मौन की परछाइयाँ

15-07-2025

मौन की परछाइयाँ

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 281, जुलाई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

गर्मी की एक लंबी दोपहर थी। हवाओं में थकावट थी, जैसे वे भी जीवन की जद्दोजेहद से उकता गई हों। आकाश धूसर था और धरती धूप से झुलसी हुई। नीला खिड़की के पास बैठी थी उसकी आँखें आकाश की ओर थीं, किन्तु दृष्टि कहीं और अटकी हुई थी। यह वह अवस्था थी जहाँ विचार शब्दों से मुक्त हो जाते हैं और केवल एक मौन गूँजता है। 

नीला अब पैंतालीस की हो चली थी। तन से स्वस्थ, मन से स्थिर, पर हृदय में कहीं एक अस्फुट शून्यता पल रही थी। उसके जीवन में कोई भूचाल नहीं आया था, न ही कोई आघात सब कुछ क्रम में था, किंतु फिर भी एक अधूरापन था, जो किसी नाम की बाट जोहता था।

पति राजीव बैंक में अधिकारी थे कर्तव्यनिष्ठ, अनुशासित और मितभाषी। दो पुत्र एक पुणे में इंजीनियरिंग कर रहा था, दूसरा दिल्ली के कोचिंग संस्थान में रहकर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में जुटा था। घर अब सुनसान-सा हो गया था। यह वही घर था जो कभी बच्चों की किलकारियों, होमवर्क की जद्दोजेहद और रसोई की खटर-पटर से गुंजायमान्‌ रहता था। अब दीवारें जैसे शब्द ढूँढ़ती फिरती थीं। 

नीला का दिन सुबह की चाय से शुरू होकर रात की थाली तक पहुँचता था, और बीच का समय वह ख़ाली था। पति अब भी थे, पर जैसे होते हुए भी नहीं थे। दफ़्तर से लौटते तो थकान की चादर ओढ़े रहते। दो-चार ज़रूरी बातें होतीं, फिर टी.वी. का शोर, समाचार, राजनीतिक चर्चाएँ और नींद। वह पुरुष जो कभी नीला की आँखों में स्वयं को देखा करता था, अब शायद उन आँखों को देखे वर्षों बीत चुके थे। 

एक दिन, जैसे अनायास ही, नीला ने पुरानी अलमारी की सबसे ऊपर वाली तह खोल दी। वहाँ उसकी कॉलेज की डायरी थी चमड़े के कवर वाली, जिसके पन्नों में अब भी उसकी युवावस्था के स्वप्नों की सुगंध बसी थी। उसने एक पन्ना खोला, पढ़ा और अचानक उसकी आँखों से दो बूँदें झर गईं। 

“मैं कैसी हो गई हूँ, और क्यों?” उसने अपने आप से पूछा। लेकिन जवाब कोई नहीं था। 

उसी रात राजीव जब थक कर सो गए, नीला मोबाइल में फ़ेसबुक स्क्रॉल कर रही थी। एक नाम दिखा अनिरुद्ध शर्मा। 

अनिरुद्ध, कॉलेज का सहपाठी, साहित्य का प्रेमी, कविताओं का पुजारी, और कभी . . . नीला का आत्मीय। बात वर्षों पुरानी थी, बहुत पीछे की। वह एक स्नेह था, जो शब्दों में कभी पूरी तरह प्रकट न हुआ, पर आँखों के रास्ते हृदय में गहराई तक उतर गया था। 

नीला ने क्षण भर सोचा, फिर संदेश भेजा, “कैसे हो, अनिरुद्ध? बहुत दिन हो गए।” 

उत्तर कुछ ही पलों में आया, “नीला! तुम? जैसे पुराने मौसम की पहली बूँद गिर पड़ी हो . . . मैं ठीक हूँ, पर तुम कैसी हो?” 

उस एक संवाद ने नीला के भीतर का ठहरा हुआ जल कुछ हल्का कर दिया। अनिरुद्ध से बात करते हुए नीला को फिर से वह एहसास होने लगा, जिसे उसने वर्षों से तिलांजलि दे दी थी कोई है जो उसे सुनता है, समझता है, उसके शब्दों के पीछे की चुप्पी को भी पढ़ लेता है। 

रातें लंबी होने लगीं और बातें धीमे सुर में बहने लगीं। दोनों ने जीवन की व्यस्तताओं, खोए हुए स्वप्नों, और वर्तमान की चुप्पियों पर चर्चा की। यह कोई लौकिक प्रेम नहीं था यह उस मानसिक सम्वाद का पुनर्जागरण था जो वर्षों पहले अधूरा रह गया था। 

एक रात, अनिरुद्ध ने लिखा, “नीला, क्या तुम्हें कभी ऐसा नहीं लगता कि हम सबने अपने भीतर एक कोठरी बंद कर रखी है, जिसमें प्रेम अब भी साँस ले रहा है, पर हम उसके पास जाना भूल चुके हैं?” 

नीला देर तक उस वाक्य को देखती रही। फिर उसने फोन नीचे रख दिया, और कमरे में टहलने लगी। दीवारों ने कोई उत्तर नहीं दिया। 

अगले दिन नीला ने उससे संवाद बंद कर दिया। न कोई कारण बताया, न विदा ली। 

बस, संवाद का अंत कर दिया। 

राजीव ने अगले दिन पूछा, “तुम आजकल कुछ चुप-सी हो, सब ठीक है ना?” 

नीला ने हल्के स्वर में उत्तर दिया, “हाँ, सब ठीक है। शायद मौसम कुछ भारी-सा है।” 

राजीव ने अख़बार की ओर देखा और कह दिया “हूँ।” 

वह “हूँ” नीला को वर्षों से परिचित था। वह उसमें न संवाद था, न जिज्ञासा। केवल उपस्थिति की औपचारिकता थी। 

दिन बीते, सप्ताह गुज़रे। अब नीला फिर अपने उसी जीवन में लौट आई थी रसोई, झाड़ू, कपड़े, कॉल करके बच्चों की चिंता। 

लेकिन कुछ बदल चुका था। 

अब जब वह खिड़की के पास बैठती थी, उसकी आँखों में ख़ालीपन नहीं होता था, वहाँ एक मौन स्वीकार था। 
वह जान चुकी थी कि प्रेम सिर्फ़ मिलने, बाँधने, या जताने का नाम नहीं है। वह एक ऐसा दीप है, जो भीतर जलता है, और कभी-कभी केवल उसकी लौ से आत्मा को गरमाहट मिलती है। 

वह जान चुकी थी कि चालीस पार की स्त्री भी प्रेम की अधिकारिणी है। 

पर यदि समाज उसके इस प्रेम को अपराध माने, तो वह उस प्रेम को मौन में जी सकती है शब्दों से नहीं, अस्तित्व से। 

राजीव अब भी वहीं थे, पत्नी से कुछ दूर, स्वयं से भी शायद। 

नीला अब भी चाय बनाती थी, पर अब वह चाय पीते हुए बालकनी में कुछ लिखती भी थी। 

उसकी डायरी अब फिर से खुलने लगी थी, और शब्द उस पर बरसने लगे थे जैसे कोई बंद बादल फिर से रास्ता खोज रहा हो। 

उसने अंतिम पंक्ति में लिखा—

“मैं अब मौन नहीं हूँ, मैं अब अपनी परछाइयों को पहचानती हूँ।”

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