ओशो: रजनीश से बुद्धत्व तक, एक विद्रोही सद्गुरु की शाश्वत प्रासंगिकता

15-12-2025

ओशो: रजनीश से बुद्धत्व तक, एक विद्रोही सद्गुरु की शाश्वत प्रासंगिकता

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 290, दिसंबर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

(ओशो के जन्मदिन पर विशेष आलेख) 

 

एक असाधारण व्यक्तित्व का जन्मदिन

प्रत्येक वर्ष 11 दिसंबर का दिन एक ऐसे असाधारण दार्शनिक, आध्यात्मिक गुरु और क्रांतिकारी विचारक के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है, जिसने भारतीय आध्यात्मिक परिदृश्य को झकझोर कर रख दिया ओशो, जिनका मूल नाम चंद्र मोहन जैन और बाद में आचार्य रजनीश था। ओशो (Osho), जिसका अर्थ है ‘सागर में विलीन होना’ या ‘परम पूज्य’, एक ऐसी शख़्सियत थे जिन्होंने धर्म, समाज, नैतिकता और जीवन के प्रति हमारे पारंपरिक दृष्टिकोणों को चुनौती दी। उनका जीवन, उनका काम और उनके विचार आज भी दुनिया भर के लोगों को गहरे आत्म-मंथन के लिए प्रेरित करते हैं। 

यह आलेख ओशो के विराट व्यक्तित्व, उनके विपुल कृतित्व और वर्तमान तथा भविष्य की पीढ़ियों के लिए उनकी अनूठी प्रासंगिकता पर केंद्रित है। 

1. ओशो का व्यक्तित्व:

एक विद्रोही और प्रेम का सागर

ओशो का व्यक्तित्व कई विरोधाभासों का संगम था। वह एक ही समय में प्रेम, हास्य, गहन दर्शन और तीखे विद्रोह से भरे थे। 

विद्रोही विचारक:

ओशो ने धर्म, राजनीति और समाज की स्थापित रूढ़ियों को स्वीकार करने से स्पष्ट इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि सत्य उधार नहीं लिया जा सकता, उसे स्वयं खोजना पड़ता है। उन्होंने पाखंड, अंधविश्वास और थोपी गई नैतिकता पर तीखे प्रहार किए। उन्होंने विवाह, परिवार, पूँजीवाद और समाजवाद जैसी संस्थाओं की कड़ी आलोचना की, यह तर्क देते हुए कि ये सब व्यक्ति की स्वतंत्रता और ख़ुशी को दबाते हैं। उनका विद्रोह किसी संस्था के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि मानव मन की सुस्ती और ग़ुलामी के ख़िलाफ़ था। 

दार्शनिक और वक्ता: 

ओशो एक बेजोड़ वक्ता थे। उनके प्रवचनों की शैली अनूठी थी गहन ज्ञान, कविता, चुटकुले, और व्यक्तिगत क़िस्सों का मिश्रण। उन्होंने महावीर, बुद्ध, कृष्ण, मीरा, नानक, मोहम्मद, जीसस और ज़ोरोएस्टर सहित सभी प्रमुख संतों और रहस्यवादियों पर विस्तार से बात की। उन्होंने न केवल उनके दर्शन को समझाया, बल्कि उसे आधुनिक मनोवैज्ञानिक संदर्भ में प्रासंगिक बनाया। उनकी वाणी में एक सम्मोहक जादू था जो श्रोता को सीधे आत्म-अनुभूति की ओर ले जाता था। 

प्रेम और करुणा:

उनके विद्रोही तेवर के पीछे गहन प्रेम और करुणा थी। उनका मानना था कि सच्चा अध्यात्म कठोर तपस्या या त्याग में नहीं, बल्कि जीवन की समग्रता में है सृष्टि के प्रति प्रेम, शरीर के प्रति प्रेम और स्वयं के प्रति प्रेम। उन्होंने अपने अनुयायियों को ‘संन्यासी’ कहा, जिसका अर्थ उन्होंने ‘त्यागी’ नहीं, बल्कि ‘सत्य की खोज में संलग्न’ बताया। 

2. ओशो का कृतित्व:

 विपुल साहित्य और क्रांतिकारी विधियाँ

ओशो का कृतित्व अत्यंत विशाल और बहुआयामी है। उन्होंने स्वयं कुछ लिखा नहीं, बल्कि उनके प्रवचन सैकड़ों किताबों के रूप में संकलित किए गए, जिससे 600 से अधिक पुस्तकें और 9000 घंटों से अधिक का ऑडियो उपलब्ध है। 

अध्यात्म पर पुनर्विचार:

ओशो ने आध्यात्मिकता को स्वर्ग की चिंता या पापबोध से निकालकर पृथ्वी पर ख़ुशी प्राप्त करने पर केंद्रित किया। उन्होंने धर्म को ‘अंदरूनी विज्ञान’ बताया। उनका प्रसिद्ध सूत्र था: “धर्म और विज्ञान दो विरोधी चीज़ें नहीं हैं, वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। विज्ञान बाहरी है, धर्म आंतरिक।”

डायनामिक मेडिटेशन

ओशो का सबसे क्रांतिकारी योगदान उनकी ध्यान विधियाँ हैं। उन्होंने पाया कि आधुनिक मनुष्य का मन इतना तनावग्रस्त और दमित भावनाओं से भरा हुआ है कि वह सीधे बैठकर विपश्यना या शांतिपूर्ण ध्यान नहीं कर सकता। इसलिए उन्होंने सक्रिय ध्यान (Active Meditation) की शुरूआत की, जिनमें उनकी सबसे प्रसिद्ध विधि ‘डायनामिक मेडिटेशन’ है। यह विधि पाँच चरणों में होती है तेज़ी से श्वास लेना, विसर्जन (कैथार्सिस), हूमंत्र, ठहराव और उत्सव जो दमित क्रोध, दुःख और ऊर्जा को बाहर निकालने में मदद करती है, जिससे मन शांत होने के लिए तैयार हो पाता है। उन्होंने ‘कुंडलिनी मेडिटेशन’, ‘नादब्रह्म मेडिटेशन’ और ‘नटराज मेडिटेशन’ जैसी कई अन्य विधियाँ भी विकसित कीं। 

काम से समाधि की ओर:

ओशो ने समाज के सबसे बड़े वर्जित विषय सेक्सुअलिटी (कामुकता) पर खुलकर बात की। उन्होंने दावा किया कि दमन कभी भी मुक्ति नहीं ला सकता। जो लोग अपनी प्राकृतिक ऊर्जाओं को दबाते हैं, वे विक्षिप्त हो जाते हैं। उनका प्रसिद्ध ग्रंथ ‘संभोग से समाधि की ओर’ एक स्पष्ट घोषणा थी कि जीवन की किसी भी ऊर्जा को दबाना नहीं है, बल्कि उसे रूपांतरित करना है। उन्होंने सिखाया कि काम ऊर्जा को प्रेम और फिर करुणा में बदला जा सकता है, जो अंततः समाधि की ओर ले जाती है। 

3. वर्तमान एवं भविष्य में ओशो की प्रासंगिकता

ओशो के विचार आज, 21वीं सदी में, पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक प्रतीत होते हैं। 

वर्तमान: तनाव, बेचैनी और आत्म-खोज

आज का मनुष्य सूचनाओं और भौतिकता से भरा हुआ है, लेकिन आंतरिक शान्ति से ख़ाली है। ओशो के विचार इस बेचैनी को दूर करने में सहायक हैं:

तनाव मुक्ति के लिए ध्यान: कॉर्पोरेट जगत से लेकर व्यक्तिगत जीवन तक, हर जगह तनाव व्याप्त है। ओशो की सक्रिय ध्यान विधियाँ आधुनिक मनुष्य के लिए एक त्वरित और प्रभावी टूलकिट प्रदान करती हैं जिससे वह अपनी ऊर्जा को संतुलित कर सके और मन को शांत कर सके। 

व्यक्तित्व का पूर्ण स्वीकार: आज भी हम सामाजिक मापदंडों के अनुसार जीने की कोशिश करते हैं, जिससे आत्म-घृणा और अपराधबोध पैदा होता है। ओशो का दर्शन ‘जैस तुम हो, वैसे ही अच्छे हो’ की शिक्षा देता है। यह हमें सिखाता है कि हम अपनी अच्छाइयों और बुराइयों, दोनों को स्वीकार करें, क्योंकि तभी रूपांतरण सम्भव है। 

प्रेम और सम्बन्ध: आज के सम्बन्धों में अस्थिरता और भ्रम अधिक है। ओशो के प्रेम पर विचार, जो किसी पर स्वामित्व जताने के बजाय दूसरे को स्वतंत्रता देने पर केंद्रित हैं, स्वस्थ और सच्चे सम्बन्ध बनाने में मार्गदर्शन करते हैं। 

भविष्य में, जहाँ टेक्नॉलोजी और कृत्रिम बुद्धिमत्ता जीवन पर हावी होगी, ओशो के विचार निम्नलिखित कारणों से महत्त्वपूर्ण बने रहेंगे:

मानवता का संरक्षण: जैसे-जैसे मशीनें और रोबोट हमारे बाहरी श्रम को सँभालेंगे, मनुष्य के पास अपने आंतरिक जगत की ओर लौटने के लिए अधिक समय होगा। ओशो की आंतरिक विज्ञान की शिक्षाएँ सत्य क्या है, मैं कौन हूँ, मैं कहाँ जा रहा हूँ भविष्य की पीढ़ियों को जीवन के गहरे अर्थ से जोड़े रखेंगी। 

नैतिकता का आधार: ओशो ने थोपी गई नैतिकता का विरोध किया। उन्होंने कहा कि सच्ची नैतिकता भीतर से आनी चाहिए। जैसे-जैसे वैश्विक समाज अधिक जटिल होता जाएगा, मनुष्य को सही और ग़लत का निर्णय लेने के लिए बाहरी नियमों के बजाय अपने आंतरिक विवेक पर निर्भर रहना होगा। ओशो का दर्शन इसी आंतरिक विवेक को जागृत करता है। 

उत्सव और समग्र जीवन: भविष्य की दुनिया में लोग और अधिक यांत्रिक हो सकते हैं। ओशो का ‘उत्सव’ का संदेश जीवन के हर पल को ख़ुशी से जीने का तरीक़ा मानवता को मशीनों की दुनिया में भी आनंदित रहने की कला सिखाएगा। 

एक अमर मशाल

ओशो एक ऐसे शिक्षक थे जिन्हें उनकी मृत्यु के बाद भी समझा और सराहा जा रहा है। उनके विचार आज भी विवादित हो सकते हैं, लेकिन उनकी प्रासंगिकता अकाट्य है। वह कोई सिद्धांतवादी नहीं थे, बल्कि एक प्रयोगधर्मी थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में ‘रजनीश’ नाम के तहत जो भी ग़लतियाँ कीं, उन्हें उन्होंने खुले तौर पर स्वीकार किया और अंत में स्वयं को ‘ओशो’ (सागर में विलीन) के रूप में प्रस्तुत किया। 

ओशो का जन्मदिन हमें याद दिलाता है कि सच्चा धर्म कहीं बाहर नहीं, बल्कि हमारे भीतर है। वह हमें सिखाते हैं कि हमें बुद्ध या महावीर नहीं बनना है, बल्कि स्वयं बनना है, और स्वयं बनने की यही यात्रा ही एकमात्र आध्यात्मिक यात्रा है। ओशो का साहित्य और उनकी ध्यान विधियाँ एक ऐसी मशाल हैं जो वर्तमान की बेचैनी और भविष्य के भ्रम के बीच आत्म-खोज और आंतरिक स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त करती रहेंगी। 

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