शब्दों को कुछ कहने दो

15-06-2022

शब्दों को कुछ कहने दो

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 207, जून द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

शब्द का अहसास
चीख कर चुप होता है। 
उछलता है मचलता है और
फिर दिल के दालानों में
पसर कर बैठ जाता है। 
भावों की उफनती नदी
जब मेरे अस्तित्व से होकर गुज़रती है। 
तो शब्दों की परछाइयाँ
तुम्हारी शक्ल सी
बहती है उस बाढ़ में। 
 
ओस से गिरते हमारे अहसास
शब्दों की धूप में सूख जाते हैं। 
चीखती चाँदनी क्यों ढूँढ़ती है शब्दों को। 
सूरज सबेरे ही शब्दों की धूप से
कविता बुनता है। 
वेदना के अख़बार में
कल शब्दों के बाज़ार लगेंगे। 
 
तुम भी कुछ ख़रीद लेना उन
शब्दों की मंडी से जहाँ भिन्न
नाप और पैमाने के शब्द बिकते हैं। 
और फिर लिखना उन उथले
ओने पोने शब्दों में अपनी
चुराई अभिव्यक्ति। 
बाज़ार के शब्दों में
तुम नहींं लिख सकते
कि तुम्हारा मन क्या चाहता है। 
 
न ही लिख सकते हो
कि आज सूरज क्यों उदास है। 
न ही लिख सकते हो उस भूख
की भाषा जो उस बच्चे के पेट
के कोने से उपजी है
जो कचरे के डिब्बे में
माँ की रोटी ढूँढ़ता है। 
 
अगर तुम्हारे अंतर्मन से
शब्द उभरें तो लिखना कि
मैं अकेली और तुम तनहा से
तारों में कहीं अब दूर बैठे हैं। 
लिखना कि मैं तारों में
तुम्हें खोज लेती हूँ। 
और चाँद को बीच में रख कर
हम दोनों प्रेम करते हैं। 
 
शब्द अगर तुम्हेंं मिलें तो
उन्हें बग़ैर ठोके पीटे एक
कविता लिखना जिसमें
मन के भाव, अर्थ की सार्थकता
और कविता होने की आस हो। 
शब्द अगर तुम्हेंं किसी समंदर
या नदी के किनारे डले मिलें
तो उन्हें क़रीने से उठाना
प्यार से सहला कर अपने
मन के भावों से मिलने छोड़ देना। 
 
तुमसे गुज़ारिश है प्यार भरी
शब्दों में तुकबंदी मत ढूँढ़ो
तुकबंदी में सत्य सदा तुतलाता रहता है। 
मन की वेदना की चीखें तुम्हारे
तोतले शब्दों से परिभाषित नहींं होगी। 
तुम्हारे शब्दों के साँचे 
उन चीखों को निस्तेज बना देंगें। 
सोचना तुकबंदी में तुतलाते शब्द
तर्क तथ्य और सत्य से कितने दूर खड़े हैं। 
कुछ रहने दो कुछ बहने दो
शब्दों को भी कुछ कहने दो। 

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