पद्मावती
डॉ. सुशील कुमार शर्मा
शहर के बीचों बीच, बना एक विशाल बँगला, ‘पद्मालय’ खड़ा थी। यह बँगला, जिसकी सीढ़ियाँ संगमरमर की और छतें ऊँची थीं, पद्मावती के गौरवशाली अतीत का स्तम्भ था। पद्मावती, जिनका मायका किसी रियासत से कम नहीं था, का विवाह एक सादा जीवन जीने वाले शिक्षक, प्रोफ़ेसर दीनबंधु से हुआ था। यह विवाह पद्मावती के लिए आजीवन एक समझौता रहा, जिसे वह रोज़ अपनी बड़ी-बड़ी आँखों में भरकर जीती थीं।
पद्मालय में, पद्मावती का जीवन दो समानांतर दुनियाओं में विभाजित था। एक ओर उनकी दो बेटियाँ, राजेश्वरी और सुरभि थीं उनके लिए वे ‘राजकुमारी’ थीं, जिनके ख़ून में उच्च कुल का गौरव बहता था। दूसरी ओर, उनकी दोनों बहुएँ बड़ी बहू मीरा और छोटी बहू नेहा थीं, जो उनके लिए केवल हवेली की सेवा करने वाली, नाम मात्र की ‘सेवक’ थीं।
पद्मावती का संवाद हमेशा ‘मैं’ और ‘हमारे ख़ानदान’ से शुरू होकर ‘तुम’ और तुम्हारे लोग पर समाप्त होता था, जिसमें ‘तुम’ हमेशा बहुएँ होती थीं।
बड़ी बहू मीरा, जिसकी शादी बड़े बेटे अविनाश से हुई थी, उसका जीवन पद्मावती के अहम् का सबसे बड़ा शिकार था। अविनाश वर्षों से शराब की लत में डूबा था, जिसने उसे निष्क्रिय और घर का सबसे बड़ा बोझ बना दिया था। अविनाश की इस कमज़ोरी का सारा भार पद्मावती मीरा पर डालती थीं, मानो शराब मीरा के मायके से आई हो।
“मीरा!” पद्मावती का स्वर हमेशा छत की ऊँचाई से आता था। “तुम लोगों को तो सभ्यता का अर्थ ही नहीं मालूम। हमारे मायके में तो नौकरानियाँ भी इतनी लापरवाही से काम नहीं करती थीं। तुम्हारे मायके वाले कैसी शिक्षा देते हैं छोटी-सी ज़मीन और बड़ा-सा मुँह!”
मीरा के दो तेजस्वी बेटे थे, जो पद्मावती के वंश के वारिस थे, पर मीरा के लिए इस गौरव का कोई मोल नहीं था। उसका उत्तर हमेशा मौन, किन्तु आँखों में अपार पीड़ा लिए होता था।
छोटी बहू नेहा की स्थिति थोड़ी अलग थी। उसका पति आकाश (छोटा बेटा) न सिर्फ़ ज़िम्मेदार था, बल्कि घर के सारे व्यावसायिक और वित्तीय निर्णय उसी के हाथ में थे। इस कारण, नेहा का वर्चस्व चलता था। नेहा ने चार बेटियों को जन्म दिया था, जिसके लिए पद्मावती भीतर ही भीतर नाराज़ रहती थीं, पर आकाश के कारण वह नेहा को सीधे अपमानित नहीं कर पाती थीं।
नेहा और मीरा के बीच भी कोई अपनापन नहीं था। नेहा, अपने आर्थिक बल और पुत्रों के अभाव के चलते, मीरा से एक अदृश्य दूरी बनाकर रखती थी। नेहा का मनोगत द्वंद्व यह था कि उसके पास ‘नियंत्रण’ था, पर ‘वारिस’ नहीं। मीरा के पास ‘वारिस’ थे, पर कोई ‘नियंत्रण’ नहीं। पद्मावती की भेद-भावपूर्ण नीति ने इस खाई को और चौड़ा कर दिया था।
पद्मावती की छोटी बेटी सुरभि, जो स्वभाव से अपनी माँ पर गई थी, घमंड में चूर रहती थी। वह अक्सर ससुराल से मायके आती और बहुओं के काम में नुक़्स निकालती।
एक बार परिवार की किसी बड़ी दावत में, जहाँ पद्मावती के ‘उच्च घराने’ के रिश्तेदार जुटे थे, सुरभि ने मीरा को बीच में टोक दिया।
सुरभि ने व्यंग्य से कहा, “अरे भाभी! यह थाल सजाने का तरीक़ा है? हमारे यहाँ, यहाँ तक कि नौकर भी जानते हैं कि व्यंजन कैसे परोसे जाते हैं। आप लोग तो गाँव की कला को भी नहीं सँभाल पाए।”
पद्मावती रिश्तेदारों को देखते हुए बोली, “क्या करूँ बेटी! ‘रक्त’ बोलता है। हमारे घर की लड़कियाँ, बिना किसी ट्रेनिंग के, हर कला में निपुण होती हैं। इन्हें तो सब कुछ सिखाना पड़ता है, फिर भी . . . देखो, तुम्हारे बड़े मामा जी भी आए हैं। जाओ, उनसे आशीर्वाद लो। इनकी (मीरा की ओर इशारा करते हुए) औक़ात कहाँ कि उन्हें ठीक से अभिवादन कर सकें।”
मीरा ने चुपचाप अपमान का घूँट पी लिया। इस अपमान का सबसे बड़ा कष्ट यह था कि उसका पति, अविनाश, उस समय नशे में धुत्त होकर एक कोने में सोया हुआ था।
छोटी बहू नेहा ने यह सब देखा। उसने अपनी आर्थिक शक्ति का प्रदर्शन करते हुए तुरंत एक वेटर को बुलाकर थाल को सही करवाया।
नेहा ने शांत, पर अधिकार भरे स्वर में कहा, “दीदी, अब आप जाइए। वेटर बेहतर सँभाल लेगा। यहाँ सारे इंतज़ाम ‘आकाश’ ने किए हैं, और मैं नहीं चाहती कि मेहमानों को कोई असुविधा हो।”
नेहा ने ‘आकाश’ का नाम लेकर पद्मावती और सुरभि दोनों को एक साथ उनकी जगह दिखा दी। नेहा का व्यवहार कहता था: ‘तुम उच्च घराने की हो, पर घर का तंत्र अब मेरे हाथ में है।’
पद्मावती को यह पता था कि आज घर का सारा सुख-चैन, जो कि हवेली की शान बनाए रखता था, छोटे बेटे और बहू की बदौलत है, इसलिए वह नेहा के अपमान को सह लेती थीं, जबकि मीरा का अपमान उन्हें ऊर्जा देता था।
जीवन इसी द्वंद्व के सहारे चल रहा था, जब एक गहरी चोट ने पद्मावती के अहंकार के महल को हिला दिया।
पद्मावती की छोटी बेटी सुरभि, अपने घमंड के कारण, ससुराल में किसी से तालमेल नहीं बिठा पाई। वह हमेशा अपने ‘ख़ानदान’ की बड़ाई करती रही और ससुराल के नियमों को तुच्छ समझती रही। एक दिन, उसका वैवाहिक जीवन टूट गया, और वह अपमानित होकर मायके लौट आई।
सुरभि रोते हुए बोली, “माँ! उन्होंने मेरी कोई इज्ज़त नहीं की। मुझे मेरे कपड़ों और रहन-सहन के लिए ताने दिए।”
पद्मावती ने आक्रोश में कहा, “कैसे दुष्ट लोग हैं! तुम्हें नहीं पता सुरभि, तुम कहाँ से आई हो! मैं अभी तुम्हारे मामा जी को फोन करती हूँ वे उनकी औक़ात दिखा देंगे!”
पद्मावती ने अपने सभी ‘उच्च घराने’ के रिश्तेदारों को फोन किया, लेकिन किसी ने भी सीधे हस्तक्षेप करने से मना कर दिया। उनके मामा जी ने फ़ोन पर धीरे से कहा, “पद्मा, अब तुम उनके (दीनबंधु जी के) घर की हो। ये छोटी-मोटी चीज़ें अब तुम्हें ख़ुद निपटानी होंगी।”
पद्मावती का ‘उच्च कुल’ का गुमान उस पल चूर-चूर हो गया। उन्होंने पाया कि जब तक वह स्वयं शक्तिशाली थीं, तभी तक ये रिश्तेदार काम के थे। संकट आने पर, वे सब पीछे हट गए।
इसी दौरान, अविनाश की शराब की लत इतनी बढ़ गई कि उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। बड़े बेटे, जो उनका गौरव और ‘वंश का दीपक’ था, जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहा था।
पद्मावती पूरी तरह टूट गईं। अस्पताल में, उनके ‘उच्च घराने’ का कोई रिश्तेदार नहीं आया। वहाँ थी तो सिर्फ़ मीरा।
मीरा ने दिन-रात एक कर दिया। वह अपने दो बेटों की चिंता छोड़कर अविनाश की सेवा में लगी रही। वह चुपचाप, बिना किसी शिकायत के, सारे कर्त्तव्यों का निर्वाह कर रही थी।
एक रात, जब नर्स ने अविनाश के लिए एक दुर्लभ दवा लाने को कहा, तो पद्मावती ने तुरंत नेहा के पति आकाश को फोन किया।
आकाश ने शांत, पर दृढ़ स्वर में कहा “माँ, मैं अभी मीटिंग में हूँ। नेहा को भेजता हूँ।”
नेहा भागी आई। उसने बिना एक शब्द बोले, अपने ही अकाउंट से मोटी रक़म निकालकर वह दवा ख़रीदी। चार बेटियों की माँ नेहा, जिसका वंश आगे नहीं बढ़ा, उसने ही उस वंश के दीपक को बचाने के लिए अपने पैसे और समय का पूरा समर्पण कर दिया।
पद्मावती ने देखा मीरा, जिसकी ‘औक़ात’ पर वह हमेशा सवाल उठाती थीं, आज अपने पति और बच्चों के लिए ढाल बनकर खड़ी थी। और नेहा, जिसकी बेटियों को लेकर वह मन ही मन कुढ़ती थीं, आज तन्त्र की असली धुरी बनी हुई थी।
उन्हें भयानक अहसास हुआ कि उनके ‘उच्च कुल’ का रक्त केवल घमंड देता है, पर संकट में साथ देने वाला ‘साधारण रक्त’ ही काम आता है।
अविनाश ठीक होकर घर आया। पद्मालय का वातावरण शांत हो चुका था। पद्मावती अपने कमरे में अकेली बैठी थीं। उन्होंने दरवाज़े की ओर देखा। मीरा, चुपचाप उनके लिए चाय लेकर आई।
पद्मावती ने चाय का कप लिया, लेकिन उनकी आँखें मीरा के शांत, थके हुए चेहरे पर टिकी थीं।
पद्मावती की आवाज़ काँप रही थी, दशकों का अहंकार टूट रहा था, “मीरा . . . तुमने . . . तुमने मेरा घर बचा लिया। मेरा बेटा . . .”
मीरा चाय का कप रखते हुए, पहली बार आँखों में देखकर बोली, “वह मेरा भी पति है, माँ जी। और मेरे बेटों के पिता। यह मेरा कर्त्तव्य नहीं, मेरा प्रेम था।”
मीरा चली गई। पद्मावती ने कप नहीं उठाया। उन्हें एहसास हुआ कि वह वर्षों से जिस अहंकार की चादर में लिपटी थीं, वह कितनी खोखली थी।
वह ख़ुद से बोलीं, “मैंने जिसे ‘राजकुमारी’ समझा, वह घमंड के बोझ से टूटकर लौट आई। जिसे ‘नौकरानी’ समझा, वह आधारशिला बनकर खड़ी रही। मैंने हमेशा दूसरों के घर और कुल की बड़ाई की, पर यह नहीं देखा कि मेरे घर की असली धरोहर कौन है।”
उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने मीरा को अपमानित नहीं किया था, बल्कि ख़ुद को उस पवित्र प्रेम से दूर रखा था। मीरा का मौन, नेहा का समर्पण और आकाश की ज़िम्मेदारी यही इस घर की असली पूँजी थी।
पद्मावती ने अगले दिन सुबह, अपने पूरे जीवन में पहली बार, मीरा को आवाज़ नहीं दी, बल्कि चुपचाप उसकी रसोई में गईं।
पद्मावती डूबे हुए स्वर में बोली, “मीरा . . . चाय मैं बनाती हूँ। आज . . . तुम थोड़ा आराम कर लो।”
मीरा ने हैरान होकर अपनी सास की ओर देखा। उसकी आँखों में अब कोई क्रोध नहीं था, केवल एक अजीब-सी शान्ति थी।
पद्मालय में, पद्मावती का अहंकार टूट चुका था। देर से ही सही, उन्हें एहसास हुआ कि उच्च कुल का अहंकार नहीं, बल्कि स्नेह और समर्पण ही जीवन की सच्ची विरासत है। उनके हृदय में सद्बुद्धि का वह दीपक जल चुका था, जिसकी रोशनी में अब ‘पद्मालय’ एक ‘आनंदधाम’ बनने की ओर अग्रसर था।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कहानी
-
- अर्जुन से आर्यन तक: आभासी दुनिया का सच
- अर्द्धांगिनी
- जड़ों से जुड़ना
- जल कुकड़ी
- जाको राखे सांइयाँ
- त्रिवेणी संगम
- दरकता मन
- पद्मावती
- पुरानी नींव, नए मकान
- पूर्ण अनुनाद
- बुआ की राखी
- ब्रह्मराक्षस का अभिशाप
- मंदबुद्धि
- मन के एकांत में
- मैडम एम
- मौन की परछाइयाँ
- राखी का फ़र्ज़
- रिश्तों की गर्माहट
- रिश्तों के रेशमी धागे
- रेशमी धागे: सेवा का नया पथ
- हरसिंगार
- ज़िन्दगी सरल है पर आसान नहीं
- सांस्कृतिक आलेख
-
- ओशो: रजनीश से बुद्धत्व तक, एक विद्रोही सद्गुरु की शाश्वत प्रासंगिकता
- कृष्ण: अनंत अपरिभाषा
- गणेश चतुर्थी: आस्था, संस्कृति और सामाजिक चेतना का महासंगम
- गीताजयंती कर्म, धर्म और जीवन दर्शन का महामहोत्सव
- चातुर्मास: आध्यात्मिक शुद्धि और प्रकृति से सामंजस्य का पर्व
- जगन्नाथ रथयात्रा: जन-जन का पर्व, आस्था और समानता का प्रतीक
- ब्राह्मण: उत्पत्ति, व्याख्या, गुण, शाखाएँ और समकालीन प्रासंगिकता
- भगवान परशुराम: एक बहुआयामी व्यक्तित्व एवं समकालीन प्रासंगिकता
- मनुस्मृति: आलोचना से समझ तक
- वट सावित्री व्रत: आस्था, आधुनिकता और लैंगिक समानता की कसौटी
- वर्तमान समय में हनुमान जी की प्रासंगिकता
- हरितालिका तीज: आस्था, शृंगार और भारतीय संस्कृति का पर्व
- कविता
-
- अंधकार से रोशनी तक
- अधूरा सा
- अधूरी लिपि में लिखा प्रेम
- अनकहा सौंदर्य
- अनुत्तरित प्रश्न
- अर्धनारीश्वर
- आकाशगंगा
- आत्मा का संगीत
- आप कहाँ हो प्रेमचंद
- आस-किरण
- उड़ गयी गौरैया
- एक था वीरू
- एक पेड़ का अंतिम वचन
- एक स्कूल
- एक स्त्री का नग्न होना
- ओ पारिजात
- ओमीक्रान
- ओशो का अवतरण—अंतरात्मा का पर्व
- ओशो ने कहा
- और बकस्वाहा बिक गया
- कबीर छंद – 001
- कभी तो मिलोगे
- करवाचौथ की चाँदनी में
- कविता तुम कहाँ हो
- कविताएँ संस्कृतियों के आईने हैं
- कहने को अपने
- काल डमरू
- काश तुम समझ सको
- कृष्ण तुम पर क्या लिखूँ-2
- क्रिकेट बस क्रिकेट है जीवन नहीं
- गंगा अवतरण
- गण और तंत्र के बीच
- गाँधी धीरे धीरे मर रहे हैं
- गाँधी मरा नहीं करते हैं
- गाँधी सभी यक्ष प्रश्नों के उत्तर
- गाँधीजी और लाल बहादुर
- गाडरवारा गौरव गान
- गीता-श्रीकृष्ण का शाश्वत स्वर
- गोपाष्टमी: गौ की पुकार
- गोवर्धन
- चरित्रहीन
- चलो उठो बढ़ो
- चिर-प्रणय
- चुप क्यों हो
- छूट गए सब
- जब प्रेम उपजता है
- जय राम वीर
- जहाँ रहना हमें अनमोल
- जीवन का सबसे सुंदर रंग हो तुम
- जीवन की अनकही धारा
- जैसे
- ठण्ड
- तमसोमा ज्योतिर्गमय
- तुम और मैं
- तुम जो हो
- तुमसे मिलकर
- तुम्हारी आँखें
- तुम्हारी रूह में बसा हूँ मैं
- तुम्हारे जाने के बाद
- तुम—मेरी सबसे अनकही कविता
- तेरा घर या मेरा घर
- देखो होली आई
- देह की देहरी और प्राण का मौन
- धराली की पुकार
- धुएँ के उस पार
- नए युग का शिक्षक
- नए वर्ष में
- नशे पर दो कविताएँ
- नाम_जपो_किरत_करो_वंड_छको
- नारी का प्यार
- नारी सिर्फ़ देह नहीं है
- नीलकंठ
- नीले वस्त्रों में उगता सूरज
- पत्ते से बिछे लोग
- पिता: एक अनकहा संवाद
- पीले अमलतास के नीचे— तुम्हारे लिए
- पुण्य सलिला माँ नर्मदे
- पुरुष का रोना निषिद्ध है
- पृथ्वी की अस्मिता
- पोला पिठौरा
- प्रणम्य काशी
- प्रभु प्रार्थना
- प्रिय तुम आना हम खेलेंगे होली
- प्रेम का प्रतिदान कर दो
- प्रेम में पूर्णिमा नहीं होती
- फागुन अब मुझे नहीं रिझाता है
- बस तू ही तू
- बसंत बहार
- बहुत कुछ सीखना है
- बापू और शास्त्री–अमर प्रेरणा
- बिरसा मुंडा—आदिवासी गौरव
- बोलती कविता
- बोलती कविता
- ब्राह्मण कौन है
- ब्राह्मणत्व की ज्योति
- बड़ा कठिन है आशुतोष सा हो जाना
- भीम शिला
- भोर की अनकही
- मत टूटना तुम
- मन का पौधा
- माँ कात्यायनी: भगवती का षष्ठम प्राकट्य रूप
- माँ कालरात्रि: माँ भगवती का सप्तम प्राकट्य स्वरूप
- माँ कूष्मांडा – नवरात्र का चतुर्थ स्वरूप
- माँ चंद्रघंटा – नवरात्र का तृतीय स्वरूप
- माँ महागौरी: भगवती का अष्टम प्राकट्य स्वरूप
- माँ शैलपुत्री–शारदीय नवरात्र का प्रथम प्राकट्य
- माँ सिद्धिदात्री: भक्त की प्रार्थना
- माँ स्कंदमाता: माँ का पंचम रूप
- माँ-ब्रह्मचारिणी – नवरात्र का द्वितीय स्वरूप
- मिच्छामी दुक्कड़म्
- मिट्टी का घड़ा
- मुझे कुछ कहना है
- मुझे लिखना ही होगा
- मृगतृष्णा
- मेरा मध्यप्रदेश
- मेरी चाहत
- मेरी बिटिया
- मेरी भूमिका
- मेरे भैया
- मेरे लिए एक कविता
- मैं अब भी प्रतीक्षा में हूँ
- मैं अब भी वही हूँ . . .
- मैं तुम ही तो हूँ
- मैं तुम्हें प्यार करता हूँ
- मैं पर्यावरण बोल रहा हूँ . . .
- मैं मिलूँगा तुम्हें
- मैं लड़ूँगा
- मैं वो नहीं
- मौन की वह पतली रेखा
- मौन तुम्हारा
- यज्ञ
- यदि मेरी सुधि तुम ले लेतीं
- ये चाँद
- रक्तदान
- रक्षा बंधन
- राखी–धागों में बँधा विश्वास
- रिश्ते
- रुत बदलनी चाहिए
- वर्षा ऋतु
- वर्षा
- वसंत के हस्ताक्षर
- विस्मृत होती बेटियाँ
- वृद्ध—समय की धरोहर
- वो तेरी गली
- शक्कर के दाने
- शब्दों को कुछ कहने दो
- शाश्वत निनाद
- शिक्षक दिवस
- शिव आपको प्रणाम है
- शिव संकल्प
- शुभ्र चाँदनी सी लगती हो
- श्रद्धा ही श्राद्ध है
- संघर्ष का सूर्योदय
- सखि बसंत में तो आ जाते
- सत्य के दो मुख
- सत्य के नज़दीक
- सिंदूर का प्रतिशोध
- सिस्टम का श्राद्ध
- सीता का संत्रास
- सुनलो ओ रामा
- सुनो प्रह्लाद
- सृष्टि का संगीत हैं बच्चे
- सृष्टि की अंतिम प्रार्थना
- सेवा, संकल्प और समर्पण
- स्त्रियों का मन एक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड
- स्पर्श से परे
- स्वतंत्रता का सूर्य
- स्वप्न से तुम
- स्वर्णरेखा
- हथेलियों में बंद चाँद की स्मृति
- हर बार लिखूँगा
- हरितालिका तीज
- हिंदी–एकता की धड़कन, संस्कृति का स्वर
- हे केदारनाथ
- हे छट मैया
- हे राधे
- हे शिक्षक
- हे क़लमकार
- होत कबड्डी होत कबड्डी
- कविता - क्षणिका
- कविता - हाइकु
- सामाजिक आलेख
-
- अध्यात्म और विज्ञान के अंतरंग सम्बन्ध
- अबला निर्मला सबला
- आप अभिमानी हैं या स्वाभिमानी ख़ुद को परखिये
- आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और गूगल के वर्तमान संदर्भ में गुरु की प्रासंगिकता
- करवा चौथ बनाम सुखी गृहस्थी
- करवा चौथ व्रत: श्रद्धा की पराकाष्ठा या बाज़ार का विस्तार?
- कृत्रिम मेधा (AI): वरदान या अभिशाप?
- गाँधी के सपनों से कितना दूर कितना पास भारत
- गाय की दुर्दशा: एक सामूहिक अपराध की चुप्पी
- गौरैया तुम लौट आओ
- जीवन संघर्षों में खिलता अंतर्मन
- नकारात्मक विचारों को अस्वीकृत करें
- नब्बे प्रतिशत बनाम पचास प्रतिशत
- नव वर्ष की चुनौतियाँ एवम् साहित्य के दायित्व
- पर्यावरणीय चिंतन
- बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर: समता, न्याय और नवजागरण के प्रतीक
- भारतीय जीवन मूल्य
- भारतीय संस्कृति में मूल्यों का ह्रास क्यों
- माँ नर्मदा की करुण पुकार
- मानव मन का सर्वश्रेष्ठ उल्लास है होली
- मानवीय संवेदनाएँ वर्तमान सन्दर्भ में
- वाह रे पर्यावरण दिवस!
- विश्व पर्यावरण दिवस – वर्तमान स्थितियाँ और हम
- वृद्धजन—अतीत के प्रकाश स्तंभ और भविष्य के सेतु
- वेदों में नारी की भूमिका
- वेलेंटाइन-डे और भारतीय संदर्भ
- व्यक्तित्व व आत्मविश्वास
- शिक्षक पेशा नहीं मिशन है
- शिक्षण का वर्तमान परिदृश्य: चुनौतियाँ, अपेक्षाएँ और भावी दिशा
- संकट की घड़ी में हमारे कर्तव्य
- सम्बन्ध और स्वार्थ का द्वंद्व
- सम्बन्धों का क्षरण: एक सामाजिक विमर्श
- स्वतंत्रता दिवस: गौरव, बलिदान, हमारी ज़िम्मेदारी और स्वर्णिम भविष्य की ओर भारत
- हिंदी और रोज़गार: भाषा से अवसरों की नई दुनिया
- हैलो मैं कोरोना बोल रहा हूँ
- चिन्तन
- लघुकथा
-
- अंतर
- अनैतिक प्रेम
- अपनी जरें
- आँखों का तारा
- आओ तुम्हें चाँद से मिलाएँ
- उजाले की तलाश
- उसका प्यार
- एक बूँद प्यास
- काहे को भेजी परदेश बाबुल
- कोई हमारी भी सुनेगा
- गाय की रोटी
- गाय ‘पालन की परिभाषा’!
- डर और आत्म विश्वास
- तहस-नहस
- तुलना का बोझ
- दूसरी माँ
- नारी ‘तुम मत रुको’!
- पति का बटुआ
- पत्नी
- पाँच लघु कथाएँ
- पौधरोपण
- बेटी की गुल्लक
- माँ का ब्लैकबोर्ड
- माँ ‘छाया की तरह’!
- मातृभाषा
- माया
- मुझे छोड़ कर मत जाओ
- मुझे ‘बहने दो’!
- म्यूज़िक कंसर्ट
- रिश्ते (डॉ. सुशील कुमार शर्मा)
- रौब
- शर्बत
- शिक्षक सम्मान
- शिक्षा की पाँच दीपशिखाएँ
- शुद्धि की प्रतीक्षा
- शेष शुभ
- सपनों की उड़ान
- हर चीज़ फ़्री
- हिंदी–माँ की आवाज़
- हिन्दी इज़ द मोस्ट वैलुएबल लैंग्वेज
- ग़ुलाम
- ज़िन्दगी और बंदगी
- फ़र्ज़
- व्यक्ति चित्र
- किशोर साहित्य कहानी
- दोहे
-
- अटल बिहारी पर दोहे
- आदिवासी दिवस पर दोहे
- कबीर पर दोहे
- क्षण भंगुर जीवन
- गणपति
- गणेश उत्सव पर दोहे
- गुरु पर दोहे – 01
- गुरु पर दोहे – 02
- गुरु पर दोहे–03
- गोविन्द गीत— 001 प्रथमो अध्याय
- गोविन्द गीत— 002 द्वितीय अध्याय
- गोविन्द गीत— 003 तृतीय अध्याय
- गोविन्द गीत— 004 चतुर्थ अध्याय
- गोविन्द गीत— 005 पंचम अध्याय
- गोविन्द गीत— 006 षष्टम अध्याय
- गोविन्द गीत— 007 सप्तम अध्याय–भाग 1
- गोविन्द गीत— 007 सप्तम अध्याय–भाग 2
- चंद्रशेखर आज़ाद
- जल है तो कल है
- जीवन
- टेसू
- दीपावली पर दोहे
- नम्रता पर दोहे
- नरसिंह अवतरण दिवस पर दोहे
- नवदुर्गा पर दोहे
- नववर्ष
- नूतन वर्ष
- प्रभु परशुराम पर दोहे
- प्रेम
- प्रेम पर दोहे
- प्रेमचंद पर दोहे
- फगुनिया दोहे
- बचपन पर दोहे
- बस्ता
- बाबा साहब अम्बेडकर जयंती पर कुछ दोहे
- बाल हनुमान पर दोहे
- बुद्ध
- बेटी पर दोहे
- मित्रता पर दोहे–01
- मित्रता पर दोहे–02
- मैं और स्व में अंतर
- रक्षाबंधन पर दोहे
- रक्षाबंधन पर दोहे
- राम और रावण
- वट सावित्री व्रत पर दोहे
- विवेक
- शिक्षक पर दोहे
- शिक्षक पर दोहे - 2022
- श्रम की रोटी पर दोहे
- श्री राधा पर दोहे
- संग्राम
- सूरज को आना होगा
- स्वतंत्रता दिवस पर दोहे
- हमारे कृष्ण
- हरितालिका व्रत पर दोहे
- हिंदी पर दोहे
- होली
- सांस्कृतिक कथा
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
-
- अमृत काल का आम
- एक कप चाय और सौ जज़्बात
- कविता बेचो, कविता सीखो!
- काश मैं नींबू होता
- गुरु दक्षिणा का नया संस्करण—व्हाट्सएप वाला प्रणाम!
- घरेलू मॉडल स्त्री
- डॉ. सिंघई का ‘संतुलित’ संसार
- नवदुर्गा महोत्सव और मोबाइल
- न्याय की गली में कुत्तों का दरबार
- प्रोफ़ाइल पिक की देशभक्ति
- मातृ दिवस और पितृ दिवस: कैलेंडर पर टँगे शब्द
- मिठाइयों में बसा मनुष्य का मनोविज्ञान
- वाघा का विघटन–जब शेर भी कन्फ्यूज़ हो गया
- शर्मा जी और सब्ज़ी–एक हरी-भरी कथा
- ललित निबन्ध
- साहित्यिक आलेख
-
- आज की हिन्दी कहानियों में सामाजिक चित्रण
- गीत सृष्टि शाश्वत है
- डिजिटल युग में कविता की प्रासंगिकता और पाठक की भूमिका
- पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री विमर्श
- प्रवासी हिंदी साहित्य लेखन
- प्रेमचंद का साहित्य – जीवन का अध्यात्म
- बुन्देल खंड में विवाह के गारी गीत
- भारत में लोक साहित्य का उद्भव और विकास
- मध्यकालीन एवं आधुनिक काव्य
- रामायण में स्त्री पात्र
- वर्तमान में साहित्यकारों के समक्ष चुनौतियाँ
- समाज और मीडिया में साहित्य का स्थान
- समावेशी भाषा के रूप में हिन्दी
- साहित्य में प्रेम के विविध स्वरूप
- साहित्य में विज्ञान लेखन
- हिंदी और आधुनिक तकनीक: डिजिटल युग में भाषा की चुनौतियाँ और संभावनाएँ
- हिंदी भाषा की उत्पत्ति एवं विकास एवं अन्य भाषाओं का प्रभाव
- हिंदी भाषा की उत्पत्ति एवं विकास एवं अन्य भाषाओं का प्रभाव
- हिंदी साहित्य में प्रेम की अभिव्यंजना
- कविता-मुक्तक
-
- अक्षय तृतीया
- कबीर पर कुंडलियाँ
- कुण्डलिया - अटल बिहारी बाजपेयी को सादर शब्दांजलि
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - अपना जीवन
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - आशा, संकल्प
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - इतराना, देशप्रेम
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - काशी
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - गंगा
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - गणपति वंदना - 001
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - गणपति वंदना - 002
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - गीता
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - गुरु
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - गुरु
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - जय गणेश
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - जय गोवर्धन
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - जलेबी
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - झंडा वंदन, नमन शहीदी आन, जय भारत
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - नया संसद भवन
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - नर्स दिवस पर
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - नवसंवत्सर
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - पर्यावरण
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - पहली फुहार
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - पेंशन
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - बचपन
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - बम बम भोले
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - बुझ गया रंग
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - भटकाव
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - मकर संक्रांति
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - मतदान
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - मन
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - मानस
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - योग दिवस
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - विद्या, शिक्षक
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - शुभ धनतेरस
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - श्रम एवं कर्मठ जीवन
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - संवेदन
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - सावन
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - स्तनपान
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - हिन्दी दिवस विशेष
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - होली
- कुण्डलिया - सीखना
- कुण्डलिया – कोशिश
- कुण्डलिया – डॉ. सुशील कुमार शर्मा – यूक्रेन युद्ध
- कुण्डलिया – परशुराम
- कुण्डलिया – संयम
- कुण्डलियाँ स्वतंत्रता दिवस पर
- गणतंत्र दिवस
- दुर्मिल सवैया – डॉ. सुशील कुमार शर्मा – 001
- प्रदूषण और पर्यावरण चेतना
- शिव वंदना
- सायली छंद - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - चाँद
- सोशल मीडिया और युवावर्ग
- होली पर कुण्डलिया
- गीत-नवगीत
-
- अखिल विश्व के स्वामी राम
- अच्युत माधव
- अनुभूति
- अब कहाँ प्यारे परिंदे
- अब का सावन
- अब नया संवाद लिखना
- अब वसंत भी जाने क्यों
- अबके बरस मैं कैसे आऊँ
- आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
- आज से विस्मृत किया सब
- इस बार की होली में
- उठो उठो तुम हे रणचंडी
- उर में जो है
- कि बस तुम मेरी हो
- कृष्ण मुझे अपना लो
- कृष्ण सुमंगल गान हैं
- गमलों में है हरियाली
- गर इंसान नहीं माना तो
- गुरु पूर्णिमा पर गीत
- गुलशन उजड़ गया
- गोपी गीत
- घर घर फहरे आज तिरंगा
- चला गया दिसंबर
- चलो होली मनाएँ
- चढ़ा प्रेम का रंग सभी पर
- ज्योति शिखा सी
- झरता सावन
- टेसू की फाग
- तुम तुम रहे
- तुम मुक्ति का श्वास हो
- दिन भर बोई धूप को
- धरती बोल रही है
- नया कलेंडर
- नया वर्ष
- नव अनुबंध
- नववर्ष
- फागुन ने कहा
- फूला हरसिंगार
- बहिन काश मेरी भी होती
- बेटी घर की बगिया
- बोन्साई वट हुए अब
- भरे हैं श्मशान
- मतदाता जागरूकता पर गीत
- मन का नाप
- मन को छलते
- मन गीत
- मन बातें
- मन वसंत
- मन संकल्पों से भर लें
- महावीर पथ
- मैं दिनकर का वंशज हूँ – 001
- मैं दिनकर का वंशज हूँ – 002
- मौन गीत फागुन के
- मज़दूर दिवस पर गीत
- यूक्रेन युद्ध
- वयं राष्ट्र
- वसंत पर गीत
- वासंती दिन आए
- विधि क्यों तुम इतनी हो क्रूर
- शस्य श्यामला भारत भूमि
- शस्य श्यामली भारत माता
- शिव
- श्रावण
- सत्य का संदर्भ
- सुख-दुख सब आने जाने हैं
- सुख–दुख
- सूना पल
- सूरज की दुश्वारियाँ
- सूरज को आना होगा
- स्वागत है नववर्ष तुम्हारा
- हर हर गंगे
- हिल गया है मन
- ख़ुद से मुलाक़ात
- ख़ुशियों की दीवाली हो
- स्वास्थ्य
- स्मृति लेख
- खण्डकाव्य
- ऐतिहासिक
- बाल साहित्य कविता
-
- अरे गिलहरी
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - ठंड
- गर्मी की छुट्टी
- चिड़िया का दुःख
- चिड़िया की हिम्मत
- पतंग
- पानी बचाओ
- बादल भैया
- बाल कविताएँ – 001 : डॉ. सुशील कुमार शर्मा
- बेचारा गोलू
- मुनमुन गिलहरी
- मैं कुछ ख़ास बनूँगा
- मैं ही तो हूँ— तुम्हारे भीतर
- लोरी
- लौकी और कद्दू की लड़ाई
- हम हैं छोटे बच्चे
- होली चलो मनायें
- नाटक
- रेखाचित्र
- काम की बात
- काव्य नाटक
- यात्रा वृत्तांत
- हाइबुन
- पुस्तक समीक्षा
- हास्य-व्यंग्य कविता
- गीतिका
- अनूदित कविता
- किशोर साहित्य कविता
- एकांकी
- ग़ज़ल
- बाल साहित्य लघुकथा
- सिनेमा और साहित्य
- किशोर साहित्य नाटक
- विडियो
- ऑडियो
-