल प्रभु का
श्री जी जहाँ निवास करें।
हृदय हुआ आसक्त आप पर
मिलन लालसा आत्म भरें। 17
सब ब्रज जन की पीड़ा हरता,
नष्ट सभी दुख-ताप प्रभो।
यह अति शुभ प्राकट्य आपका
कल्याणक जग आप प्रभो।
हे प्रभु इस आसक्त हृदय में
प्यारी छवि है मोहन की।
कोई औषधि दे दो कान्हा,
मिटे पीर इस जीवन की। 18
अंबुज कोमल जैसे प्रिय पग
कुच कठोर दृढ़ छातीं है।
कैसे रखें वक्ष पर श्री पग
हम गोपी सकुचातीं हैं।
जब ये पग भटकें जंगल में
पीर हृदय में जागी है।
जीवन माधव तुम्हें समर्पित
तन-मन प्रभु अनुरागी है। 19
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