रुत बदलनी चाहिए
डॉ. सुशील कुमार शर्मा
मन के भीतर भी
ऋतुएँ बदलनी चाहिएँ
बहुत दिनों से बस तपती धूप है वहाँ,
और कुछ बुझी हुई यादों की ठंडी राख।
हर कोने में बस सूखा पड़ा है,
जहाँ कोई कोंपल नहीं फूटती,
सिर्फ़ बीते पलों की गूँज है।
कोई एक मूसलाधार
बारिश होनी चाहिए अब . . .
ऐसी नहीं जो बस छूकर निकल जाए,
या सिर्फ़ ऊपरी सतह को गीला करे।
बल्कि ऐसी जो आत्मा की
गहराई तक पहुँचे,
अंदर तक जमी हुई
हर कड़वी बात को,
हर भारी अहसास को,
बहा ले जाए,
जैसे बाढ़ अपने साथ कंकड़-पत्थर ले जाती है।
कोई प्रचंड, उखाड़ फेंकने वाली धार
जो उन चेहरों को भी
अपने साथ ले जाए,
जो अब सिर्फ़ धुँधली स्मृति नहीं,
बल्कि एक भारी बोझ बनकर
बैठे हैं हृदय पर।
वो वादे जो टूट चुके,
वो क़समें जो बिखर गईं,
वो अनकहे शब्द जो
अब ज़हर बन गए।
वो रिश्ते जो बस नाम
बनकर रह गए हैं डायरी में,
या किसी पुरानी तस्वीर में दबे हैं,
जिनमें अब कोई गरमाहट नहीं,
कोई स्पंदन नहीं।
और वो घना मौन
जो अब दर्द से ज़्यादा
एक आदत बन गया है,
जिसमें लिपटकर साँस लेना
भी भारी लगता है।
बरसात होनी चाहिए
भीतर के बंजरपन पर
इतनी कि दिल की सूखी मिट्टी
फिर से नम हो सके, नर्म हो सके।
जहाँ कभी था सिर्फ़ सूखा और दरारें,
वहाँ जीवन का अमृत बरस सके।
कोई नया बीज फूटे,
आशा का, प्रेम का,
जो वर्षों से दबा पड़ा था
राख के नीचे।
कोई नई पगडंडी निकले,
अनदेखी, अनजानी दिशा में,
जहाँ से रोशनी आती हो,
जहाँ आज़ादी हो।
और आत्मा की बंजर छत पर,
फिर से हरी-भरी कोंपलें फूटें,
ख़ुशियों की हरियाली उग आए।
हाँ, मन के अंदर भी,
एक सक्रिय मौसम
चक्र होना चाहिए।
और उसमें भी, कभी-कभी,
बारिश का आना ज़रूरी है।
जो धो दे सब पुराना,
सब ठहरा हुआ,
ताकि नए सिरे से जीवन का
अंकुर फूट सके।
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