पद्मावती

15-12-2025

पद्मावती

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 290, दिसंबर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

शहर के बीचों बीच, बना एक विशाल बँगला, ‘पद्मालय’ खड़ा थी। यह बँगला, जिसकी सीढ़ियाँ संगमरमर की और छतें ऊँची थीं, पद्मावती के गौरवशाली अतीत का स्तम्भ था। पद्मावती, जिनका मायका किसी रियासत से कम नहीं था, का विवाह एक सादा जीवन जीने वाले शिक्षक, प्रोफ़ेसर दीनबंधु से हुआ था। यह विवाह पद्मावती के लिए आजीवन एक समझौता रहा, जिसे वह रोज़ अपनी बड़ी-बड़ी आँखों में भरकर जीती थीं। 

पद्मालय में, पद्मावती का जीवन दो समानांतर दुनियाओं में विभाजित था। एक ओर उनकी दो बेटियाँ, राजेश्वरी और सुरभि थीं उनके लिए वे ‘राजकुमारी’ थीं, जिनके ख़ून में उच्च कुल का गौरव बहता था। दूसरी ओर, उनकी दोनों बहुएँ बड़ी बहू मीरा और छोटी बहू नेहा थीं, जो उनके लिए केवल हवेली की सेवा करने वाली, नाम मात्र की ‘सेवक’ थीं। 

पद्मावती का संवाद हमेशा ‘मैं’ और ‘हमारे ख़ानदान’ से शुरू होकर ‘तुम’ और तुम्हारे लोग पर समाप्त होता था, जिसमें ‘तुम’ हमेशा बहुएँ होती थीं। 

बड़ी बहू मीरा, जिसकी शादी बड़े बेटे अविनाश से हुई थी, उसका जीवन पद्मावती के अहम् का सबसे बड़ा शिकार था। अविनाश वर्षों से शराब की लत में डूबा था, जिसने उसे निष्क्रिय और घर का सबसे बड़ा बोझ बना दिया था। अविनाश की इस कमज़ोरी का सारा भार पद्मावती मीरा पर डालती थीं, मानो शराब मीरा के मायके से आई हो। 

“मीरा!” पद्मावती का स्वर हमेशा छत की ऊँचाई से आता था। “तुम लोगों को तो सभ्यता का अर्थ ही नहीं मालूम। हमारे मायके में तो नौकरानियाँ भी इतनी लापरवाही से काम नहीं करती थीं। तुम्हारे मायके वाले कैसी शिक्षा देते हैं छोटी-सी ज़मीन और बड़ा-सा मुँह!”

मीरा के दो तेजस्वी बेटे थे, जो पद्मावती के वंश के वारिस थे, पर मीरा के लिए इस गौरव का कोई मोल नहीं था। उसका उत्तर हमेशा मौन, किन्तु आँखों में अपार पीड़ा लिए होता था। 

छोटी बहू नेहा की स्थिति थोड़ी अलग थी। उसका पति आकाश (छोटा बेटा) न सिर्फ़ ज़िम्मेदार था, बल्कि घर के सारे व्यावसायिक और वित्तीय निर्णय उसी के हाथ में थे। इस कारण, नेहा का वर्चस्व चलता था। नेहा ने चार बेटियों को जन्म दिया था, जिसके लिए पद्मावती भीतर ही भीतर नाराज़ रहती थीं, पर आकाश के कारण वह नेहा को सीधे अपमानित नहीं कर पाती थीं। 

नेहा और मीरा के बीच भी कोई अपनापन नहीं था। नेहा, अपने आर्थिक बल और पुत्रों के अभाव के चलते, मीरा से एक अदृश्य दूरी बनाकर रखती थी। नेहा का मनोगत द्वंद्व यह था कि उसके पास ‘नियंत्रण’ था, पर ‘वारिस’ नहीं। मीरा के पास ‘वारिस’ थे, पर कोई ‘नियंत्रण’ नहीं। पद्मावती की भेद-भावपूर्ण नीति ने इस खाई को और चौड़ा कर दिया था। 

पद्मावती की छोटी बेटी सुरभि, जो स्वभाव से अपनी माँ पर गई थी, घमंड में चूर रहती थी। वह अक्सर ससुराल से मायके आती और बहुओं के काम में नुक़्स निकालती। 

एक बार परिवार की किसी बड़ी दावत में, जहाँ पद्मावती के ‘उच्च घराने’ के रिश्तेदार जुटे थे, सुरभि ने मीरा को बीच में टोक दिया। 

सुरभि ने व्यंग्य से कहा, “अरे भाभी! यह थाल सजाने का तरीक़ा है? हमारे यहाँ, यहाँ तक कि नौकर भी जानते हैं कि व्यंजन कैसे परोसे जाते हैं। आप लोग तो गाँव की कला को भी नहीं सँभाल पाए।”

पद्मावती रिश्तेदारों को देखते हुए बोली, “क्या करूँ बेटी! ‘रक्त’ बोलता है। हमारे घर की लड़कियाँ, बिना किसी ट्रेनिंग के, हर कला में निपुण होती हैं। इन्हें तो सब कुछ सिखाना पड़ता है, फिर भी . . . देखो, तुम्हारे बड़े मामा जी भी आए हैं। जाओ, उनसे आशीर्वाद लो। इनकी (मीरा की ओर इशारा करते हुए) औक़ात कहाँ कि उन्हें ठीक से अभिवादन कर सकें।”

मीरा ने चुपचाप अपमान का घूँट पी लिया। इस अपमान का सबसे बड़ा कष्ट यह था कि उसका पति, अविनाश, उस समय नशे में धुत्त होकर एक कोने में सोया हुआ था। 

छोटी बहू नेहा ने यह सब देखा। उसने अपनी आर्थिक शक्ति का प्रदर्शन करते हुए तुरंत एक वेटर को बुलाकर थाल को सही करवाया। 

नेहा ने शांत, पर अधिकार भरे स्वर में कहा, “दीदी, अब आप जाइए। वेटर बेहतर सँभाल लेगा। यहाँ सारे इंतज़ाम ‘आकाश’ ने किए हैं, और मैं नहीं चाहती कि मेहमानों को कोई असुविधा हो।”

नेहा ने ‘आकाश’ का नाम लेकर पद्मावती और सुरभि दोनों को एक साथ उनकी जगह दिखा दी। नेहा का व्यवहार कहता था: ‘तुम उच्च घराने की हो, पर घर का तंत्र अब मेरे हाथ में है।’

पद्मावती को यह पता था कि आज घर का सारा सुख-चैन, जो कि हवेली की शान बनाए रखता था, छोटे बेटे और बहू की बदौलत है, इसलिए वह नेहा के अपमान को सह लेती थीं, जबकि मीरा का अपमान उन्हें ऊर्जा देता था। 

जीवन इसी द्वंद्व के सहारे चल रहा था, जब एक गहरी चोट ने पद्मावती के अहंकार के महल को हिला दिया। 

पद्मावती की छोटी बेटी सुरभि, अपने घमंड के कारण, ससुराल में किसी से तालमेल नहीं बिठा पाई। वह हमेशा अपने ‘ख़ानदान’ की बड़ाई करती रही और ससुराल के नियमों को तुच्छ समझती रही। एक दिन, उसका वैवाहिक जीवन टूट गया, और वह अपमानित होकर मायके लौट आई। 

सुरभि रोते हुए बोली, “माँ! उन्होंने मेरी कोई इज्ज़त नहीं की। मुझे मेरे कपड़ों और रहन-सहन के लिए ताने दिए।”

पद्मावती ने आक्रोश में कहा, “कैसे दुष्ट लोग हैं! तुम्हें नहीं पता सुरभि, तुम कहाँ से आई हो! मैं अभी तुम्हारे मामा जी को फोन करती हूँ वे उनकी औक़ात दिखा देंगे!”

पद्मावती ने अपने सभी ‘उच्च घराने’ के रिश्तेदारों को फोन किया, लेकिन किसी ने भी सीधे हस्तक्षेप करने से मना कर दिया। उनके मामा जी ने फ़ोन पर धीरे से कहा, “पद्मा, अब तुम उनके (दीनबंधु जी के) घर की हो। ये छोटी-मोटी चीज़ें अब तुम्हें ख़ुद निपटानी होंगी।”

पद्मावती का ‘उच्च कुल’ का गुमान उस पल चूर-चूर हो गया। उन्होंने पाया कि जब तक वह स्वयं शक्तिशाली थीं, तभी तक ये रिश्तेदार काम के थे। संकट आने पर, वे सब पीछे हट गए। 

इसी दौरान, अविनाश की शराब की लत इतनी बढ़ गई कि उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। बड़े बेटे, जो उनका गौरव और ‘वंश का दीपक’ था, जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहा था। 

पद्मावती पूरी तरह टूट गईं। अस्पताल में, उनके ‘उच्च घराने’ का कोई रिश्तेदार नहीं आया। वहाँ थी तो सिर्फ़ मीरा। 

मीरा ने दिन-रात एक कर दिया। वह अपने दो बेटों की चिंता छोड़कर अविनाश की सेवा में लगी रही। वह चुपचाप, बिना किसी शिकायत के, सारे कर्त्तव्यों का निर्वाह कर रही थी। 

एक रात, जब नर्स ने अविनाश के लिए एक दुर्लभ दवा लाने को कहा, तो पद्मावती ने तुरंत नेहा के पति आकाश को फोन किया। 

आकाश ने शांत, पर दृढ़ स्वर में कहा “माँ, मैं अभी मीटिंग में हूँ। नेहा को भेजता हूँ।”

नेहा भागी आई। उसने बिना एक शब्द बोले, अपने ही अकाउंट से मोटी रक़म निकालकर वह दवा ख़रीदी। चार बेटियों की माँ नेहा, जिसका वंश आगे नहीं बढ़ा, उसने ही उस वंश के दीपक को बचाने के लिए अपने पैसे और समय का पूरा समर्पण कर दिया। 

पद्मावती ने देखा मीरा, जिसकी ‘औक़ात’ पर वह हमेशा सवाल उठाती थीं, आज अपने पति और बच्चों के लिए ढाल बनकर खड़ी थी। और नेहा, जिसकी बेटियों को लेकर वह मन ही मन कुढ़ती थीं, आज तन्त्र की असली धुरी बनी हुई थी। 

उन्हें भयानक अहसास हुआ कि उनके ‘उच्च कुल’ का रक्त केवल घमंड देता है, पर संकट में साथ देने वाला ‘साधारण रक्त’ ही काम आता है। 

अविनाश ठीक होकर घर आया। पद्मालय का वातावरण शांत हो चुका था। पद्मावती अपने कमरे में अकेली बैठी थीं। उन्होंने दरवाज़े की ओर देखा। मीरा, चुपचाप उनके लिए चाय लेकर आई। 

पद्मावती ने चाय का कप लिया, लेकिन उनकी आँखें मीरा के शांत, थके हुए चेहरे पर टिकी थीं। 

पद्मावती की आवाज़ काँप रही थी, दशकों का अहंकार टूट रहा था, “मीरा . . . तुमने . . . तुमने मेरा घर बचा लिया। मेरा बेटा . . .”

मीरा चाय का कप रखते हुए, पहली बार आँखों में देखकर बोली, “वह मेरा भी पति है, माँ जी। और मेरे बेटों के पिता। यह मेरा कर्त्तव्य नहीं, मेरा प्रेम था।”

मीरा चली गई। पद्मावती ने कप नहीं उठाया। उन्हें एहसास हुआ कि वह वर्षों से जिस अहंकार की चादर में लिपटी थीं, वह कितनी खोखली थी। 

वह ख़ुद से बोलीं, “मैंने जिसे ‘राजकुमारी’ समझा, वह घमंड के बोझ से टूटकर लौट आई। जिसे ‘नौकरानी’ समझा, वह आधारशिला बनकर खड़ी रही। मैंने हमेशा दूसरों के घर और कुल की बड़ाई की, पर यह नहीं देखा कि मेरे घर की असली धरोहर कौन है।”

उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने मीरा को अपमानित नहीं किया था, बल्कि ख़ुद को उस पवित्र प्रेम से दूर रखा था। मीरा का मौन, नेहा का समर्पण और आकाश की ज़िम्मेदारी यही इस घर की असली पूँजी थी। 

पद्मावती ने अगले दिन सुबह, अपने पूरे जीवन में पहली बार, मीरा को आवाज़ नहीं दी, बल्कि चुपचाप उसकी रसोई में गईं। 

पद्मावती डूबे हुए स्वर में बोली, “मीरा . . . चाय मैं बनाती हूँ। आज . . . तुम थोड़ा आराम कर लो।”

मीरा ने हैरान होकर अपनी सास की ओर देखा। उसकी आँखों में अब कोई क्रोध नहीं था, केवल एक अजीब-सी शान्ति थी। 

पद्मालय में, पद्मावती का अहंकार टूट चुका था। देर से ही सही, उन्हें एहसास हुआ कि उच्च कुल का अहंकार नहीं, बल्कि स्नेह और समर्पण ही जीवन की सच्ची विरासत है। उनके हृदय में सद्बुद्धि का वह दीपक जल चुका था, जिसकी रोशनी में अब ‘पद्मालय’ एक ‘आनंदधाम’ बनने की ओर अग्रसर था। 

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